केंद्र सरकार ने जिस आर्थिक राहत के एक करोड़ 70 लाख रुपए के पैकेज का ऐलान किया है, वह मोटे तौर पर कमजोर वर्गों के लिए है जिसमें किसान, महिलाएं, निर्माण मजदूर, वरिष्ठ नागरिक, विधवाएं और विकलांग शामिल हैं। सुनने में यह रकम बहुत बड़ी लग सकती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि देश की जीडीपी के 1 प्रतिशत से कम है।
फिर भी यहां मुद्दा यह नहीं है कि जीडीपी के कितने फीसदा का पैकेज है, बल्कि यह है कि आखिर यह पैसा कितनी जल्दी असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पहुंचता है, क्योंकि इस तबके की न सिर्फ नौकरी या काम ठप हो गया है, साथ ही उसके सामने एक स्वास्थ्य संकट भी खड़ा हो गया है।
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केंद्र सरकार के इस पैकेज का ऐलान केरल द्वारा अपने राज्य के लोगों के लिए 20,000 करोड़ रुपये के पैकेज के ऐलान के बाद हुआ है, जिसके बाद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, तेलंगाना और राजस्थान सहित कई राज्यों ने इसे अपनाया था।
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लेकिन, इस पैकेज की घोषणा के बाद भी यह नहीं साफ हुआ है कि सरकार के पास धोबियों, रिक्शा चालकों, नाइयों, ग्रामीण मजदूरों जैसे असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए क्या योजना है, क्योंकि यह तो किसी राज्य सरकार के आंकड़े में दर्ज ही नहीं होते हैं। साथ ही गैर पंजीकृत निर्माण श्रमिकों के भी कोई व्यवस्था नहीं दिखती है। ऐसे में इस तबके को किसी भी राहत का कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि ये लोग इसके लिए पात्र ही नहीं होंगे।
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अगर आंकड़ों पर जाएं तो एनएसएसओ के रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण, 2011-12 के अनुसार, एक दशक पहले, असंगठित क्षेत्र में करीब 47.41 लोग काम करते थे। हालांकि श्रम मंत्रालय उन मजदूरों और कामगारों के आंकड़े नहीं रखता जो एक जगह से दूसरी जगह काम की तलाश में आते-जाते हैं। फिर भी पूर्व में आए आर्थिक सर्वेक्षणों में सामने आया है कि इन लोगों की तादाद कुल काम करने वालों के 20 करोड़ के आसपास है। नीति विशेषज्ञों की गहरी चिंता यह है कि प्रवासी श्रमिकों को मदद देने के लिए और उनका पता लगाने के लिए सरकार के पास क्या कोई मेकेनिज्म या व्यवस्था है, वह भी उस वक्त जब हजारों की तादाद में ऐसे श्रमिक बेरोजगार होने के बाद सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की तरफ पैदल की कूच कर चुके हैं, या अस्थाई तौर पर राज्य सरकारों द्वारा कहीं कहीं स्थापित शेल्टर होम के बाहर कतार लगाए बैठे हैं।
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यहां यह जानना जरूरी है कि सीजनल श्रमिक काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं।
सरकार को अगर असंगठित क्षेत्र के इस तबके की चिंता होती तो राहत पैकेज और उसे आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने का ऐलान या व्यवस्था लॉकडाउन से पहले करती, ताकि यह श्रमिक अपने काम वाले शहरी क्षेत्रों में ही रुके रहते और अपने घर वापस जाने की तकलीफों और बीमारी से संक्रमित होने और परिवार के लिए खतरा बनने की आशंका से नहीं घिरे होते।
सरकार ने गुरुवार को जो घोषणा की है, उसका अगर हिसाब-किताब लगाएं तो अगले तीन महीने के दौरान पंजीकृत गरीबों के खाते में अगले तीन महीने के दौरान करीब 61,380 करोड़ रुपए ट्रांसफर किए जाएंगे। इसी तरह महिला जन धन खाता धारकों को 10,000 करोड़ रुपये, विधवा, बुजुर्ग और विकलांगों को 3,000 करोड़ रुपयेस किसानों को 17,380 करोड़ रुपये और भवन और निर्माण श्रमिकों के खाते में 31,000 करोड़ रुपये जाएंगे।
इसके अलावा डिस्ट्रिक्ट मिनिरल फंड का करीब 25,000 करोड़ रुपया चिकित्सा सुविधाओं और कोरोना की टेस्टिंग सुविधाएं बढ़ाने के काम आएगा और इसे नकद ट्रांसफर नहीं किया जाएगा।
किसानों के लिए जारी किया जाने वाले 17,380 करोड़ रुपए कोई अतिरिक्त बजट नहीं है - यह पहले से ही 2020-21 के लिए बजट में मंजूर है, लेकिन सरकार 2,000 रुपये की पहली किश्त का भुगतान कर रही है।
इसी तरह निर्माण श्रमिकों को दिया जाने वाला पैसा भी सरकार को अतिरिक्त उधार लेने की जरूरत नहीं है। दरअसल इस मद का पैसा वास्तव में निर्माण से आता है जिसे राज्य सरकारें और केंद्र शासित प्रदेश एक फीसदी की दर से उपकर यानी सेस के रूप में वसूलते हैं। यह सेस बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर सेस एक्ट 1996 के तहत वसूला जाता है। स मद में सितंबर 2019 तक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने 45,473.1 करोड़ एकत्र किए थे, जिसमें से 17,591.59 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं।
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इसी प्रकार सरकार ने मनरेगा श्रमिकों की दिहाड़ी मजदूरी में 20 रुपए प्रतिदिन की बढ़ोत्तरी की है। लेकिन इस बढ़ोत्तरी का कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि सभी राज्यों में कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए घोषित 21 दिन के लॉकडाउन के साथ ही मनरेगा के तहत होने वाले काम ठप हो गए हैं। इसके बजाय अच्छा यह होता कि सरकार मनरेगा श्रमिकों के जनधन खाते में पैसे जमा कराती क्योंकि इन सभी मजदूरों के आधार कार्ड सरकार के पास हैं।
ध्यान रहे कि जो लोग मनरेगा का विकल्प चुनते हैं, वे गरीबों में भी सबसे गरीब हैं। इनके लिए तो सबसे अच्छा विकल्प यही रहता कि इन्हें कम से कम 15 दिन की दिहाड़ी दी जाती ताकि इनकी जिंदगी चलती रहे। इस तरह इन्हें करीब 3000 रुपए मिल जाते और फिर बाद में इसकी समीक्षा की जाती। यहां यह भी देखना होगा कि मनरेगा के तहत जारी कुल 13.65 करोड़ कार्ड में से करीब 8.22 करोड़ ही सक्रिय हैं। ऐसे में अगर इन्हें 3000 रुपए दिए जाते तो सरकार को 25,000 करोड़ से भी कम खर्च करने पड़ते।
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