उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले की घोरावल तहसील के उम्भागांव में मरघट सा सन्नाटा है। उम्भा में 17 जुलाई को 10 आदिवासियों की हत्या और करीब 28 लोगों का घायल होना महज आपराधिक घटना नहीं है, यह आजादी के बाद से ही सोनभद्र-मिर्जापुर के आदिवासी ग्रामीणों को उनके जंगल, उनकी जमीन से बेदखल किए जाने की कवायद और उसके लिए की जा रही हिंसा, शोषण और उत्पीड़न की एक बानगी भी है।
इस नरसंहार का दुखद पक्ष केंद्र और यूपी में सत्ता संभालने वाली पार्टी के नेताओं का भी है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी मौके पर पहुंचकर पीड़ितों के आंसू पोछना चाहती थीं लेकिन पूरी सरकार इसे विफल करने में लगी रही। प्रियंका वहां पहुंचने में भले असफल रहीं, उन्होंने इस मुद्दे को देश का मुद्दा तो बना ही दिया। योगी आदित्यनाथ को तब समझ में आया कि घटनास्थल तक जाना जरूरी है। हां, योगी ने राजनीतिक चश्मे से पूरे मामले को देखने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। तब भी जबकि सच यह है कि यूपी में 1989 के बाद से ही बीजेपी, एसपी और बीएसपी का ही शासन रहा है।
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घोरावल तहसील कभी बड़हर राजघराने का हिस्सा थी। उम्भा की जिस जमीन के लिए नरसंहार हुआ, वह राजा साहब आनंद ब्रह्म शाह की हुआ करती थी। आजादी से पहले, यानी 1940 के आसपास भी आदिवासी ही इस जमीन पर जोत-कोड़ करते थे। जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बाद इस जमीन को राजस्व अभिलेखों में बंजर घोषित करके इसे ग्राम सभा की संपत्ति के रूप में दर्ज कर दिया गया। लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के शक्तिशाली नेता और भू-माफिया महेश्वरी प्रसाद नारायण सिन्हा ने 17 दिसंबर, 1955 को तत्कालीन तहसीलदार की मिलीभगत से कुल 639 बीघा जमीन सोसाइटी के नाम करा ली, जबकि यह नियम विरुद्ध था।
बाद में भूमिहारों के बड़े नेता महेश्वरी प्रसाद ने अपने आईएएस दामाद प्रभात कुमार मिश्र के प्रभाव से सोसाइटी की 37.022 हेक्टेयर यानी करीब 148 बीघा जमीन अपनी बेटी आशा मिश्र यानी प्रभात कुमार मिश्र की पत्नी के नाम करा दी। इसी जमीन को बाद में आशा मिश्र की बेटी विनीता शर्मा उर्फ किरन और उनके आईएएस पति भागलपुर निवासी भानु प्रसाद शर्मा के नाम करा दिया गया। भानु प्रताप शर्मा इन दिनों मोदी सरकार में वरिष्ठ पद पर हैं।
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इधर जमीन का बार-बार हस्तांतरण हो रहा था, उधर जोताई-बोआई करते और जमीन में होने वाली उपज के लिए आदिवासियों से लगान की वसूली होती रही। ताजा विवाद की नींव उस रोज पड़ी जब 17 अक्टूबर, 2017 को किरन ने जमीन को गांव के प्रधान यज्ञदत्त भूर्तिया को बेच दिया। इसका ग्रामीणों ने विरोध किया लेकिन प्रशासन ने उनकी नहीं सुनी। 27 फरवरी, 2019 को जमीन की दाखिल खारिज हो गई। योगी सरकार ने पूरे मामले की जांच के आदेश दिए हैं, पर यह आश्चर्यजनक ही है कि पहली बार किए गए लैंड डील के मूल दस्तावेज ही ‘गायब’ हो गए हैं- ये खोजे नहीं मिल रहे। खैर।
इस बार जमीन हासिल करने वाला ग्राम प्रधान भूर्तिया जमीन खाली कराने के लिए आदिवासियों पर जोर-जबरदस्ती करता रहा। इसकी शिकायत आदिवासियों ने तहसील दिवस पर की भी थी, लेकिन सुनवाई नहीं हुई। 17 जुलाई को दोपहर करीब दो बजे यज्ञदत्त भूर्तिया जमीन पर कब्जा करने के लिए 32 ट्रैक्टर ट्रॉलियों में लगभग 300 लोगों को लेकर उम्भा पहुंचा। बारिश हुई थी, सो आदिवासी जमीन की जुताई में लगे थे। यज्ञदत्त ने पहले आदिवासियों से जमीन खाली करने को कहा। जब उन्होंने इनकार किया तो उसके लोगों ने आदिवासियों पर फायरिंग शुरू कर दी। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि गोलियों से जमीन पर गिरे लोगों को भी वे लाठियों से पीट- पीटकर मार रहे थे।
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इस रिपोर्ट को फाइल करने तक पुलिस 27 लोगों को गिरफ्तार कर चुकी थी लेकिन महेश्वर प्रसाद नारायण सिन्हा के आईएएस रिश्तेदारों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जा रही है, इस पर कोई बात नहीं कर रहा। सोनभद्र के आदिवासियों के बीच काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी चिंतक नरेंद्र नीरव सही ही कहते हैं कि प्रशासन ने पहले ही आदिवासियों की बातें सुनी होती, तो यह घटना नहीं होती।
आखिर, आदिवासी स्वभाव से सरल और कानून के प्रति आदर भाव रखते हैं। वैसे, आदिवासी हैरान हैं कि जंगल में रहने वाले लोग जंगल में ही रहने वालों पर इतने निर्मम कैसे हो सकते हैं? दरअसल, जिन्होंने इन आदिवासियों को मारा, वे भरौतिया जाति के हैं। सोनभद्र में भरौतिया रेणुका नदी पार के गांवों- सुदूरवर्ती सागरदह, निदहरी, निदहरा में रहते हैं। वे कठिन परिश्रमी, खेती, पशुपालन पर निर्भर हैं। सैकड़ों साल पहले वे पश्चिम-उत्तर से आकर यहां बस गए।
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दरअसल, यहां भी आदिवासियों की वही कथा है जो विकास से आक्रांत देश भर के आदिवासियों की है। इसकी पटकथा भी समान ही है। यह सोनभद्र के औद्योगिक विकास के साथ उन लोगों ने रची जो किसी बहाने यहां पहुंचे और इन लोगों को बेदखल कर दिया। चकवड़ की घास और महुआ के फूलरस से गुजारा करने वाली यहां की आदिवासी आबादी को न किसी से रंज था, न किसी से शिकायत। किंतु जैसे ही विकास के फौलादी पांव ने यहां कदम रखे, प्रकृति का समूचा सौंदर्य संकटमें आ गया। साथ ही उनका भी वजूद हिल गया जो पुश्तदर पुश्त यहां के बेशुमार जंगल और पहाड़ों की निःस्वार्थ रखवाली कर रहे थे।
यहीं से आरंभ होती है सोनभद्र के आदिवासी गिरिजनों के हक-हकूक की लड़ाई। विकास के साथ यहां के आदिवासियों को दो अलग-अलग मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ी। एक, सरकार ने विकास के नाम पर उनकी जमीनें लीं। वाजिब मुआवजा और सरकारी नौकरी का वादा किया। वे सरकार से अब भी अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। दो, इनकी लड़ाई उन लोगों से अब भी जारी है जो विकास के बहाने सोनभद्र पहुंचे और इनकी जमीनों पर किसी-न-किसी तरह काबिज होने की जुगत में लगे रहे हैं।
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1962 में रिहंद बांध और 1967 में ओबरा थर्मल प्लांट बनने के बाद से सोनभद्र का आदिवासी बार-बार विस्थापित हुआ है- कभी बिजलीघरों और कभी एल्यूमिनियम कारखाने के नाम पर, तो अब लाईमस्टोन, डोलोमाइट और बालू की माइनिंग के नाम पर। ढाई-तीन दशकों की यात्रा में यह इलाका नया औद्योगिक जिला बन गया, पर आदिवासी जहां-के-तहां। लगभग लुटे-लुटे। हाल के एक-डेढ़दशक में उभरे क्रशर उद्योग के कारोबार ने आदिवासियों की बची-खुची जमीन भी निगल ली। इस कारोबार की अनुमति सरकार देती है, सो उसे निर्दोष नहीं कहा जा सकता। इस कारोबार में नेता, मंत्री, अफसर और मोटे व्यापारी, रंगबाज तथा माफिया लगे हैं। इनमें ऐसा कोई नहीं हैं जिनके पास क्रशर का धंधा नहीं है। पुलिस, राजस्व का जो भी अधिकारी सोनभद्र से स्थानांतरित होकर जाता है, वह किसी-न-किसी खदान में पार्टनर बन जाता है। यही कारण है कि इधर की जमीनों को लेकर अक्सर विवाद छिड़ा रहता है।
सोनभद्र के राम दिसावर मानते हैं कि जंगल के जमीन विवाद के अनेक मामले हैं जिन्हें लेकर खून-खराबा हो चुका है। कुछ साल पहले डाला के पास इसी तरह के विवाद में कई लोग जख्मी हो गए थे। जलपराश, बाजाडीह तथा मारकुंडी चोपन में भी विवाद की कई घटनाओं ने जन्म लिया है।
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सोनभद्र में 1986 से सर्वे शुरू हुआ था। सर्वे बंदोबस्त का नतीजा रहा कि सोनभद्र की लगभग 11 लाख हेक्टेयर जमीन में से वन और वनवासियों की लगभग एक लाख हेक्टेयर जमीन गुम हो गई। यह जमीन कहां गई, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सर्वे प्रक्रिया के तहत जंगल-जमीन की बाड़ेबंदी करनी थी, साथ ही प्रस्तावित जंगल में आदिवासियों के दावों की पुष्टि करके उनको उस पर मालिकाना हक देना था। लेकिन हुआ यह कि लोगों ने छल-कपट से सर्वे एजेंसी के सामने आदिवासियों को खड़ा करके बयान दिलवा डाला कि यह जमीन हमारी नहीं, उनकी है। ऐसा ही घोरावल के उम्भा में हुआ।
आदिवासियों की बेदखली केवल जमीन से नहीं की गई बल्कि आजादी के बाद के 65 वर्षों तक उन्हें जनजातियों की मान्यता भी नहीं दी गई। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि गोड़ समेत कई अन्य जातियों को 2012 में जनजातियों की मान्यता तो दी गई मगर निर्वाचन आयोग ने जनजातियों के लिए विधानसभा में सीटों का आरक्षण नहीं किया। नतीजा यह निकला कि आदिवासी केवल वोटर बनकर रह गए- वह न तो चुनाव में खड़े हो पाए और न ही उनकी सरकार में कोई भागीदारी बन पाई।
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इसी बीच, 2012 में घोरावल विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया जिसके अंतर्गत उम्भा गांव आता है। उम्भा के साथ-साथ समूचे जिले में आदिवासियों के दावों का कोई नतीजा नहीं निकला। केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि मार्च, 2019 तक यूपी में वनाधिकार पट्टों के लगभग 92 हजार दावे आए जिनमें से लगभग 17 हजार दावों को ही पट्टे दिए गए यानिr कि 80 फीसदी से ज्यादा दावे निरस्त कर दिए गए। महत्वपूर्ण है कि इनमें से सर्वाधिक दावे सोनभद्र से ही थे। जिन लोगों ने 10 बीघे का दावा किया, उन्हें 10 बिस्वा जमीन भी नहीं मिली, 1-2बिस्सा जमीन देकर शेष जमीन वन विभाग में निहित हो गई। उसे छोड़ने के लिए आज आदिवासियों को विवश किया जा रहा है।
कनहर नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े महेशानंद कहते हैं कि जल, जंगल, जमीन, खनिज के लूट के खिलाफ तथा अपने जीवन- जीविका-अस्तित्व की रक्षा के लिए चलने वाले तमाम जन संघर्ष हमेशा जमीन की लूट के सवाल को उठाते रहे हैं। लेकिन इसके अलावा समय-समय पर सरकार द्वारा गठित आयोग, कमेटियां, जांच कमेटियां तथा सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी यह कहते रहे हैं कि भूमि कानून की अवहेलना करते हुए या इसका दुरुपयोग करते हुए बड़े खिलाड़ियों के हित में किसानों की भूमि का बलात हरण किया जाता है
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