इनसे मिलिए। यह चंदा यादव हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय- जामिया मिल्लिया इस्लामिया, के हिंदी विभाग में पढ़ रही हैं। अभी संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और राष्ट्रीयता नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान जामिया की तीन लड़कियों की एक फोटो और उसी समय का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ था। इनमें लड़कियां एक लड़के को पुलिस की लाठियों से बचाती दिख रही हैं। बचाने वाली उन लड़कियों में एक चंदा यादव भी थीं। उन्हें भी काफी गंभीर चोटें आईं, इसके बावजूद वह विरोध प्रदर्शन में लगातार भाग ले रही हैं।
चंदा यादव कहती हैं- “इस प्रोटेस्ट की शुरुआत जामिया से ही हुई। कुछ लोग सोशल मीडिया पर भ्रम फैला रहे हैं कि जामिया के इस प्रोटेस्ट में सिर्फ मुस्लिम छात्र-छात्राएं शामिल हैं। ये लोग देश को हिंदू और मुस्लिम में बांटना चाह रहे हैं। यह पूछने पर कि वह इस कानून का विरोध क्यों कर रही हैं, चंदा कहती हैंः ‘यह लड़ाई राम-रहीम की है ही नहीं, यह संविधान को बचाने की लड़ाई है। ‘संघियों’ का मकसद मनुस्मृति को संविधान बनाना है।’
जामिया से जेंडर स्टडीज में पीएचडी कर रहे राहुल कपूर का भी कहना है कि वह इस विरोध-प्रदर्शन में पहले दिन से शामिल हैं। वह कहते हैंः “सरकार चाहे जितना हमें बांटने की कोशिश करे लेकिन कम-से-कम जामिया में पढ़ रहे छात्रों को तो कभी नहीं बांट सकती। मेरा तो सुझाव है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जामिया आएं और यहां के लोगों को कपड़ों से पहचान कर बताएं। आकर देखें कि सिर्फ हिंदू और मुसलमान ही नहीं, सिख और ईसाई भाई भी हमारे साथ हैं। हमारे सिख भाई तो यहां लोगों के खाने-पीने से लेकर चाय-पानी तक का इंतजाम लगातार कर रहे हैं।
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राहुल ने दिल्ली पुलिस की जामिया के छात्रों पर की गई बर्बरता के खिलाफ एक हस्ताक्षर अभियान भी change.org पर चलाया। इस रिपोर्ट को फाइल किए जाने तक इस ऑनलाईन पेटीशन पर करीब 1 लाख 20 हजार लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। राहुल के अनुसार, हस्ताक्षर करने वालों में मुसलमानों से अधिक दूसरे धर्मों के लोग हैं। राहुल ने प्रदर्शन के दौरान पुलिस के रवैये के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में एक शिकायत भी दर्ज कराई है।
जामिया में पढ़ाई कर रहे चंदन कुमार भी 15 दिसंबर को पुलिस बर्बरता के शिकार हुए थे। हाथ- पैर के अलावा उनके सिर में भी गंभीर चोटें आई हैं। दिल्ली पुलिस ने जिन सात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है, उनमें से एक चंदन भी हैं। वह कहते हैं कि पूरे देश में चलने वाले इस आंदोलन को मोदी सरकार हिंदू-मुस्लिम रंग देने की पुरजोर कोशिश कर रही है। लेकिन यह लड़ाई केवल मुसलमानों, केवल असमियों की संस्कृति बचाने, किसी एक भाषा बोलने या किसी एक क्षेत्र के लोगों के लिए नहीं है बल्कि यह देश के संविधान को बचाने की लड़ाई है।
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इकोनॉमिक्स की पढ़ाई कर रहे विशाल प्रसाद बताते हैं कि “हम इस पूरे आंदोलन को इस तरह देख रहे हैं कि जब हमारे देश की एकता-अखंडता और संविधान पर हमला किया जा रहा है तो हमारी यह जामिया उसके खिलाफ न सिर्फ खड़ी है बल्कि डटकर मुकाबला भी कर रही है। जामिया में बीएएलएलबी कर रहे सुयश त्रिपाठी का कहना है कि आम लोगों में भ्रम है कि जामिया में सिर्फ मुसलमान ही पढ़ते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यहां के दो-तिहाई विद्यार्थी मुसलमान नहीं हैं। एकेडेमिक स्टाफ में भीआपको यही आंकड़ा देखने को मिलेगा। जामिया एकमात्र ऐसी यूनिवर्सिटी है जो देश की आजादी के आंदोलन से निकली हुई है। यह यूनिवर्सिटी आजादी के संघर्षों की छांव में ही पली-बढ़ी है।”
सुयश कहते हैं कि “हमारी लाइब्रेरी को तो पुलिस वालों ने तबाह कर दिया है, लेकिन हमने सड़कों पर पढ़ना जारी रखा है। वह कहते हैं कि जामिया हमारे लिए घर-जैसा है। हम यहां खुद को सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। जब पुलिस ने हम पर लाठियां बरसाईं, तब भी यहां मुसलमान साथियों ने खुद पिटकर हमें सुरक्षित रखा। मैं अपने खुद के साथ घटी घटना को पूरी जिंदगी कभी नहीं भूल सकता।”
दिल्ली यूनिवर्सिटी से आने वाली छात्रा स्वाति खन्ना बताती हैं कि “डीयू में भी अब तक चार विरोध-प्रदर्शन आयोजित किए जा चुके हैं। वहां तो कोई यह नहीं कह सकता कि सिर्फ मुसलमान छात्र विरोध में उतरे हैं। वहां तो अधिकतर संख्या हिंदू छात्रों की ही है। जामिया में भी यही कहानी है। अब आप सोचिए कि इस स्टॉल को अगर सिर पर रख लूं तो हिजाब बन जाएगा, वैसे ओढ़े रखूं, तो कुछ और। अब जिनको जो समझना है, वे समझें लेकिन हर समझदार आदमी इस आंदोलन के साथ है।”
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छात्र आंदोलन के दौरान पुलिस कार्रवाई में मारे गए लोगों के लिए जहां लोग जनाजे की नमाज यहां पढ़ रहे हैं, वहीं हर दिन यहां प्रार्थना-सभाएं भी होती हैं। इसमें संस्कृत के श्लोक भी पढ़े जा रहे हैं और वे तमाम प्रार्थनाएं भी जो गांधीजी की प्रार्थना सभाओं में गाए जाते थे। यहां प्रदर्शन स्थल पर ही छात्रों ने क्रिसमस भी सेलिब्रेट किया और जब पूरा मुल्क नए साल के जश्न में डूबा हुआ था, जामिया में आजादी के नारों के साथ-साथ राष्ट्रगान गाया जा रहा था और भारत माता की जय के नारे भी लगाए जा रहे थे।
दिल्ली में शाहीन बाग भी विरोध का केंद्र बना हुआ है। यहां का यह नारा सबका ध्यान खींच रहा हैः जब हिंदू-मुस्लिम राजी, तो क्या करेगा नाजी? यह कहने की जरूरत नहीं है कि नाजी लफ्ज का इस्तेमाल मोदी-अमित शाह के लिए किया जा रहा है। प्रदर्शन स्थल की वह तस्वीर भी सोशल मीडिया पर वायरल रही है जिसमें हिजाब पहने एक महिला अपने बच्चे को दूध पिला रही है और उस बच्चे के हाथ में प्लेकार्ड हैः नो सीएए, नो एनआरसी। महिला की ललाट पर एक पोस्टर हैः आई रिजेक्ट सीएए/एनआरसी। इसी सड़क पर एक प्लेकार्ड यह भी हैः टू मेनि पुलिस, टू लिट्ल जस्टिस। बात सच भी है, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण शासन में पुलिस की भूमिका सीमित ही होती है।
ये है जामिया का अतीत
सितंबर, 1920 में कलकत्ता कांग्रेस की विशेष सभा में गांधी जी ने यह तहरीक पेश की कि आजादी के लिए सरकारी शिक्षा का बायकाॅट किया जाए, यानी ब्रिटिश सरकार से स्कूलों-कॉलेजों के लिए सरकारी ग्रांट न ली जाए। गांधी जी चाहते थे कि देश के स्कूल-कॉलेज विद्यार्थियों को आजादी हासिल करने के राष्ट्रीय नजरिये से पढ़ाएं, साथ ही समझदार लड़के आजादी का पैगाम सुनाने के लिए पूरे हिंदुस्तान के देहातों में फैल जाएं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने गांधी जी के इसी असहयोग और खिलाफत आंदोलन में जन्म लिया। जामिया की स्थापना से लेकर जामिया को डूबने से बचाने तक गांधीजी ने जी-जान लगा दिया। कस्तूरबा गांधी ने भी अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण दिन यहां गुजारे। यहां गांधीजी के बेटे देवदास ने बच्चों को तालीम की रोशनी से लबालब किया। यहां गांधीजी के पोते रसिक ने तालीम पाई। रसिक ने मात्र 17 साल की उम्र में यहीं दम तोड़ा था।
(लेखक जामिया के इतिहास पर शोध कर रहे हैं। पिछले दिनों इनकी ‘जामिया और गांधी’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है)
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