तालिबान के आने से भारत के पड़ोस में अस्थिरता आ गई है। वहां किस तरह की सरकार आने की संभावना है?
अभी यह कहना मुश्किल है। तालिबान में भी तमाम ग्रुप हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम उस समूह को देख रहे हैं जिससे दोहा में बातचीत हुई। एक गुट है क्वेटा शूरा जो क्वेटा में स्थित है। फिर पूर्वी अफगानिस्तान में खास तौर पर असर रखने वाला गुट है हक्कानी नेटवर्क। इसके अलावा कई विदेशी आतंकवादी गुट भी हैं जैसे- इस्लामिक स्टेट, तहरीके तालिबान पाकिस्तान, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, ताजिक गुट, सीरिया से लौटे लड़ाकों के गुट। मोटे तौर पर ये आतंकी गुट उत्तर में सक्रिय हैं। इन गुटों में सत्ता का बंटवारा कैसे होता है, यह देखने की बात है।
तालिबान का सत्ता को कब्जे में लेने का भारत पर क्या असर पड़ सकता है?
निःसंदेह यह बुरा हीहोगा। वहां तालिबान के आने को दो तरह से देखा जा सकता है और दोनों मामलों में भारत के लिए नतीजे बुरे ही रहने हैं। पहला, इससे क्षेत्र में पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ेगा और हमारे पाकिस्तान के साथ जैसे रिश्ते हैं, उसे देखते हुए यही कह सकते हैं कि भारत के लिए यह अपशकुन का ही संकेत है। दूसरा, अगर अफगानिस्तान में अस्थिरता रहेगी तो भी भारत के लिहाज से क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए यह बुरा ही होगा।
Published: undefined
क्या तालिबान का सत्ता पर कब्जा होना तय था?
इसे टाला नहीं जा सकता था। एक तरह से अमेरिका ने भी इसे स्वीकार कर लिया था। अमेरिका ने जिस दिन इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान यानी तालिबान जिसे उसने मान्यता भी नहीं दी थी, के साथ समझौता किया, यह तय हो गया था कि अमेरिका भी यह मान रहा है कि तालिबान आगे-पीछे सत्ता में आएगा। इस तरह अमेरिका ने अफगानिस्तान को पाकिस्तान और आईएसआई के हवाले कर दिया। 2020 में ही यह तय हो गया था कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के अब गिनती के दिन बचे हैं।
अगस्त के लिए भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अध्यक्ष है। अफगानिस्तान के लोगों के लिए भारत क्या कर सकता है?
भारत कुछ नहीं कर सकता। अगर भारत ने सारे दांव एक ही विकल्प पर नहीं लगाए होते तो वह कुछ करने की स्थिति में होता। लेकिन अब तो स्थिति यह है कि भारत को अपने दूतावास के लोगों समेत विभिन्न कंपनियों के लिए वहां काम कर रहे लोगों को ही सुरक्षित निकालने में पसीने बहाने पड़ रहे हैं। अगर हमने ठीक तरीके से योजना बनाई होती तो हमने अपने लोगों को वहां से पहले ही निकाल लिया होता जब वहां के हवाई अड्डों से उड़ानें आ-जा रही थीं। सबसे बड़ी बात, अगर अमेरिका वहां के हालात को नहीं टाल सका तो हम भला ऐसा कैसे कर सकते थे? हां, इतना जरूर है कि हम बेहतर योजना बना सकते थे।
Published: undefined
भारत ने कदम उठाने में देरी क्यों की?
समझ में नहीं आता कि सरकार ने इसे नजरअंदाज क्यों किया। पिछले कुछ बरसों से यह बात साफ थी कि तालिबान सत्ता में आएगा। कम से कम दोहा में हुई बातचीत के बाद तो यह सार्वजनिक ही हो गया था। सवाल तो यह है कि अगर सरकार ने तालिबान को धीरे-धीरे दी जा रही मान्यता को समझ लिया था तो उसने क्या किया।
क्या भारत को तालिबान जैसे कट्टरपंथी संगठन से बातचीत करनी चाहिए?
विदेश मंत्रालय के बयान पर गौर करें। उसने कहा कि हम सभी हितधारकों से बात कर रहे हैं। हमने उन बैठकों में भाग लिया है जिनमें तालिबान भी था। इसलिए सवाल किसी ‘कट्टरपंथी’ से बात करने का नहीं। अफगानिस्तान में हमारे कुछ हित हैं और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह वहां मौजूद भारतीयों और हमारे दूतावास में काम करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करे।
भारत का तालिबान से बात नहीं करना क्या अव्यवहारिक रहा है?
भारत ने दूरदृष्टि का परिचय नहीं दिया। हम उनसे इसलिए बात नहीं करते कि उनका व्यवहार बदलना था या कि उनके और पाकिस्तान के रिश्तों में दरार डालना था। हमें केवल इसलिए भी बात नहीं करनी थी कि अपने फैसले लेने की स्थिति में हों बल्कि इसलिए कि हम इस क्षेत्र का हिस्सा हैं और हमें अचानक विकल्पहीनता की स्थिति में नहीं आना चाहिए था।
क्या इससे पाकिस्तान और चीन को बढ़त मिल गई है?
बिल्कुल। पाकिस्तान की स्थिति अच्छी होगी तो चीन की भी होगी।
दो दशक पहले के तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा और अब का तालिबान का कब्जा, क्या फर्क है दोनों में?
जब तालिबान ने 1996 में काबुल पर कब्जा किया था तो केवल तीन देशों- पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब- ने उसे मान्यता दी थी लेकिन इस बार स्थिति अलग है। वह अमेरिका के साथ समझौता करके और चीन, रूस, तुर्की, ईरान समेत तमाम अन्य देशों की यात्रा करके काफी हद तक वैधता हासिल कर चुका है। यही सबसे बड़ा अंतर है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined