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उत्तर प्रदेश: खबर वही जिससे खुश हो योगी सरकार, बाकी सबको माना जाएगा दुष्प्रचार

उत्तर प्रदेश शासन के एक आदेश से पत्रकारिता जगत में खौफ और हैरानी का माहौल है। सरकार की छवि किसी भी तरह न बिगड़े इसके लिए बाकायदा आदेश जारी कर सुनिश्चित करने को कहा गया है कि जो सरकार की बात न माने, उस पर नकेल लगाई जाए।

उत्तर प्रदेश का वर्ष 2023-24 का बजट पेश करने के बाद पत्रकार वार्ता करते मुख्यमंत्री योगी आदित्याथ (फोटो : Getty Images)
उत्तर प्रदेश का वर्ष 2023-24 का बजट पेश करने के बाद पत्रकार वार्ता करते मुख्यमंत्री योगी आदित्याथ (फोटो : Getty Images) 

यह लखनऊ में एक प्रमुख हिन्दी अखबार के न्यूज रूम का किस्सा है। वैसे, यह इन दिनों यूपी के किसी भी प्रमुख मंडल मुख्यालय के किसी भी अखबार का किस्सा हो सकता है। और इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक कार्यक्रम की कवरेज कर संवाददाता महोदय आए। डिजिटल के लिए उन्होंने मौके से ही 'धांसू' कॉपी फाइल कर दी थी। धांसू मतलब, ऐसी कॉपी जो मुख्यमंत्री और उनकी टीम को पसंद आए। फिर भी, उन्हें अखबार के लिए एक कॉपी फाइल करनी थी। जैसा कि होता ही है, उन्होंने संपादक के कमरे में जाकर ब्रीफ किया। अपनी सीट पर बैठे ही थे कि उनके पास एक प्रेस नोट आ गया जिसमें खबर विस्तार से लिखी थी। लोकल भाषा में 'चौचक' हेडलाइन लगी थी। वह अभी पढ़ ही रहे थे कि संपादक ने कहा, 'आ गया है, देख लीजिए। खबर में कुछ हल्का-फुल्का चेन्ज कर दीजिएगा लेकिन हेडलाइन अच्छी है, उसे ही रहने दीजिएगा।'

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यह प्रेस नोट सूचना विभाग का नहीं था जैसे कि कुछ साल पहले हर जगह होता था। यह एक पीआर कंपनी का प्रेस नोट था। मुख्यमंत्री के कार्यक्रमों, बल्कि गतिविधियों के कवरेज की जिम्मेदारी दो पीआर एजेंसियों को दी गई है। ये एजेंसियां हर प्रमुख हिन्दी-अंग्रेजी अखबार को अलग-अलग नोट जारी करती हैं। यह लगभग तय है कि उसे 'लगभग' उसी रूप में जाना है, कम-से-कम शीर्षकों में 'छेड़खानी' का 'अधिकार' तो किसी को नहीं है।

हर इवेंट में इन एजेंसियों के तीन-चार लोग रहते हैं। इन एजेंसियों पर प्रदेश सरकार सालाना करीब 50 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। इन एजेंसियों की टीमें सभी कमिश्नरी में हैं। इनके प्रतिनिधियों को जिलों के अधिकारी भी सूचना के साथ विशेष तरजीह देते हैं। मीडिया को दिए जाने वाले विज्ञापनों का खर्च अलग है। यह घटता-बढ़ता रहता है। 2020-2021 में योगी सरकार ने विज्ञापनों पर 161 करोड़ रुपये खर्च किए थे। वैसे, सूचना विभाग का सालाना बजट 1,200 से 1,500 करोड़ सालाना है।

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योगी सरकार अपनी इमेज को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित रहती है। योगी सुबह सभी प्रमुख अखबारों के शीर्षक पढ़ते हैं। उनकी पहली बैठक सूचना विभाग के अधिकारियों के साथ ही होती है। यह बैठक कैसी चलेगी, यह इस बात पर निर्भर करती है कि अगर कहीं किसी प्रमुख आउटलेट पर कोई नकारात्मक खबर छपी है, तो उस पर क्या और किस तरह का एक्शन लिया गया है और उससे मुख्यमंत्री कितने संतुष्ट हैं। फिर भी, इस सिस्टम को फुलप्रूफ बनाने के खयाल से प्रमुख सचिव संजय प्रसाद ने एक पत्र सभी कमिश्नर और जिलाधिकारी के नाम जारी किया है। संजय को 'डाटा मैन' के रूप में जाना जाता रहा है। वह योगी के करीबी माने जाते रहे हैं।

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14 अगस्त को जारी इस पत्र की भाषा इतनी डराने वाली है कि सभी प्रमुख न्यूज रूम पहले से अधिक सतर्क हो गए हैं कि सभी खबरों को सभी एंगल से ठोक-बजाकर ही फाइल करने को कहा गया है।

दरअसल, सभी जिलाधिकारियों को प्रदेश सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाली खबरों का संज्ञान लेने और यदि खबर गलत विवरण के साथ प्रकाशित या प्रसारित हुई हो, तो संबंधित मीडिया कंपनी के प्रबंधक से स्पष्टीकरण मांगने के निर्देश दिए गए हैं। इसमें संपादक का जिक्र नहीं है, हालांकि खबरों की जिम्मेदारी संपादक की होती है, प्रबंधक विज्ञापन आदि का जिम्मा संभालते हैं।

पत्र में 'सरकार विरोधी' खबरों को एकीकृत शिकायत निवारण प्रणाली (आईजीआरएस) पर दर्ज कराने को कहा गया है। परोक्ष तौर पर मीडिया घरानों को चेतावनी दी गई है कि सरकार के पसंद की खबरें नहीं प्रकाशित होंगी. तो एक्शन तो होगा ही, विज्ञापन पर भी रोक लग जाएगी।

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इस किस्म के पत्र की वजह भी है। वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा का कहना है कि 'सरकार जानती है कि इस वक्त मीडिया घरानों के लिए सरकारी विज्ञापन ही ऑक्सीजन है। बड़े मीडिया घरानों से जुड़े पत्रकार वैसे ही अपनी नौकरी को लेकर सहमे रहते हैं। ऐसे पत्र से पारदर्शिता की रही-सही उम्मीद पर भी धूल पड़ती दिख रही है।'

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक सिंह का कहना है कि 'इस पत्र का बड़ा असर आंचलिक पत्रकारों पर पड़ेगा जो आंखों देखी लिखते हैं या मौके की पड़ताल तो करते हैं लेकिन उन्हें कोई अधिकारी  बयान नहीं देता है।' कानपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि 'पत्रकार अक्सर ऐसी खबरें प्रकाशित करता है जिसमें स्रोत का नाम बचाने की शर्त होती है। ऐसी खबरों पर संकट आना तय है।' वह यह भी कहते हैं कि भारत विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित सूचकांक के अनुसार) 180 देशों में से 161वें स्थान पर है। यह दुर्दशा सरकारों के ऐसे ही प्रयासों से हुई है।

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प्रमुख सचिव का पत्र भले ही अब आया हो लेकिन योगी सरकार में पत्रकारों पर प्रशासनिक चाबुक पहले से चल रहा है। योगी के 6 साल के कार्यकाल में पत्रकारों पर नकेल के कई मामले सुर्खियों में रहे हैं। अक्टूबर 2020 में हाथरस में एक दलित युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना कवर करने के दौरान केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को मथुरा के पास गिरफ्तार किया गया था। उन्हें करीब 28 महीने, मतलब लगभग ढाई साल तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा। जिस कैब से वह यात्रा कर रहे थे, उसके ड्राइवर तक को उसके बाद ही बाहर की हवा नसीब हो पाई।

वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गोद लिए गांव डोमरी की हकीकत उजागर करने में जून, 2020 में पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। रिपोर्टर ने जिस महिला माला देवी के हवाले से गांव की स्थिति से लेकर गरीबों के पास राशन कार्ड नहीं होने का मामला उजागर किया था, प्रशासन ने उसी माला देवी से तहरीर दिलाकर पत्रकार पर एससी/एसटी एक्ट और मानहानि का मुकदमा दर्ज करा दिया। सुप्रिया शर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट में एफआईआर रद्द कराने की अपील पर तो राहत नहीं मिली, शुक्र है, उनकी गिरफ्तारी पर रोक लग गई थी।

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साल 2020 में लॉकडाउन के दौरान फतेहपुर जिले के पत्रकार अजय भदौरिया ने प्रशासन द्वारा संचालित कम्युनिटी किचन की दुर्दशा की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। पत्रकार ने एक नेत्रहीन दंपति के हवाले से कम्युनिटी किचन से खाना लेने में आ रही दिक्कतों पर स्टोरी की थी। मिर्जापुर में मिड डे मील में बच्चों को नमक-रोटी खिलाने की खबर दिखाने वाले स्थानीय पत्रकार पवन जायसवाल पर तत्कालीन जिलाधिकारी के निर्देश पर 31 अगस्त, 2019 को मुकदमा दर्ज हुआ था। जिलाधिकारी का कहना था कि प्रिंट मीडिया का पत्रकार खबरों के लिए वीडियो कैसे बना सकता है। इसके बाद प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था। पत्रकार पवन फिलहाल इस दुनिया में नहीं हैं।

बिजनौर में एक गांव में वाल्मीकि परिवार को सार्वजनिक नल से पानी लेने से रोकने की खबर दिखाने पर पांच पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था। प्रशासन का दावा था कि वाल्मीकि परिवार के पलायन की सूचना गलत थी। 10 सितंबर, 2019 को आजमगढ़ के एक स्कूल में छात्रों से झाड़ू लगाने के मामले को उजागर करने वाले छह पत्रकारों के खिलाफ प्रशासन ने मुकदमा दर्ज कराया था। मामले में पत्रकार संतोष जायसवाल को सरकारी काम में बाधा डालने और रंगदारी मांगने के आरोप में गिरफ्तार तक कर लिया गया था।

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वर्ष 2019 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ टिप्पणी करने के आरोप में पत्रकार प्रशांत कनौजिया के खिलाफ लखनऊ के हजरतगंज कोतवाली में केस दर्ज कर गिरफ्तार किया गया। प्रशांत को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद रिहाई मिली थी। पिछले साल अप्रैल महीने में बलिया में यूपी बोर्ड इंटरमीडियट परीक्षा में अंग्रेजी का पेपर लीक होने की खबर प्रकाशित करने के मामले में पत्रकार अजीत ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। लंबे संघर्ष के बाद पत्रकारों को जमानत मिली और गंभीर धाराओं को हटाया गया।

प्रमुख सचिव संजय प्रसाद के पत्र के बाद होने वाली कार्रवाई के लिए, बस, थोड़े दिन इंतजार कीजिए।

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