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उत्तर प्रदेश: सपा की चिंता दूर हुई, बीजेपी की बढ़ी, और परिवारवाद की तरफ मायावती का पहला कदम

यूपी में कई राजनीतिक सरगर्मियां सुर्खियों में हैं। आरएलडी की बीजेपी से नजदीकियों के कयासों पर विराम लगा तो अखिलेश ने चैन की सांस ली, लेकिन बीजेपी परेशान है। उधर मायावती ने दिसंबर को ही चुनकर अपने भतीजे को वारिस घोषित किया है। पढ़िए इस सप्ताह की यूपी डायरी

फाइल फोटो
फाइल फोटो 

खत्म हुआ सपा का पसोपेश

2022 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही लगती अटकलों और खबरों के बीच यूपी में अगर सबसे ज्यादा झटके किसी दल को लगे तो वह समाजवादी पार्टी थी। राज्य में सबसे प्रमुख विपक्षी दल होने के कारण यह स्वाभाविक था। फिलहाल सपा उन झटकों, उनसे उपजी शंकाओं से उबरती दिख रही है।

सपा को सबसे बड़ा झटका उन सुर्खियों से लगा था कि साथी दल आरएलडी (राष्ट्रीय लोकदल) की बीजेपी से नजदीकियां बढ़ रही हैं और वह उनके साथ जा सकता है! चर्चाएं यह भी चलीं कि जयंत चौधरी को इसके लिए बीजेपी शीर्ष नेतृत्व से आकर्षक ऑफर मिल चुका है! यह सब सपा मुखिया अखिलेश यादव को परेशान करने वाला था।

हालांकि हाल में संपन्न पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से कांग्रेस या कह लें विपक्ष को भले झटका लगा हो, सपा के लिए कुछ आश्वस्त करने वाला है। चुनाव पूर्व जिस जयंत चौधरी के बारे में बीजेपी के करीब जाने के कयास थे, राजस्थान चुनावों में मीडिया उन्हें कांग्रेस के साथ जाते देखने लगा। कांग्रेस ने भी आरएलडी के लिए भरतपुर सीट छोड़कर कुछ संदेश दिए। कांग्रेस से उनकी यही नजदीकी अखिलेश की चिंता बढ़ाने वाली थी।

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हालांकि बीते हफ्ते चर्चाएं तब थम गईं जब लखनऊ में राष्ट्रीय लोकदल की राज्य कार्यकारिणी में जयंत ने साफ शब्दों में ‘समाजवादी पार्टी के साथ ही बने रहने’ की घोषणा की। उस बात को समर्थन देकर दोस्ती और पुख्ता कर दी, जिसमें 2024 के संदर्भ में अखिलेश ने कहा था: “जो जहां मजबूत होगा, वही फैसला करेगा।” जयंत के रुख से साफ हो गया कि यूपी में यह जोड़ी अभी बनी रहने वाली है और यह सब स्वाभाविक रूप से अखिलेश को आश्वस्त करने वाला था। जाहिर है, जोड़ी बनी रही, ‘इंडिया’ के बाकी घटक भी इसी तरह साथ रहे तो यूपी की लड़ाई विपक्ष के लिए बहुत आसान भले न हो, बीजेपी के लिए थोड़ी मुश्किल तो जरूर खड़ी करेगी। 

बीजेपी भी जानती है कि पश्चिम यूपी के किसान और जाट- दोनों ही उससे नाराज हैं और इसका लाभ सीधे “चौधरी के लड़के” (जयंत चौधरी) को मिलने जा रहा है। 2024 में बीजेपी की यही सबसे बड़ी कमजोरी होगी कि पश्चिम यूपी की सबसे मजबूत ताकत उसके साथ नहीं होगी।

इस बात से सहमत पत्रकार और पूर्वांचल पर नजर रखने वाले रंजीव मानते हैं कि 2022 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जिस तरह अम्बेडकर नगर, आजमगढ़, गाजीपुर में झटके लगे और बाद में ‘घोसी’ ने जिस तरह उसकी महत्वाकांक्षाएं मटियामेट कीं, उस स्थिति में पूर्वांचल में भी बीजेपी की चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं। यह भी कि अपने ‘दोस्त’ या एनडीए के ज्यादातर साथी पूर्वांचल से ही होने के कारण, इन्हें संभालने की चुनौती तो बीजेपी के सामने होगी ही, पूर्वांचल में सहयोगी दलों के साथ-साथ ओबीसी फ़ैक्टर को साधना उससे भी बड़ी चुनौती होगी।

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बीएसपी प्रमुख मायावती और उनका भतीजा आकाश, जिसे उन्होंने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है

मायावती को भी दिसंबर ही क्यों भाया!

 बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने सारे कयास खत्म कर दिए। भतीजे आकाश आनंद को औपचारिक रूप से अपना उतराधिकारी घोषित कर दिया। उन्होंने कहा कि “मेरे न रहने पर आकाश पार्टी की कमान संभालेंगे।” उन्होंने साफ किया कि यूपी-उत्तराखंड वह खुद संभालेंगी, बाकी राज्यों में संगठन की मजबूती आकाश देखेंगे। यानी उन्होंने बताया कि वह सक्रिय हैं और अपनी असल जमीन उत्तर प्रदेश को अपने ही पास रखेंगी। आकाश मायावती के भाई आनंद कुमार के बेटे हैं जो नोएडा में अपनी अकूत संपत्तियों के कारण खासे चर्चा में रहे।

क्या महज संयोग है कि मायावती ने उत्तराधिकारी घोषित करने को वही समय चुना जब ठीक 22 साल पहले तत्कालीन बीएसपी प्रमुख कांशीराम ने मायावती को उत्तराधिकार सौंपा था। 15 दिसंबर, 2001 को लखनऊ की जनसभा में कांशीराम ने यूपी में वक्त न दे पाने का हवाला देते हुए कहा था: ‘खुश हूं कि मेरी इस गैरहाजिरी को कुमारी मायावती ने मुझे महसूस नहीं होने दिया’ और यह कहते हुए मायावती को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह वही दौर था जब पार्टी संकट में थी और यूपी में विधानसभा चुनाव करीब थे।

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अब जब ठीक 22 साल बाद मायावती उसी अंदाज में भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकार सौंपती हैं, तो मायने निकाले ही जाएंगे। संयोग तो यह भी नहीं कि तब 2002 के विधानसभा चुनाव नजदीक थे, अब “2024” सामने है। तब कांशीराम को सुयोग्य उत्तराधिकारी चाहिए था, अब मायावती को जरूरत महसूस हुई है। वैसे, संयोग यह भी है कि भारतीय राजनीति में मायावती दूसरी महिला हैं जिन्होंने अपना राजनीतिक उत्तराधिकार भतीजे को सौंपा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने ऐलान भले न किया हो, संदेश तो वहां भी साफ है जिसे अभिषेक बनर्जी व्यवहार में उतार ही रहे हैं। चर्चा है कि साल खत्म होने से पहले दिसंबर में ही मायावती कुछ और चौंकाऊ फैसले ले सकती हैं।

कांशीराम ने जब उन्हें उत्तराधिकारी बनाया था, मायावती ने कहा था कि जब वक्त आएगा, उनका उत्तराधिकारी उनसे उमर में काफी छोटा और जाटव समाज से लेकिन परिवार का नहीं होगा। मायावती जिस तरह ‘परिवारवाद’, खासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर हमलावर रहीं है, अब उन्हें इससे खुद भी दो-चार होना होगा। भीम आर्मी पार्टी चीफ चंद्रशेखर रावण ने तो उन्हें उनका बयान याद भी दिलाया है। हालांकि अखिलेश यादव ने सधे हुए बयान में ‘नए नेतृत्व के बीजेपी से दूरी बनाए रखने’ और ‘आकाश के खुलकर अपनी पारी खेलने’ की उम्मीद भी जताई। 

राजनीतिक विश्लेषक उत्कर्ष सिन्हा आकाश की यह जिम्मेदारी एक ‘पॉलिटिकल इंटर्न’ के रूप में देखते हैं: “वह परिवार से आते हैं, जाटव हैं और मायावती के भरोसेमंद हैं। बार-बार बदले वफादारों के बाद वह मायावती का पसंदीदा चेहरा हैं। युवा हैं, पढ़े लिखे हैं। मायावती को एक भरोसेमंद की तलाश थी जो संभवतः अब पूरी हुई है लेकिन इससे यह मान लेना कि मायावती ‘संन्यास’ जैसा कुछ सोच रही हैं, भूल होगी”। उत्कर्ष यह भी कहते हैं कि जब हर दल और ‘दलपति’ को परिवार के अंदर ही प्रतिभा दिख रही हो, भारतीय राजनीति में ‘परिवारवाद’ जैसी बात बेमानी हो चुकी है।

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अभी 17 दिसंबर को ही पीएम मोदी ने वाराणसी में काशी तमिल संगमम् की शुरुआत की

बेचैनी है कि बढ़ती जाती है!

काशी वाले ही नहीं, बाकी और लोग भी पूछ रहे कि ‘काशी-तमिल संगमम’ क्या दक्षिण के द्वार पर बीजेपी की दस्तक न सुने जाने की परिणति है। पहले कर्नाटक और अब तेलंगाना में सूपड़ा साफ होने के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने जिस तरह बनारस में आयोजित इस काशी-तमिल संगमम को प्रचारित-प्रसारित किया, सवाल उठना ही था।

बीएचयू के एक प्रोफेसर ने सवाल उठाया कि ‘दक्षिण से मिले झटके की भरपाई के लिए तमिलों के मुद्दे को इस तरह उत्तर से दक्षिण तक जोड़कर लाभ उठाने की जैसी कोशिश हो रही, उसके नतीजों पर संदेह है।’

अनायास तो नहीं था कि 17 दिसंबर को बनारस के नमो घाट पर नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ काशी-कन्याकुमारी साप्ताहिक ट्रेन (काशी-तमिल संगमम एक्सप्रेस) को हरी झंडी दिखाई बल्कि तमिलनाडु से काशी आने की महिमा का बखान करते हुए इसे ‘मदुरई मीनाक्षी’ के यहां से ‘काशी विशालाक्षी’ के यहां आने, यानी ‘महादेव के दो घरों’ के बीच कड़ियां जुड़ने के तौर पर रेखांकित किया। बताते चलें कि काशी-तमिल संगमन की शुरुआत पिछले साल ही हुई थी। 

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मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी (फाइल फोटो)

‘मार्ग दर्शक’ रहेंगे, दर्शक नहीं

तो उन्होंने ‘अपनी’ वह ‘विरासत’ भी तज दी जिसकी मार्केटिंग करते नहीं अघाते। राम की अयोध्या में राम के ‘हनुमानों’ को ही आने से रोक दिया। ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ का उद्घोष करने वाले, मंदिर आंदोलन के नींव की ईंट रहे लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ यही तो हुआ। अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह से ज्यादा चर्चा अब इस बात की है कि आखिर मंदिर आंदोलन के इन असल पुरोधाओं को 22 जनवरी के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में आने से रोकने की (भले ही उम्र का हवाला देकर) क्या जरूरत थी!

अलग बात है कि ट्रस्ट के मुखिया द्वारा यह सब घोषित रूप से बताने के बाद जब हल्ला मचा तो सब बैकफुट पर दिखे और आनन-फानन घर जाकर इन बुजुर्गों को न्योता सौंपा गया। बीजेपी के अंदरखाने की हलचलों पर मौके-बेमौके चुटकी लेने वाले एक भाजपाई नेता बोले- ‘बड़े बुजुर्ग अशक्त हों, तब भी कोशिश यही होती है कि उन्हें कोई भी जतन कर लाया जाए। यहां तो उन्हीं को और उसी आयोजन में आने से रोक दिया गया जो उनके ही सपने की परिणति है। कोई बात नहीं, ‘राम जी सब देख रहे हैं!’ 

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