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क्या आंदोलनों को निगल जाएगी सांप्रदायिकता? शाहीन बाग है रोशनी की किरण

बीते करीब ढाई महीने से शाहीन बाग की यही तस्वीर दुनिया के सामने आई है। और नाउम्मीदी के बीच जलती उम्मीद की शमा लिए विरोध प्रदर्शन करने वालों को आस थी कि सरकार किसी को तो भेजेगी जो आके उनकी बात सुनेगा और उनके मुद्दों को सरकार के सामने रखेगा।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

दिल्ली के शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन के दौरान लगाया गया भारत का बड़ा सा मानचित्र प्रदर्शन में आने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा। जो भी शाहीन बाग आता इस मानचित्र के सामने या साथ में सेल्फी जरूर लेता। अस्थाई टैंट में चल रहे शाहीन बाग के प्रदर्शन से विरोध के एक नए स्वरूप को सामने रखा। बस स्टैंड पर बनी लाइब्रेरी, सड़क किनारे बैठे पेंटिंग सीखते या कोर्स की किताबें पढ़ते बच्चे, सड़कों पर दीवारों पर बनी ग्रैफिटी, लहराता तिरंगा। जो भी इस प्रदर्शन में आता मुग्ध हो जाता। हर किसी को अपनी बात रखने की छूट थी, और सभी स्पीकर ने विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों के प्रति अपने समर्थन का ऐलान किया। मजबूत इरादे से जमी महिलाएं कड़ाके की सर्दी, सर्द मौसम की बरसात और गाहे-बगाहे हुए बवाल के बीच कोई भी कुर्बानी देने के लिए जमी रही। इरादा सिर्फ एक ही था और है कि संविधान के बुनियादी मूल्यों की रक्षा करना है।

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बीते करीब ढाई महीने से शाहीन बाग की यही तस्वीर दुनिया के सामने आई है। और नाउम्मीदी के बीच जलती उम्मीद की शमा लिए विरोध प्रदर्शन करने वालों को आस थी कि सरकार किसी को तो भेजेगी जो आके उनकी बात सुनेगा और उनके मुद्दों को सरकार के सामने रखेगा। लेकिन न सरकार का कोई नुमाइंदा आया और न ही सरकार का कोई बयान। लेकिन उम्मीद और हिम्मत अभी नहीं टूटी है शाहीन बाग की, अब भी महिलाएं धरने पर हैं, अब भी स्पीकर आते हैं और अपनी बात रखते हैं, अब भी लोग वहां आते हैं, भारत का नक्शा अब भी पूरी शान से जगमगा रहा है। हां, आने-जाने वाले लोगों की संख्या में कुछ कमी जरूर आई है।

दरअसल विरोध किसी भी लोकतंत्र की जीवनरेखा है। एक वक्ता था जब विरोध प्रदर्शन और रैलियां सरकार को हिला देते थे। इसी दिल्ली में ही बीजेपी कि तिकड़ी, मदन लाल खुराना, विजय कुमार मल्होत्रा और केदार नाथ साहनी विपक्ष का वह तेहरा थे जो विरोध प्रदर्शनों के लिए जाने जाते थे। एक वक्त तो ऐसा भी आया जब इन्होंने हर सोमवार को या तो दिल्ली बंद या फिर भारत बंद का आह्वान किया।

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वह वक्त भी था जब वामदल देश भर से मजदूरों कामगारों को जमा करते और सरकार की नीतियों का विरोध करते। और तब की केंद्र सरकारें भी न सिर्फ इन विरोध प्रदर्शनों को गंभीरता से लेतीं, बल्कि उठाए गए मुद्दों को हल करने की भी कोशिश करती थीं।

हां, यह बात भी सही है कि प्रोटेस्ट कल्चर यानी विरोध की संस्कृति धीरे-धीरे दम तोड़ने लगी थी, लेकिन 2013 में अन्ना हज़ारे, केजरीवाल और रामदेव ने एकसाथ मिलकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले इसी दिल्ली में सरकार के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन किया। तत्कालीन सरकार ने बुनियादी परंपरा का निर्वहन करते हुए प्रदर्शनकारियों से बात भी की और उनके मुद्दे गौर से सुने। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार के सीनियरमोस्ट मंत्री प्रणब मुखर्जी को प्रदर्शनकारियों से बात करने के लिए भेजा।

फिर 2014 आ गया, और सबकुछ बदल गया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने केंद्र में स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बना ली। इतिहास में यह पहला मौका था जब लोकसभा में कांग्रेस के 50 सांसद भी नहीं पहुंच पाए। संख्या गणित ने सरकार और राजनीति का पूरा संतुलन ही बदल कर रख दिया। मोदी ने पहले दिन से ही खुद को सुप्रीम लीडर के तौर पर सामने रखना शुरु कर दिया। भीतरी कलह और मतभेदों के बावजूद मोदी सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर मनमानी पर उतर आई।

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मोदी सरकार ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिनका खामियाजा कई दशकों तक देश को भुगतना पड़ेगा। ऐसा ही एक फैसला था 16 नवंबर 2016 को हुई नोटबंदी का। राष्ट्रवाद के नाम पर देश का आम आदमी बैंकों की कतारों में लग गया, क्योंकि मोदी ने राष्ट्रवाद की घुट्टी मिलाकर ऐलान किया था कि नोटबंदी आंतकवाद को जड़ से खत्म करने की दवा है। लोगों को समझा दिया गया कि यह बलिदान देश के नाम है, कैशलेस अर्थव्यवस्था से आतंकवाद का नासूर सदा के नष्ट हो जाएगा।

लेकिन, आंतकवाद खत्म होना तो दूर इसने पहले से भी तेजी से अपना फन उठाया और पुलवामा में हमारे करीब 50 फौजियों को शहीद कर दिया। वक्त 2019 के ऐन लोकसभा चुनाव से पहले का था, और नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रवाद की घुट्टी एक बार फिर देश को पिलाई और बालाकोट एयरस्ट्राइक के नाम पर 2014 से भी ज्यादा सीटें हासिल कर फिर से सत्ता हासिल कर ली।

जहां पहले पांच साल के दौरान राष्ट्रवाद को जहनों में बोने का काम किया गया, तो 2019 में गद्दी पर बैठते ही इसकी फसल काटने की मनमानी शुरु कर दी गई। इस बार एक बात और हुई कि 2014 में मोदी की जीत में चाणक्य की भूमिका निभाने वाले अमित शाह के हाथों देश की आंतरिक सुरक्षा दे दी गयी, उन्हें गृह मंत्री बना दिया गया। संदेश साफ था, अमित शाह के कंधे पर बंदूक रखकर मोदी अपना एजेंडा देश पर थोपेंगे। और हुआ भी यही। अमित शाह ने बिना वक्त गंवाए तीन तलाक बिल पास कराया, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म किया और देश की सांस हलक में अटकाने वाला नागरिकता संशोधन कानून पास करा दिया। और, ये सबकुछ राष्ट्रवाद और ‘भारत माता’ के नाम पर किया गया।

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इस दौरान राष्ट्रवादी एजेंडे पर अहंकार के मद में चूर बीजेपी सरकार चलाने के बुनियादी उसूलों को रौंदती हुई आगे बढ़ रही थी। असहमति की आवाज़ों को खामोश करने का अनवरत सिलसिला शुरु हो चुका था। नोटबंदी के दंश से बेहोश हुई अर्थव्यवस्था औंधे मुंह पड़ी थी, बेरोजगारी अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। ऐसे में जब नागरिकता संशोधन कानून और इसकी क्रोनोलॉजी में एनआरसी का प्रस्ताव सामने आया तो पहले त्राहिमाम करते नागरिकों का धैर्य जवाब दे गया। लोगों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और सड़क पर उतर आए। सरकार की मनमानी की पर्ते खोलने का काम किया युवाओं, छात्रों और महिलाओं ने। लेकिन फासीवादी मानसकिता ने जामिया को निशाना बना लिया। छत्रों को बेरहमी से पीटा गया, जिसकी प्रतिक्रिया में शाहीन बाग का जन्म हुआ।

देखते-देखते शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन और असहमति की आवाजों का प्रतीक बन गया। देश के कई राज्यों और शहरों के साथ ही विदेशों में भी शाहीन बाग की तर्ज पर मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन कानून का विरोध शुरु हो गया। विश्व बिरादरी ने भी इसे नोटिस किया। कई देशों ने इस कानून की आलोचना की। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इसे फासीवादी कानून करार दिया।

शाहीन बाग में महिलाएं थी, देशभक्ति के गीत थे, भारत माता की जय के नारे थे, संविधान की प्रस्तावना थी और लहराते तिरंगे की छांव में मजबूत इरादे थे कि सरकार हिलेगी, हिलेगी नहीं तो कम से कम सुनेगी तो जरूर। लेकिन गुरुर में मदहोश और राष्ट्रवाद की पताका लहराती सरकार को न तो विरोध के स्वर सुनाई दिए और न ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती देश की बदनामी नजर आई।

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शाहीन बाग ने खत्म होते प्रोटेस्ट कल्चर यानी विरोध की संस्कृति के जिंदा होने का ऐहसास कराया। शाहीन बाग ने उम्मीद जगाई कि लोकतंत्र की मजबूती कायम है, लेकिन दक्षिणपंथी ताकतों की तो मंशा ही कुछ और थी। उन्होंने विरोध प्रदर्शन करने वालों को एंटी नेशनल यानी देश विरोधी ठहराना शुरु कर दिया। उनकी मंशा साफ थी कि प्रदर्शन करने वालों को थका दिया जाए, डरा दिया जाए। उन्होंने हर हथकंडा अपनाया, और जब हर हथकंडा प्रदर्शनकारियों के हौसते पस्त करने की कोशिश में खुद ही पस्त हो गया, तो फिर इन ताकतों ने अपना सबसे खतरनाक और जहरीला हथियार इस्तेमाल किया, जिसका नाम है सांप्रदायिकता और इससे पनपी हिंसा।

विरोध प्रदर्शन को सांप्रदायिक जामा पहनाकर 22 फरवरी की रात राजधानी के उत्तर पूर्वी इलाके में आग भड़का दी गई। दिल्ली जलने लगी, लोग मारे जाने लगे, मकानों को

दुकानों को फूंका जाने लगा। और केंद्र की मोदी सरकार और आंदोलन से जन्मी दिल्ली की केजरीवाल सरकार मूकदर्शक बनी दिल्ली के सामाजिक ताने बाने को ध्वस्त होते देखती रही।

अपनों प्रियों का अंतिम संस्कार कर अब उत्तर पूर्वी दिल्ली के लोग सांप्रदायिक हिंसा की आग में बची-खुची जिंदगी तलाश रहे हैं। सिविल सोसायटी और सामाजिक संगठन लोगों की मदद में जुटे हैं। जीवन के पटरी पर लौटने में वक्त लगेगा, लेकिन जो घाव अहंकार में डूबी सरकार ने संवादहीनता से पैदा किया है, वह कहीं ज्यादा तकलीफदेह है। यह लोकतंत्र की धीमी लेकिन अवश्यंभावी मौत है।

शाहीन बाग ने जो उम्मीद जगाई है, उसे राष्ट्रवादी की चाशनी में डूबी सांप्रदायिकता ने निगलने की कोशिश की है, लेकिन उम्मीद तो बाकी है।

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