डॉ बाबा साहब आंबेडकर के अनुयायी और नागपुर के पूर्व पार्षद जनार्दन मून ने सितंबर, 2017 में नव गठित संगठन के नाम को रजिस्टर करने के लिए चैरिटी कमिश्नर के यहां आवेदन किया। इसका नाम था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस)। इसका नाम और इसकी स्पेलिंग वही थी जो संघ की है। यह आवेदन करने से पहले मून ने काफी रिसर्च किया और पिछले 100 साल के चैरिटी कमिश्नर और रजिस्ट्रार ऑफिस के दस्तावेज खंगाले कि इस नाम से किसी श्रेणी में कोई संगठन रजिस्टर्ड तो नहीं है लेकिन उन्हें कोई सूचना नहीं मिली। इसलिए उन्होंने इस नाम से एक संगठन रजिस्टर कराना अपना अधिकार माना। उन्होंने राजनीतिक एजेंडा छोड़कर आरएसएस द्वारा किए जाने वाले सभी कामों को अपने संगठन के काम बताए।
जैसी कि अपेक्षा थी, चैरिटी कमिश्नर ने उनका आवेदन विचार न किए जाने योग्य मानते हुए रद कर दिया। फिर, मून ने बंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में न्याय के लिए याचिका डाली। कोर्ट के दो रजिस्ट्रारों ने इसे लिस्ट करने से ही मना कर दिया। मून ने दोनों पर आरएसएस के एजेंडे को बढ़ाने और न्याय से वंचित करने का आरोप लगाया। खास बात यह है कि आरएसएस के पदाधिकारियों ने इसे हथकंडा तो बताया लेकिन वे इसे लेकर चिंतित तो हो ही गए थे, सो उन्होंने दो अधिवक्ताओं को तैनात कर दिया ताकि अगर कोर्ट में कोई सुनवाई होने लगे, तो वे उसका पक्ष रख सकें।
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इधर, अपने आरएसएस को रजिस्टर न करा पाने या इस बारे में कोर्ट से निर्देश हासिल न करने में विफल रहने पर भी मून राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम से अपना संगठन चला रहे हैं। पुराने आरएसएस की विचारधारा से उलट मून का संगठन दलितों और मुसलमानों के प्रति सकारात्मक विचार फैलाता है और जातिवादी, उच्च जाति-समर्थक विचार नहीं रखता। किसी को लग सकता है कि आखिर, इससे क्या हो रहा है; लेकिन और कुछ हो या नहीं, मून ने लोगों को इतना तो बता ही दिया है कि अगर मोहन भागवत का आरएसएस किसी तरह के रजिस्ट्रेशन के बिना ही एनजीओ के तौर पर काम कर सकता है, तो वह भी ऐसा कर सकते हैं। आरएसएस मन मसोस कर रह जा रहा है और उन्हें लेकर कुछ नहीं कर पा रहा।
यह तथ्य है कि आरएसएस अपंजीकृत एनजीओ है लेकिन यह विडंबना ही है कि आजाद भारत में भी इस पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद भी इस ओर किसी सरकार ने कभी कोई तवज्जो नहीं दी। आरएसएस के सिद्धांतकार दावा करते हैं कि यह संगठन अपने ऐसे प्रचारकों की स्वैच्छिक मदद के बल पर चल रहा है जिन्होंने अपने घर छोड़ दिए और अपनी सारी संपत्ति इस संगठन को दान कर दी। लेकिन इस तरह की स्वीकारोक्ति के बाद भी कई प्रश्न अनुत्तरित तो रह ही जाते हैं- दान में मिली संपत्ति की डीड्स किसके नाम है; इन सब पर टैक्स कौन देता है; क्या कोई टैक्स देता भी है या नहीं। अगर यह सब नहीं है, तो, आखिर, मिशनरियों समेत अन्य चैरिटेबल संगठनों और एनजीओ को इस तरह की छूट क्यों नही दी जाती?
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निस्संदेह, आरएसएस यह तथ्य नहीं छिपाता कि उसके 35 से अधिक आनुषांगिक संगठन हैं जो रजिस्टर्ड हैं और उन सबके अपने बैंक एकाउंट हैं लेकिन यह तब भी नहीं बताता कि 2002 तक अपने मुख्यालयों में तिरंगे के अलावा अन्य कोई झंडा फहराने समेत देश के कानूनों के उल्लंघन से वह किस तरह बचता रहा है। पिछले लगभग पांच दशकों में यह देश के शहरी और ग्रामीण जीवन के लगभग हर वर्ग में अपनी पैठ बना चुका है हालांकि यह भी सच है कि लगभग एक या दो दशक पहले तक यह अपने पर अविश्वास करने वाले लोगों को अपने विचार से सहमत करने के लिए संघर्ष कर रहा था। सब लोगों के पास इस बात के कई किस्से हैं कि कैसे संघ स्वयंसेवकों को उनके विचारों और कामों के कारण लोगों ने अपमानित तक किया।
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अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में पहली बार बीजेपी के नेतृत्व में सरकार बनी और उसने संघ की ओर से आंखें मूंदे रखीं। इससे संघ को मुसलमानों और गैर-आरएसएस नागरिकों के घरों में घुसने, हिंदुत्व का पाठ पढ़ाने, रथ पर बैठे अर्जुन और कृष्ण की तथा अन्य देवी-देवताओं की रंगबिरंगी तस्वीरें दीवारों पर चिपका देने आदि का मौका मिलता गया। बाद की सरकारों ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आरएसएस किस तरह कट्टरता फैला रहा है और वे उसे इस तरह वित्तीय उल्लंघन की अनुमति देती रहीं। परिणाम यह है कि बीजेपी और आरएसएस ने अकूत कर मुक्त, बेहिसाबी धन जमा कर लिया जिनका उपयोग वे वोटरों के झुकाव और उनके वोट अपनी ओर कर लिए और देश आज न सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि लोकतंत्र को लेकर भी गहरे संकट में है। आज भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो आरएसएस पर यकीन नहीं करते। यह उन लोगों के लिए दिमाग और आत्मा की लड़ाई है जो देश को लेकर चिंतित हैं। ऐसे लोगों का उठ खड़ा होना जरूरी है, अन्यथा काफी देर हो चुकी होगी।
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