चीन के बाद भारत में ही सबसे ज्यादा साइकिलें बनती हैं। दुनिया में भारत में बनी साइकिलों की खास गुणवत्ता और विविधता की बड़ी पूछ है। फिर भी, देश के प्रमुख तीन साइकिल निर्माताओं में से एक- एटलस, को अपना निर्माण कार्य लगभग पूरी तरह समेटना पड़ा है।अदूरदर्शी लॉकडाउन के दौरान न केवल साहिबाबाद में मौजूद एटलस साइकिल की आखिरी फैक्ट्री बंद हो गई, बल्कि इस पर निर्भर लगभग 1,000 लोग बेरोजगार भी हो गए। बंदी की घोषणा 3 जून को की गई, जिस दिन विश्व साइकिल दिवस था।
वैसे, मसला सिर्फ एटलस का ही नहीं है। लाॅकडाउन के दौरान तो इस इंडस्ट्री से जुड़े लोग खाली हाथ बैठे ही हैं, उससे पहले से ही इसके लोगों के माथे पर पसीने हैं। वजह भी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बांग्लादेश, श्रीलंका और चीन तथा अल्प लागत वाले दक्षिण-पूर्व एशियायी देशों से सस्ता आयात लगातार बढ़ता गया है और इसने भारत की साइकिल इंडस्ट्री की एक तरह से कमर तोड़ दी है।
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हालात का अंदाजा सिर्फ एक आंकड़े से मिल सकता है। 2011 में 637 मिलियन डाॅलर के साइकिल और साइकिल पार्ट का आयात हुआ था, जबकि 2018 में यह बढ़कर 862 मिलियन डाॅलर हो गया। इनमें से आधी सामग्री का आयात सिर्फ चीन और जापान से हुआ। श्रीलंका और बांग्लादेश भी बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रहे हैं। 2011 में बांग्लादेश से 0.14 मिलियन डाॅलर का आयात हुआ था जो 2018 में बढ़कर 5 मिलियन डाॅलर हो गया। इसी तरह, श्रीलंका से 2011 में 1.01 मिलियन डाॅलर का आयात हुआ जो 2018 में बढ़कर 22 मिलियन डाॅलर हो गया।
इन सबके पीछे विडंबनापूर्ण नीति है। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते (साफ्टा) के तहत भारत में साइकिल और साइकिल पार्ट के आयात पर शुल्क की दर शून्य है। श्रीलंका और बांग्लादेश इसका पर्याप्त फायदा उठाते हैं। दूसरी तरफ, बांग्लादेश और श्रीलंका को साइकिल भेजे जाने पर वहां आयात शुल्क क्रमशः 25 और 30 प्रतिशत हैं। मतलब, यहां से अगर साइकिलें वहां भेजी जाएं, तो इस दर पर शुल्क वहां चुकाना होगा।
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लेकिन असली मुद्दा यह भी नहीं है। श्रीलंका और बांग्लादेश के जरिये चीन अपना माल भी भारत में खपा रहा है। इन दोनों देशों में साइकिल और साइकिल पार्ट का चीन से आयात लगातार बढ़ रहा है। चीन के साइकिल और साइकिल पार्ट कम वजन वाले होते हैं और उन्हें ये दोनों देश कम कीमत में यथामूल्य वहां से मंगा रहे हैं। साइकिल इंडस्ट्री ने इस ओर सरकार का ध्यान बार-बार दिलाया है। पर ग्लोबल लीडर बनने के चक्कर में नरेंद्र मोदी सरकार ने कभी इस ओर कान ही नहीं दिया।
यहां तक कि मोदी सरकार ने जब 100 स्मार्ट सिटी बनाने की योजना बनाई, तब इंडस्ट्री के प्रतिनिधियों ने यह मांग भी की थी कि कम-से-कम नई रिहाइश बनाते समय ही सही, इनमें साइकिल लेन बनाने का स्पष्ट प्रावधान किया जाए। इससे साइकिल इंडस्ट्री का तो फायदा होगा ही, इलाके के पर्यावरण के साथ-साथ लोगों के स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर होगा।
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पब्लिक बायसाइकिल शेयरिंग (पीबीएस) सिस्टम पर जोर देने की मांग भी की जाती रही है, ताकि मेट्रो, बस या टैक्सी से लंबी दूरी तय करने के बाद लोग आसपास के इलाकों में जाने-आने के लिए साइकिल का उपयोग करें। लेकिन सरकार ने इन पर भी कभी ध्यान नहीं दिया। और लगातार गिरती हालत के बीच इस लाॅकडाउन ने तो भविष्य को और चौपट कर दिया है।
साल 1950 में स्थापित एटलस तो बंद ही हो गई जबकि विभिन्न साइकिल कंपनियों को मजदूरों की कमी की वजह से अपना उत्पादन या तो बंद कर देना पड़ा है या उनके यहां उत्पादन काफी कम हो गया है। इसके साथ ही इनसे जुड़े सूक्ष्म, लघु, मध्यम श्रेणी के उद्यम (एमएसएमई) लगभग बंद ही चल रहे हैं।
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इसका अंदाजा पंजाब के लुधियाना में आसानी से लग सकता है। लाॅकडाउन से पहले तक लुधियाना में रोजाना करीब 60,000 साइकिलें बन रही थीं और इनकी वजह से करीब 4,000 उद्यमियों और उनके साथ काम कर रहे हजारों लोगों की रोजी-रोटी चल रही थी। लाॅकडाउन के बाद ये मजदूर अपने गांव-घर वापस हो गए और यह सारा रोजगार ठप हो गया। यह दोबारा कब तक शुरू हो पाएगा, कहना मुश्किल ही है।
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