महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का हिस्सा है, “श्वानों को मिलता दूध भात, भूखे बच्चे अकुलाते हैं”। पर, अब हालात बदल गए हैं। अब बर्बादी के कारण बच्चों को दूध नहीं मिलता है। द गार्डियन के लिए एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में जितना दूध का उत्पादन होता है उसका छठा भाग बेकार या बर्बाद हो जाता है और इसका कोई उपयोग नहीं होता। अध्ययन के अनुसार दुनिया में दूध उत्पादन का 16 प्रतिशत हिस्सा, यानि 11.6 करोड़ टन, प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाता है। पहले दूध की नदियां समृद्धि का सूचक था, पर अब यह बर्बादी का प्रतीक बन चुका है।
ग्लोबल अकैडमी ऑफ एग्रीकल्चर एंड फ़ूड सिक्यूरिटी में विशेषज्ञ प्रोफेसर पीटर एलेग्जेंडर के अनुसार कुल बर्बादी में से आधी से अधिक, यानि 6 करोड़ टन, खुदरा विक्रेता, वितरक और उपभोक्ता के स्तर पर होती है। शेष 5.6 करोड़ टन की बर्बादी बिक्री तक पहुंचने के पहले ही उत्पादन और वितरण के दौरान, हो जाती है।
अनेक विशेषज्ञों के अनुसार तो 16 प्रतिशत बर्बादी का आंकड़ा तो बहुत कम है, इनके अनुसार कम से कम 30 प्रतिशत दूध बर्बाद हो जाता है। विकसित देशों में बर्बादी कम होती है, जबकि विकासशील और अल्प-विकसित देशों में इसकी मात्रा बहुत अधिक है। स्वीडेन में उत्पादन के दौरान दूध की बर्बादी बिलकुल नहीं होती जबकि ओमान में इस दौरान 15 प्रतिशत से अधिक दूध की बर्बादी होती है। ब्रिटेन की कचरे को कम करने वाली सरकारी संस्था, रैप, के अनुसार ब्रिटेन के कुल कचरे में से लगभग पांचवां हिस्सा डेरी उत्पादों का होता है।
दूध के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक तरफ तो दुनिया भर में इसका उत्पादन बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसकी मांग घट रही है। जिन क्षेत्रों में इसकी मांग घट रही है उनमें एशिया का नाम प्रमुख है। अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के अनुसार 2014 से 2018 के बीच दुनिया में दूध उत्पादन में 6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है। सर्वाधिक वृद्धि वाले देशों में भारत, कनाडा, आयरलैंड और नीदरलैंड प्रमुख हैं।
भारत दूध उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया में पहले स्थान पर है। साल 2017-2018 में यहां 17.64 करोड़ टन दूध का उत्पादन किया गया था, जो 2016-2017 की तुलना में 6.6 प्रतिशत अधिक है। 1960 के दशत तक यहां महज 2 करोड़ टन दूध का उत्पादन किया जाता था, जबकि 2021-2022 तक इसके 25.45 करोड़ टन तक पहुंचने की संभावना है। साल 2013-2014 तक प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 307 ग्राम दूध उपलब्ध था जबकि 2016-2017 तक यह 351 ग्राम तक पहुंच गया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि हमारे देश में दुग्ध उत्पादन में तेजी दुनिया की औसत तेजी से भी अधिक है।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार जानवरों को दूध पिलाना और लोगों द्वारा आवश्यकता से अधिक दूध की खपत करना भी इसकी बर्बादी है। दूध में जानवरों के अनुसार पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं होते, जबकि इसकी अधिक खपत से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता है। दुनिया भर में लगभग 8.2 करोड़ टन दूध जानवरों को पिलाने के काम आता है, जबकि लगभग 5.3 करोड़ टन दूध आवश्यकता से अधिक उपभोग किया जाता है।
दूध की बर्बादी के आंकड़ों को जुटाने वाले वैज्ञानिकों ने संभवतः हमारे देश में दूध के उपयोग की तरफ बारीकी से ध्यान नहीं दिया है। हमारे देश में लाखों लीटर दूध तो हरेक दिन मंदिरों में उड़ेल दिया जाता है। इसका आकलन इस रिपोर्ट में नहीं है। हो सकता है, कुछ लोगों को बुरा लगे, पर क्या इसे दूध की बर्बादी नहीं कहेंगे? दूध उड़ेलने के बाद इसका अधिकांश हिस्सा नालियों से होते हुए नदियों तक पहुंच जाता है, और उन्हें भी प्रदूषित करता है।
दूध से जुड़ी देश में समस्या इसके दाम की भी है। अर्थशास्त्र के अनुसार उत्पादन बढ़ने पर दाम घटा है, लेकिन यहां बाजार में दूध सस्ता नहीं होता और ना ही दूध उत्पादकों को इसका उचित मूल्य मिलता है। इस पूरे सौदे में बिचौलिए खूब कमाते हैं, तभी परेशान दूध उत्पादक कभी-कभी दूध का सडकों पर बहा देते हैं। ये सारी समस्याएं तो दिखती हैं, लेकिन एक गंभीर समस्या यह भी है कि दूध उत्पादन बढ़ाने के नाम पर सरकारी तंत्र विदेशी नस्लों की स्थानीय नस्लों से क्रॉस-ब्रीडिंग पर इतना जोर दे रहा है कि स्थानीय नस्लें ही विलुप्त होने लगी हैं। विदेशी नस्लों की देखरेख विशेष तरीके से करनी पड़ती है, इसीलिए अब छोटे दूध उत्पादक लगभग गायब हो रहे हैं और इनके स्थान पर बड़ी डेरी आ रही हैं।
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