राजनीतिक रूप से देश के सबसे सूबे उत्तर प्रदेश में क्या मायावती और दलित राजनीति का अंत हो गया है? इसकी आहट तो हालांकि चुनावी नतीजे आने से पहले ही मिल गई थी। इस चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना अगर कोई है, तो वह यह कि बीएसपी सुप्रीमो मायावती राजनीतिक तौर पर अप्रासांगिक हो गई हैं और दलित राजनीति भी खत्म होने के कगार पर पहुंच गई है।
आखिर ऐसा क्यों?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए मायावती के राजनीतिक अतीत में जाना होगा कि कैसे वह एक सरकारी नौकरी की चाह रखने वाली आम लड़की से देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बनीं और किस तरह बीएसपी बहुजन से सर्वजन की पार्टी बनने की कोशिश करती दिखी।
वैसे एक पंक्ति में जवाब लिखें तो कहना होगा कि दलितों का बड़े पैमाने पर हिंदूकरण इसका कारण है क्योंकि इसके लिए आरएसएस दशकों से काम कर रहा था और वहीं बीएसपी और मायावती के अंत की शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है।
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विश्लेषकों का मानना है कि मुख्य रूप से जाटवों के समर्थन से तैयार हुआ मायावती का सामाजिक तानाबाना उत्तर प्रदेश में दक्षिणपंथ की तरफ मुड़ चुका है। नतीजतन देश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनने वाली 66 साल की मायावती इस चुनाव में अपनी सियासत के निचले पायदान पर पहुंच गईं।
देर शाम के रुझानों तक मायावती की बीएसपी 403 सीटों वाली विधानसभा में सिर्फ एक सीट पर ही बढ़त बनाए हुए थी और उसका वोट शेयर 2017 के 22.33 से घटकर 12.84 फीसदी के पास खिसक चुका है।
याद दिला दें कि 2012 के चुनाव में मायावती की बीएसपी को 26 फीसदी और यहां तक कि 2017 में 22.22 फीसदी वोट मिले थे और जब बीजेपी ने एक तरह से पूरे यूपी में विजय पताका लहराई थी तब भी मायावती को 19 सीटें हासिल हुई थीं।
कांशीराम द्वारा बीएसपी की स्थापना के बाद 1993 में बीएसपी को 11.12 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन इन चुनावों में जो वोट शेयर मायावती के हिस्से आया है वह पार्टी के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है।
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दलितों के बड़े पैमाने पर हिंदूकरण के अलावा बीएसी में संगठन की कमी, पार्टी का अत्यधिक केंद्रीकृत ढांचा, आम लोगों से दूर रहने वाला नेतृत्व आदि कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें बीएसपी की हार का कारण माना जा सकता है।
संभवत: यही कारण थे कि चुनावों की घोषणा से काफी पहले ही लोगों ने बीएसपी को बीजेपी की बी म कहना शुरु कर दिया था, हालांकि मायावती यदा-कदा इससे इनकार करती रहीं। ध्यान रहे कि बीएसपी में मायावती के अलावा दूसरा कोई भी पहचाना जाने वाला चेहरा नहीं है, फिर भभी मायावती ने यूपी जैसे राज्य के चुनाव में सिर्फ 18 रैलियां कीं। और इसीलिए वे वोटरों के जहनों से गायब हो गईं।
आश्चर्य की बात है कि वोटों की गिनती से एक दिन पहले मायावती ने पने भाई आनंद कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष और भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोआर्डिनेटर बनाए जाने की घोषणा की।
इसके अलावा एक तरह से पार्टी की कमान और प्रचार का जिम्मा मायावती के नजदीकी और पार्टी के पुराने नेता सतीश चंद्र मिश्रा के हाथों में था। वैसे अकेले मिश्रा ही हैं जो अब मायावती के साथ जुड़े हुए हैं। इससे भी वोटरों के बीच एक संकेत गया कि बीएसपी पर सतीश मिश्रा का कब्जा हो गया है। पार्टी के कुछ नामी लोगों ने साथ छोड़कर समाजवादी पार्टी या बीजेपी का हाथ काफी पहले ही थाम लिया था।
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बीएसपी पर नजर रखने वालों का कहना है कि मायावती दलित समुदाय की अपेक्षाओं को समझने और उन्हें पूरा करने में बुरी तरह नाकाम साबित हुईं। एक विश्लेषक का कहना है कि, “भीम आर्मी के उद्भव के समय ही मायावती को चौकस हो जाना चाहिए था, लेकिन वह खामोश रहीं। चंद्रशेखर रावण दलितो के दम पर नेता बने और दलित युवा उन्हें उस आदर्श के तौर पर देखने लगे, जो मायावती बनने में नाकाम रहीं। चूंकि दलित युवा के सामने कोई विकल्प ही नहीं था, ऐसे में हो सकता है वे बीजेपी की तरफ शिफ्ट हो गए हों।”
शायद इसी टिप्पणी से लोगों के बीच बीजेपी को लेकर जबरदस्त असंतोष के बावजूद बीएसपी का प्रसंगहीन जाना समझा जा सकता है।
पार्टी के सामने आए अस्तित्व के इस संकट को मायावती कैसे पार करेंगी, इसके लिए लगता अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा।
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