अपनी सरकार का 1 साल पूरा करने के सिर्फ 5 दिन पहले यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा धक्का लगा। वे और उनके गुरू महंत अवैद्यनाथ जिस लोकसभा सीट पर पिछले तीन दशकों से काबिज थे, उस पर बीजेपी हार गई।
योगी ने 2014 में जिस गोरखपुर को 3 लाख मतों से जीता था, वहां इस अप्रत्याशित हार के अलावा बीजेपी को दूसरा बड़ा धक्का फूलपुर लोकसभा सीट पर हार का लगा, जहां से यूपी के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सांसद थे। इन दोनों सीटों पर इसलिए उपचुनाव हुए क्योंकि इन दोनों बड़े नेताओं ने लोकसभा से इस्तीफा देकर विधानमंडल की सदस्यता ले ली।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच चुनाव के ठीक पहले बनी आपसी समझ ने बीजेपी को असल में बहुत बड़ा चकमा दिया। भगवा ब्रिगेड की उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया जब बीएसपी जो इस चुनावी दौड़ से बाहर थी, उसने 8 दिनों के भीतर सफलतापूर्वक अपनी पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाताओं का वोट सपा के उम्मीदवार को दिलवा दिया।
योगी सरकार के कामकाज के अलावा कई और चीजों का तो इस चुनाव पर असर पड़ने ही वाला था। इनमें सबसे बड़ी बात थी ‘विकास’ को लेकर सरकार की तरफ से किए गए बड़े-बड़े दावे, और उन्हें बार-बार दुहराया भी गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि गोरखपुर और फूलपुर को विकास के नाम पर बातों के अलावा कुछ और नहीं मिला। लोगों के जीवन में किसी भी तरह का बदलाव लाने में असफल रही सरकार से मतदाताओं का मोहभंग हो गया और इसी वजह से चुनाव में मतदान प्रतिशत भी कम रहा।
इस चुनाव में सिर्फ योगी की निजी प्रतिष्ठा ही नहीं, बल्कि गोरखनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी थी, जिसके लाखों भक्तों की वजह से योगी लगातार 5 बार गोरखपुर से लोकसभा चुनाव जीते। उनके गुरू महंत अवैद्यनाथ उनसे पहले 3 बार इस सीट से सांसद रहे।
लंबे समय से एक-दूसरे की राजनीतिक प्रतिद्वंदी रही सपा-बसपा के बीच अचानक हुई दोस्ती ने बीजेपी का खेल बिगाड़ दिया और बीजेपी इसके लिए तैयार भी नहीं थी। सपा-बसपा के बीच शत्रुता इतनी खुली, गहरी और निजी थी कि मायावती खुलकर मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाने के सुझाव के भी खिलाफ थीं और ऐसा तब से था जब तत्कालीन सीएम रहे सपा नेता ने 1995 के कुख्यात स्टेट गेस्ट हाउस हमले के दौरान मायावती पर आतंक फैलाया था।
लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से सपा प्रमुख के नाते अखिलेश यादव ने मायावती को समझौते के प्रस्ताव भेजे जो आखिरी वक्त में कामयाब हो गए। बीजेपी को इसका अनुमान नहीं था और जब इसकी औपचारिक रूप से घोषणा हो गई, तब भी भगवा ब्रिगेड ने इसे हल्के में लिया और बीजेपी के बड़े नेताओं ने इस गठबंधन का मजाक उड़ाया।
फूलपुर में बीजेपी की जीत पर लोगों को तभी से संदेह था जब पिछले महीने दोनों सीटों पर उपचुनाव की घोषणा हुई थी, पार्टी और विपक्ष के लोगों का यह भी मानना था कि किसी भी हालत में गोरखपुर में बीजेपी को आसान जीत नहीं मिलेगी।
शायद यह सत्ता का अहंकार ही थी जिसने दोनों बीजेपी उम्मीदवारों उपेन्द्र दत्त शुक्ल (गोरखपुर) और कौशलेन्द्र नाथ पटेल (फूलपुर) की आसान जीत के अतिआत्मविश्वास से पार्टी को भर दिया और जो बाद में बड़े अंतर से हारे।
राजनीति के नए खिलाड़ी मौर्य ने 2012 में ही बीजेपी में अपना कैरियर शुरू किया था और 2014 की मोदी लहर में लोकसभा चुनाव जीत गए, लेकिन वे बीजेपी प्रमुख अमित शाह विश्वास जीतने में कामयाब हो गए, जिन्होंने उन्हें यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाया। और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 403 सीटों में से रिकार्ड बनाते हुए 324 सीटें जीत लीं। मौर्य ने पार्टी की जीत का श्रेय खुद को देना शुरू किया। उन्होंने यह कहना शुरू किया कि बीजेपी की इतनी बड़ी जीत पिछड़ी जाति के मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की उनकी कोशिशों का नतीजा थी और इसके बाद उन्होंने सबसे बड़े पद की मांग शुरू कर दी। लंबे संघर्ष के बाद ही वे उप-मुख्यमंत्री के पद से संतोष करने को राजी हुए। लेकिन वे इससे अंतिम तौर पर समझौता नहीं कर सके और उनके और सीएम योगी के बीच जारी मनमुटाव लगातार दिखता रहा।
अब, सपा-बसपा गठबंधन से जाति-आधारित मतदाता आधार की फिर से वापसी हुई है, जिसे नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ध्वस्त कर दिया था जब सिर्फ ब्रांड मोदी के लिए लोगों ने जाति को नजरअंदाज कर वोट किए। निश्चित तौर पर अगर यह गठबंधन जारी रहता है तो बीजेपी और इसके सहयोगियों के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी, जिन्होंने लोकसभा की 80 सीटों में से 73 सीटों पर जीत हासिल की थी।
हालांकि कांग्रेस ने उपचुनाव में इस गठबंधन से खुद को अलग रखा, लेकिन राजनीतिक समझदारी को भांपते हुए राहुल गांधी उसी तरह से एक बड़े ‘महागठबंधन’ का हिस्सा हो सकते हैं जैसे बिहार में नीतीश-लालू के महागठबंधन का हिस्सा हुए थे।
योगी आदित्यनाथ के अतिआत्मविश्वास ने उन्हें बार-बार इन उपचुनावों को 2019 के आम चुनावों का ‘रिहर्सल’ कहने के लिए उकसाया, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक किस्मत तय करेगा। यह एक बहुत बड़ा सवाल है कि क्या भगवाधारी सीएम इसे अभी भी ‘रिहर्सल’ कहना चाहेंगे?
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