दिल्ली से सटे गाजियाबाग के लोनी इलाके में रहने वाले करीब 100 प्रवासी मजदूरों ने बीते करीब 5-6 साल में जुटाया अपना साजो-सामान एक थैले में भरा और उसे सिर पर लादकर करीब 1200 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के बलिया के लिए पैदल ही कूच कर दिया। यूपी के सबसे पूर्वी छोर पर स्थित बलिया के करीब 250 और प्रवासी मजदूर भी इसी तैयारी में हैं।
जब 24 मार्च को पहली बार लॉकाडाउन का ऐलान हुआ तो वे जमे रहे, उम्मीद थी कि तीन सप्ताह बाद ही सही, लॉकडाउन खत्म हो जाएगा। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस अपील पर अमल भी किया कि शारीरिक दूरी बनाए रखने से वे कोरोना संक्रमण से बच जाएंगे।
लेकिन दूसरे लॉकडाउन का ऐलान होते ही उनकी हिम्मत के साथ ही उनकी कुल जमा करीब 6000 रुपए की जमा-पूंजी भी खत्म होने लगी। भूख से हाल बुरा होने लगा। इसी दौरान जब सरकार ने बसों और ट्रेन का ऐलान किया कि ये सब उन्हें उनके घरों तक पहुंचाने के लिए है, तो उन्होंने सहज ही अधिकारियों की बातों पर भरोसा किया। लेकिन उनका तो नंबर ही नहीं आ पाया।
इस दौरान तीसरा लॉकडाउन भी आया और पैसे वालों के लिए एसी ट्रेनें भी शुरु हो गईं, विदेशों से लोगों को लाने के लिए विमान भी हवा में उड़ते दिखे तो उनकी रही-सही उम्मीदें जाती रहीं। मंगलवार को जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को एक बार फिर संबोधित किया तो उन्हें पूरी तरह ऐहसास हो गया कि कोई सरकार उनकी मदद नहीं करने वाली। सरकारों पर से उनका भरोसा खत्म हो चुका था। और उन्होंने बचा-खुचा साहस संजोया और पैदल ही निकल पड़े अपने पुश्तैनी घरों की तरफ। तो क्या हुआ कि सैकड़ों मील दूर है उनका गांव, लेकिन उन्हें वहां अपनों के साथ पर भरोसा है, क्योंकि यहां अफसर और सरकारों ने तो भरोसे को चूर-चूर कर दिया है।
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लोनी से जो प्रवासी मजदूर पहले घरों को निकले थे, उनमें से कुछ लखनऊ को करीब पहुंचने पर बसों की सुविधा मिल गई। कुछ को गाजियाबाद से ही सुबह 4 बजे के आसपास बुधवार कोबस मिल गई। लेकिन सब इतने भाग्यशाली नहीं थे। बलिया पहुंचने में उन्हें कम से कम दो सप्ताह का वक्त लगेगा, वह तब जब वह रोज करीब 100 किलोमीटर पैदल चलें।
पहले जत्थे में शामिल 100 लोगों में से एक राम ने बताया कि, “हमें एक एसडीएम दफ्तर में अपना नाम रजिस्टर कराने को कहा गया, उसके बाद ही बस का भरोसा दिया गया था। हम सबने नाम रजिस्टर कराए थे, हमने 6 दिन तक इंतजार किया कि अब कोई कॉल आएगी कि बस का इंतजाम हो गया। कुछ दिन पहले कुछ लोगों के पास किसी नोडल अफसर का फोन आया कि बस मिलने वाली है, लेकिन कुछ ही देर बाद कुछ अधिकारियों ने फोन करके बताया कि यह बस हमारे लिए नहीं है। हमने हर अफसर के चक्कर लगाए। हम गरीब लोग हैं, वे हमें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर भेजते रहे।”
राम ने बताया कि इसके बाद पैदल कूच करने के अलावा चारा क्या था। किराए की जगह में रहते थे, उससे क्या हो जाता। उसने कहा, “हमारे पास पैसे खत्म हो रहे थे। खाना था नहीं, पानी तक नहीं था। शुक्र है कि हमसे रिहाइश का किराया नहीं मांगा गया। हम कर ही क्या सकते थे? अपने घर पहुंचकर कम से कम हम भूख से तो नहीं मरेंगे।” उसने बताया कि वह दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करता था। राम का कहना है कि, ”घर पहुंचकर भी मैं यही काम करूंगा। किसी के खेत में काम मिलेगा। मैंने कभी सोचा नहीं था कि हमें ऐसे दिन देखने पड़ेंगे।”
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इन मजदूरों ने हर हेल्पलाइन नंबर पर फोन किया, लेकिन सभी अधिकारियों ने पल्ला झाड़ लिया। राम ने बताया कि, “एसडीएम कहते हैं कि बस का इंतजाम करना उनके हाथ में नहीं है। डीएम के दफ्तर फोन किया तो कहा कि देखते हैं क्या हो सकता है। लखनऊ की हेल्पलाइन पर फोन किया लेकिन वहां तो किसी ने फोन का जवाब तक नहीं दिया।”
इन मजदूरों में से ज्यादातर दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। राम ने बताया कि, “मैं चांदनी चौक में एक कंस्ट्र्क्शन साइट पर काम कर रहा था, मुझे 400 रुपए रोज मिलते थे। जब लॉकडाउन शुरु हुआ तो मेरे पास 5000 रुपए भी नहीं थे। बाकी पैसे मैं हर भेज देता था। अब मेरे पास सिर्फ 200 रुपए हैं, इन्हीं के सहारे मुझे घर पहुंचना है। हमने पानी साथ लिया है, कुछ खाना है। देखते हैं रास्ते में क्या होता है। हो सकता है कि रास्ते में कोई बस मिल जाए।” राम जिस घर में रहता था वहां 19 और मजदूर रहते थे।
राम अकेला नहीं है। उसके साथ 40 और लोग हैं। इनमें कुछ बच्चे भी थे, लेकिन वे पीछे छूट गए हैं। इस जत्थे में शामिल महेश ने बताया कि उम्मीद है वे घर पहुंच जाएंगे।
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गौतम और उमेश की किस्मत शायद तेज थी। वे मंगलवार को प्रधानमंत्री का भाषण होने से पहले ही पैदल निकले थे, और उन्हें बलिया जाने के लिए बस मिल गई। गौतन ने बताया, “हम लखनऊ पहुंच गए। हमारे पास पैसे नहीं थे। जब लॉकडाउन शुरु हुआ तो हम तीनों वक्त खाना खा पा रहे थे, क्योंकि हमारे पास पैसे थे, सरकार कोई राशन या खाना नहीं दे रही थी, अगर हमें वह सब मिल रहा होता तो क्या हम ऐसा करते। कम से हम घर पर भूख से तो नहीं मरेंगे।” गौतम ने बताया कि गांव में उसकी दो बीघा जमीन है, जिस पर खेती कर वह खाने लायक तो कुछ उगा ही लेगा।
35 साल के गौतम का कहना है कि अगर लॉकडाउन शुरु होते ही हम निकल गए होते तो कम से कम कुछ पैसे तो हाथ में होता। लेकिन हमें पुलिस का डर था, हम पिटना नहीं चाहते थे। हमने देखा कि बहुत से लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। हम पीएम को भी सुनना चाहते थे कि आखिर वह क्या बोलेंगे। गौतम के 4 बच्चे हैं जिनमें से 2 स्कूल जाते हैं। गौतम ने कहा, “अब पीएम या सीएम कुछ भी बोलें, मैं कुछ नहीं सुना चाहता। पुलिस उनकी है, सिस्टम उनका है। आपने देखा है कि जो कोई भी बोलता है तो क्या होता है। हम कोई परेशानी नहीं चाहते। हम गरीब लोग हैं। हमें लगा था कि पीएम हमारे बारे में किसानों के बारे में कुछ कहेंगे, लेकिन उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं, हम जैसों के बारे में कौन सोचता है?”
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गौतम के दोस्त उमेश के पास भी बलिया में कुछ जमीन है। उसने कहा, “मैं अब वापस नहीं आऊंगा, गांव में कुछ इज्जत तो है, भले ही हम भूख से मर जाएं लेकिन कम से कम परिवार केसाथ तो होंगे। कम से कम किसी अनजान जगह पर तो नहीं मरूंगा जहां कोई किसी को नहीं जानता। इन 50 दिनों में जो गुजरी है, वह बेहद डरावना है। मीडिया भी हमें नहीं दिखाती। हमारी परवाह करता ही कौन है।”
शाम 7 बजे तक राम करीब 15 किलोमीटर चल चुका था और गाजियाबाद में नूरनगर तक पहुंच गया था। उसने बताया, “हमें पता चला कि एक पार्क में कुछ लोग खाना दे रहे हैं तो हम वहां गए। हम खाने का इंतजार कर रहे थे तभी पचा चला कि हमारे लिए किसी ट्रक का इंतजाम किया जा रहा है। हम क्या जानवर है? आप अंदाज लगा सकते हैं कि 1000 किलोमीटर का सफर ट्रक में करना कैसा होगा। अगर आज रात में हमें बस नहीं मिली तो हम कल सुबह फिर पैदल निकल पड़ेंगे।”
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