ओडिशा के संबलपुर जिले के तालाबीरा गांव और इसके आसपास के क्षेत्रों के लोग इन दिनों गुस्से में हैं। ये लोग कोयला खनन के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों के काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। उनके अनुसार, वन विभाग के लोग अब तक करीब 50 हजार पेड़ काट चुके हैं और इनमें से अधिकांश साल के पेड़ हैं जिनको न तो प्रत्यारोपित किया जा सकता है और न ही सामाजिक वन्यीकरण के जरिये उगाया जा सकता है। तालाबीरा के हेमंत राउत के अनुसार, साल के पेड़ अपने आप उगते हैं। वे प्रकृति की देन हैं जिन्हें कृत्रिम उपायों से पैदा नहीं किया जा सकता।
गांव वालों को सबसे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि वे उस ग्रामीण जंगल के वैसे पेड़ों को भी नहीं बचा पा रहे हैं जिन्हें वे लंबे समय से पालते-पोसते आए हैं। राउत कहते हैंः “इस जंगल की हम 1997 से सुरक्षा करते आ रहे हैं। इसकी रक्षा के लिए हमने बाकायदा एक पहरेदार तैनात किया हुआ है, जिसे गांव के सारे लोग मिल-जुलकर मेहनताने के तौर पर चावल देते हैं। हमने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ये जंगल हमसे छीन लिया जाएगा।”
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तालाबीरा में पेड़ों की ये कटाई 3200 मेगावाट के प्रस्तावित तालाबीरा थर्मल पावर प्लांट और 1000 मेगावाट के तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले में बनने जा रहे पावर प्लांट के लिए कोयला उत्खनन करने के लिए की जा रही है। तालाबीरा 2 और 3 कोल ब्लॉक्स में अनुमानित तौर पर 554 मिलियन टन कोयला है और इन प्रोजेक्ट्स के लिए इन कोल ब्लॉक्स से सालाना 20 मिलियन टन कोयला निकाला जाएगा। उत्खनन का यह काम अडानी इंटरप्राइजेज को सौंपा गया है। लेकिन इस प्रोजेक्ट की वजह से इस क्षेत्र की हरियाली का जो सर्वनाश हो रहा है, उसे सह पाना गांव वालों के लिए कठिन हो रहा है।
जानकर सूत्रों के मुताबिक, इस परियोजना के लिए सम्बलपुर और इससे सटे हुए झारसुगुड़ा जिले में कुल 1,32,930 पेड़ काटे जाने हैं, लेकिन प्रारंभिक तौर पर इसका प्रभाव सबसे ज्यादा तालाबीरा पर पड़ा है, क्योंकि यहां कटाई का काम 6 दिसंबर से पूरे जोर-शोर से चल रहा है। तालाबीरा जंगल समिति के अध्यक्ष भगत राम भोई के अनुसार, जंगल की इस सफाई के पहले गांव वालों की सहमति नहीं ली गई। उनकी इस बात से हेमंत राउत भी सहमत हैं। उनका आरोप है कि वन विभाग के लोगों का स्थानीय ग्रामसभा की सहमति से यह काम किए जाने का दावा झूठा है। राउत के अनुसार, तालाबीरा की ग्रामसभा ने इस बाबत कभी अपनी सहमति नहीं दी। लोग अपने पाले हुए जंगल के काटे जाने का समर्थन कभी कर ही नहीं सकते।
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राउत जैसै लोगों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का है कि स्थानीय लोगों ने जंगल अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत कभी इस जंगल पर अपना अधिकार पाने की कोशिश नहीं की। वह कहते हैं, “हमने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं। हम यह मानकर चलते रहे कि यह जंगल हमारा है और इसे हमसे कोई भी छीन नहीं सकता।” लेकिन संबलपुर के प्रभागीय वन अधिकारी संजीत कुमार गांव वालों के इन आरोपों को गलत बताते हैं। उनका कहना है कि इस परियोजना के लिए तालाबीरा क्षेत्र में अभी 15,000 के आसपास पेड़ ही काटे जाने हैं और इनमें से करीब दस हजार काटे जा चुके हैं।
संजीत कुमार का दावा है कि पेड़ों की इस कटाई के लिए हर तरह की अनुमति ली गई है। वह कहते हैं, गांव वाले जंगल अधिकार अधिनियम के अंतर्गत इस जंगल पर कोई दावा कर ही नहीं सकते क्योंकि वे जंगल में नहीं रहते थे। दूसरी ओर, जंगल अधिकारों के लिए लड़ने वाले शशिकांत मिश्रा का कहना है की ओडिशा के कई क्षेत्रों में जंगल में रहने वाले लोगों ने जंगल पर अपना दावा पेश नहीं किया क्योंकि उन्हें इस कानून के विषय में ज्यादा कुछ मालूम ही नहीं था।
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शशिकांत मिश्रा के अनुसार, “इस कानून के लागू होने के पहले सरकारी कर्मचारियों को जंगल में निवास करने वाले अधिवासियों को इसके विषय में ठीक से बताना था, उनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत करनी थी। लेकिन सरकारी मुलाजिमों को ऐसी चेतना फैलाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस बाबत जो कुछ भी काम हुआ, वह गैर सरकारी संस्थाओं ने किया। फलतः अनेक क्षेत्रों में आदिवासी इस कानून के विषय में ज्यादा कुछ जान ही नहीं पाए। अब देखना है कि गांव वाले यह लड़ाई कितनी दूर तक लड़ते हैं और वे अपने बचे हुए जंगल की रक्षा कर पाते हैं या नहीं।”
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