अभी आए दो राज्यों- गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के चुनावों के नतीजे क्या बताते हैं? क्या यह कि मोदी को हराया नहीं जा सकता? लेकिन, तब हिमाचल के बारे में क्या? क्या यहां एंटी- इनकम्बेन्सी महत्वपूर्ण थी?
गुजरात के नतीजे समझने का प्रयास करें- बीजेपी यहां लगातार 27 साल से सत्ता में थी और अगर आप चुनावी नैरेटिव को प्रभावी तरीके से मैनेज करते हैं और चुनाव में मदद करने वाले अंगों (उदाहरण के लिए, चुनाव आयोग) को अपने रास्ते पर ले आते हैं, तो भारी बहुमत, अब तक के सबसे बड़े बहुमत से जीतना संभव हो सकता है। आप कुछ चुनावी पंडितों को अब भी यह कहते सुन सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को त्रिकोणीय मुकाबले में तो हराना कठिन है, लेकिन सीधे मुकाबले में इन्हें हराया जा सकता है।
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मोदी ने ‘गुजरात फर्स्ट’ की बात की और यह बात भी गर्वपूर्वक दोहराते रहे कि गुजरात आज जो है, उसे तैयार करने में यहां के हर व्यक्ति की भूमिका है। मोदी ने यह सब पड़ोसी महाराष्ट्र-जैसे दूसरे राज्यों के बल पर किया है और यह सब उन्होंने चुनावों की घोषणा से पहले से ही करना शुरू कर दिया था- हाल के दिनों में भी कई उद्योग और केंद्र सरकार के कई उपक्रम महाराष्ट्र से गुजरात ले जाए गए और इनकी सुर्खियां भी बनती रहीं।
इन दोनों राज्यों के चुनावों में क्या कुछ हुआ और उसका क्या पैटर्न रहा, उसकी समझ के लिए इनका परीक्षण कुछ अलग हटकर किए जाने की जरूरत है लेकिन फिलहाल तो यही लगता है कि हिमाचल और गुजरात के परिणामों को एक साथ जोड़ना मुश्किल ही है।
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मोदी मैजिक ने उनके गृह राज्य को अपनी गिरफ्त में भले ही ले लिया हो, लेकिन हिमाचल में उसका कोई असर नहीं रहा। हिमाचल में एंटी-इनकम्बेन्सी की वजह से सत्ता परिवर्तन हो गया लेकिन गुजरात में सत्ताधारी पार्टी को रिकॉर्ड विजय तथा 80 प्रतिशत से अधिक सीटें हासिल हुईं। गुजरात में कट्टर हिन्दुत्व ने स्थानीय मुद्दों को बिल्कुल उड़ा ही दिया जबकि हिमाचल में उसका कोई असर नहीं दिखा। हिमाचल में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे हावी रहे जबकि गुजरात में ये मुद्दे रहे ही नहीं। हिमाचल में अपने चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने जो वायदे किए, उससे वहां तो लोगों को बातें समझ में आईं, लेकिन गुजरात में वैसा नहीं हुआ।
तुलना करने से भ्रम हो सकता है, जबकि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जनसांख्यिकी और संस्कृति में बिल्कुल भिन्नता है। गुजरात औद्योगिक राज्य है जबकि हिमाचल में अधिकतर खेती-किसानी होती है। गुजरात में कई बड़े बिजनेस हैं लेकिन हिमाचल में यह लगभग नहीं ही है। हिमाचल छोटा, पहाड़ी राज्य है जहां की विधानसभा 68 सदस्यों वाली है जबकि गुजरात उससे कहीं बड़ा- 182 सदस्यीय विधानसभा सीटों वाला राज्य है। गुजरात में भले बीजेपी पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की तरह लगातार सरकार बना रही हो और यहां वोटर उससे थके हुए से नहीं लग रहे हों, हिमाचल में हर पांच साल में सत्ता बदलती रही है।
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पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में प्रियंका गांधी ने ‘हिमाचलियत’ पर जोर दिया और आखिरकार हिन्दुत्व के बरक्स इस शब्द की अपील कहीं ज्यादा रही। प्रियंका का एक घर हिमाचल में भी है और उन्होंने न केवल राज्य में डेरा जमा लिया था बल्कि तमाम बड़ी रैलियों को संबोधित किया, रोड शो किए। बड़ी तादाद में बीजेपी के बागियों के मैदान में उतरने का भी असर रहा। हिमाचल में बीजेपी के 21 बागियों ने चुनाव लड़ा जिनमें से दो ने जीत हासिल की और 12 ऐसे विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। यहां तक कि बागियों से मैदान से हट जाने की प्रधानमंत्री की अपील का भी असर नहीं हुआ। कहा जा सकता है कि यह भी एक तरह से ‘हिमाचलियत’ का ही प्रभाव था जिसकी वजह से राज्य के लोगों ने ‘बाहरी’ हस्तक्षेप को मानने से इनकार कर दिया।
जिस तरह ‘ऊपर’ से फैसले लिए गए और उम्मीदवारों को थोपा गया, उससे बीजेपी के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी नाराजगी थी। हालांकि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर अपने गृह जिले की 10 में से 9 सीटों पर पार्टी को जिताने में कामयाब रहे जबकि केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर के गृह जिले हमीरपुर की सभी पांच सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई।
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अगर गुजरात की तरह ही यहां भी बीजेपी ने चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदल दिया होता तो क्या नतीजे कुछ और होते? गुजरात में भूपेंद्र पटेल को पिछले एक साल के दौरान 32 आंदोलनों को झेलना पड़ा और स्थिति यह तक हुई कि पुलिसवालों के परिवार भी आंदोलन में शामिल हो गए। फिर भी वहां चुनावी नतीजे पर कोई अंतर नहीं आया। हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर बेरोजगारों और सेब उत्पादकों के आंदोलन को ठंडा करने में सफल नहीं हो सके और इसका असर नतीजों पर भी दिखा।
गुजरात में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जिस दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से यह याद दिलाया कि बीजेपी ने 2002 में कुछ लोगों को सबक सिखाया था, वह राज्य में हिन्दुत्व के प्रभाव को बताता है। लेकिन हिमाचल प्रदेश में समान नागरिक संहिता के वादे का वोटरों पर वैसा असर नहीं हुआ।
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कांग्रेस ने ‘अग्निपथ’ योजना का गुजरात और हिमाचल- दोनों जगहों पर विरोध किया। लेकिन गुजरात में यह मुद्दा वोट को प्रभावित करने वाला साबित नहीं हुआ क्योंकि गुजरातियों में ‘मार्शल’ या लड़ाकू जातियां नहीं रहीं हैं और वहां के लोग सशस्त्र बलों में आम तौर पर नहीं जाते बल्कि व्यापार और कारोबार करना पसंद करते हैं। लेकिन हिमाचल प्रदेश के मामले में ऐसी स्थिति नहीं। वहां के तकरीबन 2.8 लाख लोग या तो सशस्त्र बलों में काम कर रहे हैं या पूर्व सैनिक हैं। इसलिए हैरानी नहीं कि अग्निपथ योजना हिमाचल में एक बड़ा चुनावी मुद्दा था जो चार साल सेना में नौकरी का वादा करती है और उसके खत्म होने के बाद बिना किसी पेंशन युवकों को वापस भेज देती है।
गुजरात में कांग्रेस ने सोच-समझकर बिना शोर-शराबे वाला प्रचार तरीका अपनाया था लोकिन इस क्रम में उसने अपनी सियासी जमीन आम आदमी पार्टी को सौंप दी। बेशक आम आदमी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री का प्रत्याशी चुनाव हार गया और उसके 128 उम्मीदवारों की जमानत जब्त भी हो गई लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी बनने की उसकी मंशा पूरी हो गई- वह भी सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में कांग्रेस की कीमत पर। इसके पांच में से चार विधायक सौराष्ट्र से हैं और एक आदिवासी क्षेत्र से। 2017 में कांग्रेस ने सौराष्ट्र और कच्छ की 54 में से 30 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि इस बार उसे महज तीन सीटों से संतोष करना पड़ा।
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कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि रणनीतिक रूप से कांग्रेस ने बीजेपी की अपेक्षा आम आदमी पार्टी से ज्यादा उलझने की गलती कर दी। हालांकि कांग्रेस नेता इस बात से कुछ संतोष कर सकते हैं कि बीजेपी की जी-तोड़ कोशिशों के बावजूद जिग्नेश मेवानी और अनंत पटेल जैसे उसके उम्मीदवार जीत गए।
कांग्रेस से जीतने वाले 17 उम्मीदवारों में से कई के बारे में इस तरह की चर्चा थी कि चुनाव से पहले ही उन्हें बीजेपी के पाले में आने के लिए अच्छी-खासी रकम का लालच दिया गया था। चुनाव में बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने जमकर पैसे बहाए जबकि इस मामले में कांग्रेस काफी पीछे रही।
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एक सवाल यह भी है कि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार कब तक चलेगी? 68 सीटों वाले सदन में कांग्रेस के पास 40 सीटें हैं जबकि बहुमत का आंकड़ा 35 है। ऐसे में बीजेपी खरीद-फरोख्त की अपनी पुरानी रणनीति को अपनाकर यहां ‘खेल’ कर सकती है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मोहन झारटा कहते हैं कि राज्य की राजनीति में दलबदल की संस्कृति नहीं है। वह यह भी कहते हैं कि चुनाव से पहले ही कई कांग्रेस उम्मीदवारों को पाला बदलने के लिए लालच दिया गया लेकिन वे झांसे में नहीं आए और अब जब वे जीत चुके हैं, उनके पाला बलदने की संभावना नहीं है।
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