मंदी की मार से निपटने के लिए 100 दिनों के रोजगार की गारंटी वाली मनरेगा योजना भले ही अर्थशास्त्रियों की नजर में सबसे कारगर हो, लेकिन योगी सरकार में यह जैसे-तैसे चल रही है। गोलमाल, तमाम पेचीदगियों और नए-नए प्रयोगों के बीच उत्तर प्रदेश में मनरेगा का 23 फीसदी भी लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। योजना के तहत पांच फीसदी जॉब कार्ड धारकों को भी 100 दिन का रोजगार नहीं मिल सका है। सीधे मजदूर के खाते में भुगतान के सिस्टम में भी ब्लाॅक से लेकर जिला स्तर तक 7 से 10 फीसदी कमीशन के खेल ने मनरेगा की जमीन पर हवा निकाल दी है।
इस बिगड़ी सूरत का खुलासा खुद सरकारी एजेंसियां कर रही हैं। पिछले दिनों ग्राम्य विकास विभाग के प्रमुख सचिव अनुराग श्रीवास्तव ने मुख्य सचिव आरके तिवारी को जो रिपोर्ट सौंपी है, उसके आंकड़े मनरेगा की बदहाल स्थिति को बयां करने के लिए पर्याप्त हैं। इसमें व्यक्तिगत लाभार्थी योजना के तहत 5 लाख 97 हजार 232 काम कराए जाने थे, लेकिन 1 लाख 39 हजार 460 काम ही कराए गए हैं। यानी, लक्ष्य का महज 23 फीसदी ही काम हुआ। इसमें आगरा, मिर्जापुर, झांसी और सहारनपुर मंडलों की प्रगति बेहद खराब रही है।
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मनरेगा के तहत पहली अप्रैल से अक्टूबर महीने तक करीब 2,200 करोड़ की मजदूरी का भुगतान होना था, लेकिन 369 करोड़ का भुगतान भी मजदूरों को नहीं हो सका। इस मामले में मेरठ, लखनऊ, मुरादाबाद, सहारनपुर और अलीगढ़- जैसे वीआईपी जिले भी फिसड्डी साबित हुए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, अक्टूबर तक मनरेगा में 1,581 लाख मानव दिवस सृजन का लक्ष्य था, लेकिन बमुश्किल 1,207 लाख मानव दिवस का सृजन हो सका। रोजगार सृजन के मामले में मुख्यमंत्री का जिला गोरखपुर भी फिसड्डी रहा है। यहां 31 लाख मानव दिवस सृजन के सापेक्ष सिर्फ 19 लाख श्रम दिवस का सृजन किया जा सका। बस्ती, आजमगढ़, सहारनपुर, कानपुर और अलीगढ़ मंडल की स्थिति तो बेहद खराब रही।
मनरेगा की ऐसी दुर्गति तब है, जब निराश्रित गो-वंशियों को संरक्षित करने के नाम पर मनरेगा का बड़ा हिस्सा खपाया जा रहा है। रिपोर्ट तस्दीक कर रही है कि प्रदेश में 10,795 सामुदायिक और व्यक्तिगत गोशालाओं का निर्माण कराया गया है, जिनमें सवा दो लाख पशुओं को आश्रय मिला है। कागजों में मनरेगा से बनने वाले गोशालाओं की सुनहरी तस्वीर दिख रही है। इस साल सामुदायिक भूमि पर 2,769 गोशालाएं बनाने का लक्ष्य है। इनमें से अब तक 2,731 गोशालाएं बन गई हैं, सिर्फ 31 गोशालाएं निर्माणाधीन हैं। करीब 61 करोड़ रुपये खर्च कर बनी इन गोशालाओं में 1,384 लाख निराश्रित गो-वंश को रखा गया है। व्यक्तिगत लाभार्थी की भूमि पर 8,965 गोशाला बनाने का लक्ष्य है, जिनमें से 8026 गोशालाएं पूर्ण होने का दावा है। इनमें 32 हजार से अधिक निराश्रित गायों को रखा गया है।
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इन गोशालाओं में खपाए गए करोड़ों रुपये के पीछे के खेल को बीते पखवाड़े महराजगंज में मजदूरी को लेकर महिलाओं के प्रदर्शन से समझा जा सकता है। मनरेगा से गो-सदनों के जीर्णोद्धार में मनमानी तब उजागर हुई जब दर्जनों महिलाओं ने छह महीने से भुगतान लटकाने को लेकर ब्लाॅक कार्यालय पर प्रदर्शन किया। मैरी गांव की सोमारी, दुर्गावती, अमरावती और रमावती आदि महिलाओं का कहना है कि छह महीने पूर्व मधवलिया गो-सदन में तालाब की खुदाई करवाई गई थी। दो गांवों की 200 से अधिक महिला मजदूरों को भुगतान नहीं हुआ है।
सिद्धार्थनगर जिले के हसुड़ी औसानपुर के ग्राम प्रधान दिलीप कुमार त्रिपाठी गांव के बहुमुखी विकास को लेकर केंद्र और प्रदेश सरकारों के साथ ही विदेशों में भी सम्मानित हो चुके हैं। उन्हें नानाजी देशमुख राष्ट्रीय गौरव ग्राम और दीन दयाल उपाध्याय पंचायत सशक्तीकरण पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। प्रधान ने गांव में मनरेगा के कामों को लेकर तौबा कर ली है। दो साल पहले प्रधान ने गांव में 12 लाख की लागत से इंटरलाॅकिंग सड़क का निर्माण कराया था, जिसका भुगतान अब तक नहीं हो सका है। प्रधान दिलीप त्रिपाठी खुल कर कुछ कहने से बचते हैं, फिर भी यह जरूर कहते हैं कि ब्लाॅक से लेकर जिले के अधिकारियों को संतुष्ट करना आसान नहीं है। मनरेगा भुगतान की प्रक्रिया को सरल बनाना होगा। जो भ्रष्टाचार करते हैं, उन्हीं की कतार में इमानदार को रखा जा रहा है।
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हकीकत यह है कि ब्लाॅक स्तर पर बिना 7 से 10 फीसदी कमीशन दिए कोई भुगतान संभव नहीं है। महराजगंज लोकसभा सीट से पांच बार के सांसद पंकज चौधरी का घर शहर से सटे गांव धनेवा-धनेही में है। यहां भी मनरेगा की स्थिति से प्रदेश की तस्वीर का आकलन कुछ हद तक हो सकता है। प्रधान प्रतिनिधि नसीम का कहना है कि जॉब कार्ड धारकों की संख्या घट रही है। शहर में 350 से 450 रुपये तक मजदूरी नगद मिल रही है, मनरेगा में इससे आधी मजदूरी है। ऊपर से भुगतान के लिए छह महीने का इंतजार करना पड़ता है। ऑनलाइन भुगतान के बाद भी रोजगार सेवकों और सचिव ने कमीशन के नये रास्ते तलाश लिए हैं। वह खुद ही बताते हैं कि फर्जी जॉब कार्ड धारकों के खातों में रकम डालकर गोलमाल करें।
मनरेगा में भुगतान की पारदर्शिता को लेकर सरकार भले ही नए-नए दावे कर रही हो, लेकिन अफसर और प्रधानों का गठजोड़ नई-नई तरकीब इजाद कर ले रहा है। गांवों में तमाम ऐसे लोग हैं कि जो सिर्फ अपना आधार कार्ड देकर प्रधान से मनरेगा का 30 फीसदी हिस्सा पा रहे हैं। अफसरों और प्रधानों की मिलीभगत का नतीजा है कि गोंडा से लेकर मिर्जापुर तक करोड़ों के गोलमाल के मामले उजागर हो रहे हैं। गोंडा में मनरेगा योजना में 22 करोड़ से अधिक की परियोजनाओं में गोलमाल की जांच चल रही है। कटरा में बिना कार्य कराए ही 14 परियोजनाओं पर बजट निकालने के मामले की जांच चल ही रही है। इसके साथ ही ब्लॉक में मनरेगा से 22 करोड़ रुपये से चलने वाली करीब दो हजार परियोजनाओं में खर्च हो चुके करीब 17 करोड़ रुपये के बजट में भी गोलमाल की जांच में कइयों की गर्दन फंसती दिख रही है।
गोरखपुर के एक प्रधान का कहना है कि अब जाॅब कार्ड धारक के खाते में रकम भेजी जा रही है। वहीं ब्लाक स्तर पर 10 फीसदी कमीशन कैश लेने के बाद जॉब कार्ड धारकों के खाते में रकम डाली जा रही है। जिसके खाते में रकम चली गई वह तो एक रुपये भी लौटाने से रहा। ऐसे में फर्जी जाॅब कार्ड धारकों के खाते में रकम मंगाना ही विकल्प बचा हुआ है।
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