हालात

अत्यंत जरूरी हो गई है एनआईए और यूएपीए की समीक्षा, बिना ठोस तर्क के ही राज्यों से ले ली जाती है जांच

केंद्र सरकार अपने असीमित अधिकार का उपयोग करते हुए जांच राज्य पुलिस से ले तो लेती है लेकिन मुकदमे में दोष सिद्ध करने का आंकड़ा निराशाजनक ही है।

सांकेतिक फोटो
सांकेतिक फोटो 

कंचन नानवारे का जनवरी, 2021 में निधन हो गया। जान जाने की वजह बना खून का थक्का। इसके बावजूद कि उन्होंने छह साल चार महीने जेल में बिता लिए थे, मेडिकल आधार पर उन्हें जमानत नहीं दी गई थी। महाराष्ट्र की इस युवा छात्र कार्यकर्ता को 2014 में गिरफ्तार किया गया था। उन पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सदस्य होने का आरोप लगाया गया था और उनके खिलाफ यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। मुकदमे का क्या हुआ, सुनवाई शुरू हुई भी या नहीं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं। न्यायिक हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई। पीयूसीएल ने 2019 और 2022 के बीच के यूएपीए मामलों पर अध्ययन किया है और इसमें कंचन मामले का भी जिक्र है। पीयूसीएल ने एनआईए की वेबसाइट, एनसीआरबी के आंकड़ों और सरकार की ओर से संसद में दिए गए बयान के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है।

रिपोर्ट से पता चलता है कि प्रवर्तन निदेशालय की तरह एनआईए की दोषसिद्धि दर भी निहायत खराब रही है। 2015 और 2020 के बीच एनआईए की दोषसिद्धि दर महज 2.8 फीसद रही जिसका सीधा मतलब है कि गिरफ्तार किए गए 97.2 प्रतिशत मामलों में लोग या तो निर्दोष थे या एनआईए उनके खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने के जरूरी सबूत नहीं जुटा पाई।

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कश्मीर के बशीर अहमद का मामला अपने आप में मिसाल है। बशीर कैंसर के बाद की देखभाल पर लगाए गए चार दिनों के शिविर में भाग लेने के लिए 2003 में गुजरात गया था। उसे हिजबुल मुजाहिदीन के साथ रिश्तों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और 11 साल जेल में बिताने के बाद वह बरी हुआ। वडोदरा की एनआईए अदालत ने कहा: ‘अभियोजन ने भावनात्मक तर्कों को आधार बनाया और किसी इंसान को महज अराजकता फैलाने के डर की वजह से दोषी करार नहीं दिया जा सकता।’

ऐसे ही 2017 में यूएपीए के तहत 121 आदिवासियों को सीआरपीएफ के गश्ती दल पर घात लगाकर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें इस साल जुलाई में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में एनआईए अदालत ने पांच साल बाद यह कहते हुए बरी कर दिया कि ‘कोई आरोप साबित नहीं किया जा सका’। वर्ष 2015 से 2020 के बीच एनआईए ने यूएपीए के तहत 8,371 लोगों को गिरफ्तार किया जिनमें से 5,924 असम, झारखंड और तमिलनाडु से थे। पीयूसीएल ने आगाह किया है कि यह आंकड़ा हकीकत में कहीं ज्यादा हो सकता है क्योंकि इस बारे में राज्यवार और सालवार वास्तविक आंकड़ा नहीं कि कितने लोगों को गिरफ्तार किया गया, कब अंतिम रिपोर्ट सौंपी गई,  कितने लोगों को जमानत पर रिहा किया गया और कितने लोगों को बरी किया गया।

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अध्ययन में इस बात का जिक्र किया गया है कि एनसीआरबी 'मुख्य अपराध' के तौर पर किन अपराधों को रखता है, इससे जुड़ी प्रक्रिया में गड़बड़ी है। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति पर बलात्कार और हत्या- दोनों का आरोप लगाया जाता है, तो एनसीआरबी मामले को 'हत्या' के रूप में रिकॉर्ड करता है क्योंकि इसमें ज्यादा सजा होती है। ऐसे ही जब किसी इंसान पर अन्य आरोपों के साथ यूएपीए के तहत भी आरोप लगाया जाता है, तो एनसीआरबी डेटा यह स्पष्ट नहीं करता कि मुख्य अपराध क्या है।

इतनी अस्पष्टता के बावजूद, अध्ययन दो और परेशान करने वाली प्रवृत्तियों की ओर इशारा करता है। यूएपीए के तहत जो मामले दर्ज किए गए, उनमें बड़ी संख्या ऐसे मामलों की थी जो यूएपीए अधिनियम की धारा 18 के तहत दर्ज हुए थे। यह धारा 'साजिश' से जुड़ी है और ‘साजिश’ में तो हिंसक गतिविधि को अंजाम देने की 'रजामंदी' शामिल होती ही है। अध्ययन में कहा गया है कि इस धारा की मनमानी व्याख्या ने एनआईए को इसके तहत राजनीतिक विरोधियों और सरकार की नीतियों का सार्वजनिक विरोध करने वालों को गिरफ्तार करने में सक्षम बनाया। दिलचस्प बात यह है कि ‘साजिश’ के तहत दर्ज 64 फीसदी मामलों में किसी घटना का जिक्र नहीं किया गया। जबकि अन्य मामलों में घटना का जिक्र होता है, जैसे- बम विस्फोट, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना वगैरह।

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यूएपीए का दूसरा 'परेशान करने वाला' हिस्सा वह बेलगाम ताकत है जो यह केन्द्र सरकार को देता है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय को राज्य पुलिस द्वारा जांच किए जा रहे किसी भी मामले को एनआईए को सौंपने का अधिकार है। इसी के तहत जब महाराष्ट्र में महा आघाड़ी सरकार सत्ता में आई तो केन्द्र सरकार ने महाराष्ट्र पुलिस द्वारा जांच किए जा रहे भीमा-कोरेगांव मामले को अचानक एनआईए को सौंप दिया। किसी भी मामले को एनआईए को सौंपने से पहले राज्य सरकार से राय-मशविरा करनी है या नहीं, इस पर कोई स्पष्टता नहीं। इससे भी अहम पहलू यह है कि एनआईए ने यूएपीए के तहत जितने भी मामले हाथ में लिए उनमें से 88 फीसद के लिए आदेश केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने दिया था। केवल 12 फीसदी मामले एनआईए ने खुद लिए।

पीयूसीएल का अध्ययन बताता है कि यूएपीए को 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद और सख्त बना दिया गया और तथाकथित आतंकी मामलों में जमानत हासिल करना लगभग असंभव हो गया है। यूएपीए एनआईए को भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तमाम प्रावधानों से भी छूट देता है। एनआईए की व्याख्या के आधार पर आरोपियों को दोषी माना जाता है। लेकिन एजेंसी 'बचाव' पक्ष के साथ आरोपों, सबूतों और गवाहों को साझा करने के लिए बाध्य नहीं।

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आम तौर पर यह माना जाता है कि यूएपीए 'आतंकवादियों' के खिलाफ है जबकि मानव तस्करी, साइबर अपराध, नशीले पदार्थों के व्यापार, जबरन वसूली रैकेट, अनुबंध हत्याओं और भूमि हथियाने समेत तमाम अपराध इसके दायरे में आते हैं। अध्ययन में एनआईए पर आरोप लगाया गया है कि वह आरोपी को 'प्ली बार्गेनिंग' के लिए राजी करके अपनी सजा दर को बढ़ा रहा है। 'प्ली बार्गेनिंग' की भारतीय कानून में कोई जगह नहीं लेकिन आरोपी को आश्वस्त किया जाता है कि वह अपना अपराध कबूल ले और इसके बदले उसे कम-से-कम सजा दिलाई जाएगी। अध्ययन के मुताबिक, तमाम अपराधी अपने लिए कोई उम्मीद न देखकर इसके लिए राजी भी हो जाते हैं।

2009 से 2020 के बीच यूएपीए के तहत जितने भी मामले दर्ज किए गए, उनमें से 80 फीसद 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद के थे।

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