अमेरिकी संसद का चुनाव हर दो साल में होता है, अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यकाल 4 साल का होता है, यूके में बीते तीन साल में दो बार चुनाव हो चुका है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को लगता है कि किसी देश में बार-बार चुनाव होने से नीतिगत लकवा मार जाता है और इससे विकास की गति रुक जाती है। उनका मानना है कि इस सब पर पैसा भी बहुत खर्च होता है। इस सबका हल उनके पास यही है कि पूरे देश में पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव एक साथ कराए जाएं, वह भी हर 5 साल में एक बार। उनके विचार में इससे सरकार चलाने में आने वाली सारी अड़चनें खत्म हो जाएंगी और सरकार स्वतंत्र होकर लोगों की सेवा करेगी।
प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की नजर में शायद यही कारण है कि ‘बीते 70 वर्षों में देश कुछ भी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया।’ वन नेशन, वन इलेक्शन की हिमायत करने वाले बीते चार साल से यही राग गा रहे हैं, लेकिन इधर कुछ समय से यह शोर ज्यादा तेज हो गया है।
विधि आयोग ने पिछले दिनों देश के राजनीतिक दलों से इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया। सिर्फ फिल्म स्टार से राजनीतिज्ञ बने रजनीकांत और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही इसका समर्थन किया। संसद का मॉनसून सत्र शुरु होने से पहले कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ऐलान किया कि बस अब बहुत हो गया, वन नेशन वन इलेक्शन का समय आ ही गया है।
लेकिन, लोकसभा में कार्यवाही का जो बुलेटिन सामने आया उसमें ऐसा कुछ नहीं दिखा जिससे पता चले कि सरकार वन नेशन वन इलेक्शन के लिए संविधान संशोधन का कोई प्रस्ताव लेकर आने वाली है। विशेषज्ञों का कहना है कि संविधान संशोधन के लिए विधेयक का रास्ता नहीं अपनाया जा सकता है। ऐसे में मॉनसून सत्र इस सरकार का आखिरी सत्र होगा या नहीं इस पर अभी सस्पेंस बरकरार है।
आखिर यह खुसफुसाहट क्यों है कि मॉनसून सत्र इस सरकार का आखिरी संसद सत्र होगा, और इसके बाद सरकार चुनावों का ऐलान कर देगी। कहा जा रहा है कि सरकार शीत सत्र को रद्द करते हुए अगले साल मार्च-अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव के साथ नवंबर में कराने का ऐलान कर देगी।
सूत्रों के मुताबिक सरकार एक और विकल्प पर भी विचार कर रही है, और वह है कुछ ऐसे बीजेपी शासित राज्यों के चुनाव भी समय से पहले करा लिए जाएं, जहां विधानसभाओं का कार्यकाल 2019 में पूरा हो रहा है। इन राज्यों में बिहार, झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं। इन राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दलों की सरकार है, जबकि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है। अगर इन राज्यों के चुनाव भी लोकसभा और बाकी चार राज्यों के साथ सरकार कराने की कोशिश करती है, तो इसमें कोई संवैधानिक अड़चन नहीं होगी।
लेकिन, यहां बड़ा राजनैतिक सवाल यह है कि आखिर सरकार एकसाथ चुनाव क्यों कराना चाहती है? क्या उसे इससे कोई राजनीतिक फायदा हो सकता है? क्या एक साथ चुनाव कराने से सरकारी खजाने पर पड़ने वाले बोझ में वाकई कोई कमी आएगी?
सूत्रों का कहना है कि समय से पहले लोकसभा और कुछ राज्यों के चुनाव कराने में सरकार को फायदा ही फायदा नजर आ रहा है। सबसे बड़ा फायदा तो उसे यह नजर आ रहा है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में मौजूदा बीजेपी सरकारों के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर है। और अगर इन राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होते हैं, तो बीजेपी के प्रमुख चेहरे नरेंद्र मोदी ही छाए रहेंगे और मतदाता का ध्यान लोकसभा चुनाव के मुद्दों पर होगा। इसका फायदा यह होगा कि राज्यों की सत्ता विरोधी लहर को दबाने में मदद मिलेगी।
सूत्रों का कहना है कि इसके अलावा भी कुछ बिंदू हैं, जिनपर बीते काफी दिनों से पार्टी और सरकार में माथा-पच्ची हुई है। इनमें से कुछ प्रमुख बिंदू इस तरह हैं:
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इन बिंदुओं के आधार पर मोदी सरकार और बीजेपी को लगता है कि समय से पूर्व एक साथ चुनाव कराने में फायदा ही फायदा है। भले ही सभी चुनाव एक साथ कराने में सरकार को कामयाबी नहीं मिल रही है, लेकिन लोकसभा चुनाव के साथ 7-8 राज्यों के विधानसभा चुनाव और कुछ राज्यों में पंचायत चुनाव कराकर सरकार एक नजीर पेश करना चाहती है। अगर यह प्रयोग सफल रहता है तो विपक्षी दलों पर वन नेशन, वन इलेक्शन के विरोध का तर्क थोड़ा कमजोर होगा।
अगर मोदी सरकार जिद पर अड़ी रहती है तो इस सरकार का यह आखिरी मॉनसून सत्र तो है ही, संसद का भी आखिरी सत्र होगा।
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