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‘चीता आया, चीता आया’ शोर के बीच जान लीजिए क्या है 'प्रोजेक्ट चीता', और किसकी कोशिशें लाई हैं रंग?

साल 2008-2009 'प्रोजेक्ट चीता' का प्रस्ताव तैयार हुआ। उससे पहले 1970 के दशक जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी उस दौरान एशियाई शेरों के बदले में एशियाई चीतों को भारत लाने के लिए ईरान के शाह के साथ बातचीत शुरू हुई।

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Getty Images अपने शिकार को पकड़ने के लिए दौड़ता हुआ अफ्रीकी चीता

भारत में बेरोजगारी चरम पर है। महंगाई ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है। अर्थव्यवस्था का क्या हाल है ये भी जगजाहीर है, लेकिन इन गंभीर मुद्दों से इतर देश में दिल्ली से करीब 9 हजार किलोमीटर दूर नामीबिया से भारत लाए जाने वाले 8 चीतों का ढोल पीटा जा रहा है, ताकि इसके शोर से लोगों का ध्यान गंभीर मुद्दों से हटाया जा सके। अभी चीता देश पहुंचा भी नहीं था और सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'शेर' बताना शुरू कर दिया गया। दरअसल हो-हल्ला इसलिए भी ज्यादा मचाया जा रहा है, क्योंकि आज देश के प्रधानमंत्री का जन्मदिन है और इन चीतों को आज ही भारत लाया गया है।

पहले जानकारी के लिए बता देते हैं कि नामीबिया से 8 चीतों को आज ही भारत लाया गया है, जिनमें 5 मादा और 3 नर चीते शामिल हैं। इन्हें एक खास चार्टर प्लेन से ग्वालियर लाया गया है। इसके बाद इन्हें एक हेलीकॉप्टर के जरिए कूनो नेशनल पार्क में छोड़ दिया जाएगा।

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यूपीए सरकार लेकर आई थी 'प्रोजेक्ट चीता'

वैसे तो हर क्षण को ग्लोबल इवेंट बनाने में ना तो पीएम मोदी पीछे रहते हैं और ना ही उनकी सरकार, फिर भला इस जन्मदिन को कैसे खास ना बनाएं? यही वजह है कि जिस 'प्रोजेक्ट चीता' की आड़ में खुद को शेर बतलाने की कोशिश मोदी सरकार कर रही है उस प्रोजेक्ट की हकीकत कम लोगों को ही पता है। बेहद ही कम लोग ये जानते हैं कि जिस 'प्रोजेक्ट चीता' को लेकर सरकार वाहवाही लूट रही है, उस कोशिश को साल 2009 में यूपीए की सरकार के दौरान 'जिंदा' किया गया था।

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यूपीए सरकार में हुई चीतों को बाहर से भारत लाने की कोशिश

साल 1970 के बाद चीतों को देश में लाने की कोशिशें साल 2008-2009 में हुई। प्रोजेक्ट चीता' का प्रस्ताव उसी दौरान तैयार हुआ था। उस दौरान भारत में यूपीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री, डॉ. मनमोहन सिंह थे। मनमोहन सिंह की सरकार ने ही इसे मंजूरी दी। मंत्रालय ने वन्यजीव विशेषज्ञ एम.के. रंजीत सिंह, एक अमेरिकी आनुवंशिकी विज्ञानी स्टीफेन ओ ब्रायन और सीसीएफ के लारी मार्कर से विचार-विमर्श करने के बाद 2010 में नामीबिया से 18 चीतों को मंगाने का प्रस्ताव किया था। उसी साल तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश अफ्रीका के चीता आउट रीच सेंटर भी गए थे। चीतों को भारत लाने की पूरी तैयारी थी।

साल 2010 और 2012 के बीच दस स्थलों का सर्वेक्षण किया गया था। मध्य प्रदेश में कूनो राष्ट्रीय उद्यान नए चीतों को लाकर रखने लिए तैयार माना गया, क्योंकि इस संरक्षित क्षेत्र में एशियाई शेरों को लाने के लिए भी काफी काम किया गया था। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 300 करोड़ रु. खर्च कर चीतों को बसाने की योजना को औपचारिक रूप दे दिया था, लेकिन साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी और करीब 7 साल बाद साल 2020 में कोर्ट ने इस रोक को हटाया।

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भारत में चीतों को लाने और गिरती संख्या का इतिहास

कहा जाता है कि 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय चीतों की आबादी गिरकर सैंकड़ों में रह गई और राजकुमारों ने अफ्रीकी जानवरों को आयात करना शुरू कर दिया। 1918 से 1945 के बीच लगभग 200 चीते आयात किए गए थे। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद भारतीय चीतों की संख्या कम होने के साथ-साथ इन्हें किए जाने वाले शिकार का चलन भी लगभग खत्म हो गया।

पंडित नेहरू की सरकार ने चीतों को सुरक्षा देने की प्राथमिकता दी

साल 1952 में स्वतंत्र भारत में वन्यजीव बोर्ड की पहली बैठक में जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मध्य भारत में चीतों की सुरक्षा को विशेष प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए इनके संरक्षण के लिए साहसिक प्रयोगों का सुझाव दिया था। इसके बाद, साल 1970 के दशक में जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी उस दौरान एशियाई शेरों के बदले में एशियाई चीतों को भारत लाने के लिए ईरान के शाह के साथ बातचीत शुरू की हई। ईरान में एशियाई चीतों की कम आबादी और अफ्रीकी चीतों के साथ इनकी अनुवांशिक समानता को ध्यान में रखते हुए भारत में अफ्रीकी चीते लाने का फैसला किया गया।

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मुगल बादशाह अकबर के पास थे 1000 चीते

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के पूर्व उपाध्यक्ष दिव्य भानु सिंह की किताब 'द एंड ऑफ ए ट्रेल-द चीता इन इंडिया' की मानें तो साल 1556 से 1605 तक शासन करने वाले मुगल बादशाह अकबर के पास करीब 1,000 चीते थे। अकबर इन चीतों का इस्तेमाल काले हिरण और चिकारे के शिकार के लिए किया करता था। पुस्तक में बताया गया है कि अकबर के बेटे जहांगीर ने पाला के परगना में चीते के जरिये 400 से अधिक मृग पकड़े थे। शिकार के लिए चीतों को पकड़ने और कैद में रखने के कारण प्रजनन में आने वाली दिक्कतों के चलते इनकी आबादी में गिरावट आई। किताब में ये भी कहा गया है कि भारत में चीतों को पकड़ने में अंग्रेजों की बहुत कम दिलचस्पी थी, हालांकि वे कभी-कभी ऐसा किया करते थे।

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1947 में देश में अंतिम तीन चीतों का शिकार किया गया था

चीता एकमात्र बड़ा मांसाहारी पशु है, जो भारत में पूरी तरह विलुप्त हो चुका है। इसकी कई वजहें बताई जाती हैं, लेकिन मुख्य वजह की बात करें तो शिकार और रहने का ठिकाना ना होना है। माना जाता है कि सन् 1947 में सरगुजा, (अब छत्तीसगढ़ में) के महाराजा ने भारत के आखिरी तीन एशियाई चीतों को मार डाला था। साल 1952 में भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से देश से चीतों के विलुप्त होने की घोषणा की थी। एक समय ऊंचे पर्वतीय इलाकों, तटीय क्षेत्रों और पूर्वोत्तर को छोड़कर पूरे देश में चीतों के गुर्राने की गूंज सुनाई दिया करती थी।

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