इस साल कार्बन उत्सर्जन रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचा और वैश्विक स्तर पर जलवायु कार्रवाई कमतर साबित हुई। ऐसे में निराशा स्वाभाविक है. लेकिन जर्मन थिंक टैंक न्यू क्लाइमेट इंस्टिट्यूट के एक नए अध्ययन के मुताबिक, उम्मीद बनाए रखने की भी कई वजहें हैं।
इस अध्ययन में वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से जुड़े 2015 के पेरिस समझौते के तहत हुई तकनीकी और सामाजिक प्रगति का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन से तैयार रिपोर्ट उन वैश्विक रुझानों की ओर इशारा करती है, जो दिखाते हैं सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।
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अध्ययन से जुड़े लेखकों के मुताबिक, पेरिस समझौते के बाद से अब तक, जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों को लेकर दुनिया की समझ ने एक लंबा सफर तय किया है।
जलवायु परिवर्तन अब मुख्यधारा का मुद्दा बन गया है और आबादी के एक बड़े हिस्से में चर्चा का विषय भी। मीडिया कवरेज भी बढ़ी है. हालांकि जलवायु से जुड़ी गलत जानकारियां और फेक न्यूज के मामले भी बढ़ गए हैं।
बढ़ती जागरूकता की बदौलत जलवायु से जुड़े विरोध प्रदर्शन ज्यादा होने लगे हैं। फ्राइडेज फॉर फ्यूचर, एक्सटिंक्शन रेबेलियन, जस्ट स्टॉप ऑयल और लास्ट जेनरेशन जैसे आंदोलनों के जरिए युवा पीढ़ी, सरकारों से तत्काल कार्रवाई की वैश्विक मांगों की अगुवाई कर रही है।
इस मसले पर लोग अदालतों का भी रुख कर रहे हैं और अपनी मुहिम के साथ सड़कों पर भी उतर रहे हैं। सरकारों और कंपनियों के खिलाफ जलवायु से जुड़े मुकदमों की संख्या में आई वृद्धि को भी रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है।
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पर्यावरण और जलवायु को बचाने से जुड़े कानूनों को लागू करवाने के लिए, आंशिक सफलता के साथ अभियोक्ता अपना पूरा जोर लगा रहे हैं. जर्मनी में संघीय अदालत के 2021 में आए एक आदेश के बाद सरकार को 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की रफ्तार बढ़ाने के लिए एक कानून पास करना पड़ा।
मौसमी प्रचंडताओं और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध की जांच करने वाले मौसम विज्ञान में हुई प्रगति से भी कानूनी मामलों को बड़ा सहारा मिला है।
रिपोर्ट के लेखकों के मुताबिक, पेरिस समझौते से पहले जलवायु नीतियां विशेष सेक्टरों में उत्सर्जन घटाने पर ही केंद्रित थीं। लेकिन आज दुनिया के बहुत सारे देशों, क्षेत्रों और शहरों में समूची अर्थव्यवस्था में नेट-जीरो उत्सर्जन हासिल करना लक्ष्य हो गया है।
2021 के अंत तक, 90 फीसदी वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसी-न-किसी तरह का नेट-जीरो लक्ष्य शामिल था, जिसने पूर्ण कार्बनमुक्त अर्थव्यवस्था से जुड़ी वार्ताओं के लिए रास्ता बनाया।
रिपोर्ट के मुताबिक, "राजनीतिक तौर पर पहले ये स्वीकार्य नहीं था।" महत्वाकांक्षा में जैसी बढ़ोतरी हुई है, वो अभी वैश्विक उत्सर्जन कटौतियों में नजर नहीं आती, लेकिन लेखकों का कहना है कि दुनिया पहले की अपेक्षा बेहतर रास्ते पर है।
रिपोर्ट के मुताबिक, एक दशक पहले टिकाऊ निवेश, विशेष अवसरों तक ही सीमित प्रयास हुआ करता था और "अब वो वित्तीय दुनिया में एक स्थापित मॉडल बन गया है।"
कंपनियों के खिलाफ जलवायु से जुड़े मामले दायर करने की गंभीर चेतावनियां भी सामने आने लगी हैं। व्यापार जगत और निवेशकर्ता, अपनी संपत्ति पर जलवायु बदलाव की वजह से बढ़ते खतरे को पहचानने और बदलाव के लिए बन रहे सामाजिक दबाव पर तेजी से हरकत में आ रहे हैं।
लेखकों ने ये भी पाया कि आने वाले समय में जीवाश्म ईंधनों के उपयोग से बाहर हो जाने और उनसे जुड़े बुनियादी ढांचे के भी निष्क्रिय हो जाने की संभावना है। उनमें निवेश करने का मतलब जोखिम उठाना होगा। इसी आधार पर बैंक कोयला-आधारित नए ऊर्जा संयंत्रों को वित्तीय मदद देने में और ज्यादा हिचकिचाने लगे हैं।
कई कंपनियां आंशिक रूप से अब अपनी पहल पर या नए कानूनों के चलते अपने जलवायु जोखिम सार्वजनिक कर रही हैं। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी "स्टैंडर्ड एंड पुअर्स" की सूची में दर्ज सबसे बड़ी 500 अमेरिकी कंपनियों में से 70 फीसदी से ज्यादा कंपनियां अपने उत्सर्जन का विवरण भी सार्वजनिक करती हैं।
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लेखकों के मुताबिक, इन सबके बावजूद तेल और गैस आधारित बिजनस मॉडल बड़े आकर्षक बने हुए हैं और बाजार पर उनका वर्चस्व है. बिजनस मॉडल बदल तो रहे हैं, लेकिन बहुत धीमी गति के साथ. कॉर्पोरेट लॉबीबाजी अक्सर जलवायु कार्रवाई को बाधित कर रही है।
पिछले दशक में अक्षय ऊर्जा की कीमतें अनुमान से भी ज्यादा तेज गति से गिरीं। दुनिया के 90 फीसदी हिस्सों में ऊर्जा के ये स्रोत, नए जीवाश्म ईंधनों के मुकाबले सस्ते हैं और थोक में बिजली उत्पादन का सबसे सस्ता जरिया भी बन गए हैं।
सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा के संसाधनों ने वैश्विक ऊर्जा प्रणालियों के केंद्र में जगह बना ली है। लेखकों के मुताबिक "ये एक न्यू नॉर्मल है." जीवाश्म ईंधनो को हटाने में "अब अगर-मगर नहीं, कब की बात होने लगी है।"
इसी दौरान, अक्षय ऊर्जा की आपूर्ति भी तेजी से विकेंद्रीकृत हो रही है. बहुत सारे निजी घरों तक बिजली पहुंचाने की प्रक्रिया में सुधार हुआ है। अक्षय ऊर्जा में अब जीवाश्म ईंधनों की अपेक्षा पांच गुना ज्यादा निवेश होने लगा है।
हीट पंप और हाइड्रोजन ईंधन के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले इलेक्ट्रोलाइजरों की तैनाती में अभी भी कमियां है, लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक "बहुत सारे स्तरों पर अक्षय ऊर्जा की ओर महत्वपूर्ण और मुकम्मल बदलाव शुरू हो चुका है और इसे अब पलटा नहीं जा सकता।"
परिवहन और हीटिंग की व्यवस्था में बिजलीकरण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अध्ययन के मुताबिक, बिजली से चलने वाले हीट पंप, "डिकार्बनाइजेशन की मुख्य तकनीक" बन गए हैं। यूरोप में पिछले साल हीट पंपों की बिक्री में 38 फीसदी का उछाल देखा गया।
दुनिया भर में इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री भी उम्मीद से ज्यादा तेज गति से हुई। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक बिकने वाली 18 फीसदी नई कारें इलेक्ट्रिक होंगी। कुछ देशों में तो वे स्टैंडर्ड बन चुकी हैं। सभी प्रमुख कार निर्माता कंपनियां अगले कुछ साल में इलेक्ट्रिक माध्यम का रुख करने का संकल्प कर चुकी हैं। यूरोपीय संघ, कनाडा और चिली ने भी जीवाश्म ईंधनों को हटाने के लिए समयसीमा तय कर दी है।
हालांकि ऊंची कीमतें और चार्जिंग के ढांचे में और अधिक निवेश की जरूरत जैसे कुछ पक्ष हैं, जो अवरोध पैदा कर रहे हैं। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक, वाहनों का बिजलीकरण बहुत ज्यादा तेजी से हुआ है। अमीर औद्योगिक देशों और चीन में ये ज्यादा स्पष्ट दिखता है, जहां ज्यादा-से- ज्यादा इलेक्ट्रिक ट्रक और बसें सड़कों पर दौड़ने लगी हैं।
पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने के लिए और भी ज्यादा कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन रिपोर्ट के लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु संकट से निपटने में जागरूकता, समझ और तकनीकी जानकारी में लगातार हो रही वृद्धि दुनिया को "सामर्थ्य हासिल" कराएगी।
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