वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा राहत पैकेज की दूसरी किस्त में लोगों को कहीं ज्यादा उम्मीदें थे। लेकिन अफसोस, उन्होंने अपने धारावाहिक के दूसरे एपिसोड में भी भारत को उसके हाल पर छोड़ दिया। और जैसा कि पीएम कह ही चुके हैं, हर भारतीय को आत्मनिर्मभर होना है। वैसे वित्त मंत्री को इस कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज को देश के सामने रखने में कितनी मुश्किल हो रही होगी यह गुरुवार को उनकी प्रेस कांफ्रेंस में भी साफ झलक रहा था।
दो दिन पहले जब पीएम ने देश को संबोधित करते हुए 20 लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान किया था तो उम्मीद बंधी थी कि लोगों की मुश्किलें और मुसीबतें खत्म होने वाली हैं। लेकिन वित्त मंत्रालय की दो प्रेस कांफ्रेंस के बाद एहसास हो गया है कि सरकार हद से हद आपको मिलने वाले कर्ज की गारंटी भर ले सकती है और इससे ज्यादा कुछ नहीं। और आपको कर्ज तो चुकाना ही होगा, जबकि आने वाला वक्त भयंकर अनिश्चितताओं वाला है।
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आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों के लिए अगले दो महीने तक मुफ्त राशन देने के नाम पर 3500 करोड़ का हिसाब आज वित्त मंत्री ने सामने रख दिया। लेकिन यह काम तो लॉकडाउन लागू होने के पहले दिन ही करना था। लॉकडाउन के 50वें दिन हुई यह घोषणा एक माफीनामे जैसी लगती है। सरकार को या तो इन मजदूरों की मौजूदगी का ऐहसास नहीं है या फिर वह पूरी तरह इनकी अनदेखा कर चुकी है। क्या बीते दो महीनों से बेशुमार परेशानियों से दो चार हुए इन लोगों के बारे में परवाह नहीं कर सकती थी।
गुरुवार को प्रेस कांफ्रेंस में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इन मजदूरों को लेकर परेशान तो दिखीं। लेकिन समस्या यह है कि उन्होंने मोटे तौर पर भारत को उसके हाल पर ही छोड़ दिया है। सरकार ने ऐसा कोई भी ऐलान नहीं किया जिससे किसी को आने वाले समय में कोई राहत मिलने वाली हो।
ऐसा लगता है कि सरकार अभी तक इस संकट की भयावहता और लोगों की जरूरत का अनुमान ही नहीं लगा पाई है। सीएमआईई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश की एक तिहाई आबादी एक सप्ताह के अंदर बेहद मुश्किलों का सामना करने वाली है। लेकिन न तो प्रधानमंत्री और न ही वित्त मंत्री को इसकी परवाह है कि देश की करीब एक चौथाई कामकाजी आबादी बीते दो महीने से बेरोजगार हो चुकी है और उनके पास जो भी मामूली जमा पूंजी या संसाधन थे वह अब खर्च हो चुके हैं। ऐसे में पूरा देश पीएम की तरफ उम्मीद से देख रहा था कि शायद कोई फौरी राहत उन्हें मिलेगी, लेकिन ऐसा हो न सका।
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वित्त मंत्री की प्रेस कांफ्रेंस में अगर कोई अच्छी बात गुरुवार को दिखी तो वह सिर्फ यह कि सरकार ने राशन कार्ड की पोर्टेबिलिटी लागू कर दी है यानी एक ही राशन कार्ड पूरे देश में चल जाएगा। यह एक अच्छा कदम है, लेकिन अगर इसे पहले ही तय कर दिया जाता तो इतनी बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर पैदल अपने घरों के लिए नहीं निकल पड़े होते। लॉकडाउन के दो महीने बाद यह कदम ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है।
वित्त मंत्री ने यह ऐलान तो कर दिया, लेकिन अपने खजाने में निगाह शायद उन्होंने नहीं डाली। सरकार का मजदूरों के लिए यह कदम भी सिर्फ राज्यों के आपदा राहत कोष के इस्तेमाल तक ही सीमित रहा जो कि प्रवासी मजदूरों के लिए शेल्टर मुहैया कराने में काम काम आएगा। सरकार ने इस मद में राज्यों के 11,002 करोड़ का एडवांस जारी किया है। लेकिन देश भर में कितने राहत कैंप चल रहे हैं और वहीं क्या सुविधाएं दी जारही हैं इसका डेटा सरकार के पास नहीं है।
इसी दौरान वित्त मंत्री दिहाड़ी मजदूरी 182 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 202 रुपए प्रतिदिन करने का ऐलान किया, और मीडिया बता रहा है कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश मजदूरों को रोजगार मुहैया करा रहे हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि सभी औद्योगिक गतिविधिययां ठप पड़ी हैं और वहां कोई नौकरियां नहीं हैं, साथ ही राज् के पास पैसा भी नहीं है।
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एक और चिंता की बात है कि सरकार इन प्रवासी मजदूरों को यातायात के साधन मुहैया नहीं करा पा रही है। पहले तो सरकार ने माना कि देश में करीब 8 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं और फिर बताया कि करीब 10 लाख मजजूरों को 806 विशेष ट्रेनों से उनके घर पहुंचाया गया है। लेकिन यह संख्या तो कुल मजदूरों का सवा फीसदी ही है। सवाल है कि इन ट्रेनों पर कितना खर्च हुआ होगा।
सरकार अगर मजदूरों के मुफ्त ट्रेन मुहैया नहीं करा सकती, जो देश निर्माण में अपना पसीना बहा रहे थे, तो सरकार अपनी आर्थिक रैंकिंग पर कैसे गर्व कर सकती है। खबरें हैं कि एक प्रवासी मजदूर महिला ने सड़क किनारे बच्चे को जन्म दिया और दो घंटे बाद फिर से पैदल अपने घर की तरफ चल पड़ी। यह खबरें और तस्वीरें हिला देती हैं और सरकार की असंवेदनशीलता को उजागर करती हैं। लोकतंत्र में हम सब नागरिक एक समान हैं और सबके समान अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन सरकार शायद यह भूल चुकी है।
सरकार आत्मनिर्भर होने का नारा देती है, और मजदूरों को सैकड़ो किलोमीटर पैदल चलने पर विवश करती है। इन मजदूरों के पास न रोटी है, न किसी ट्रेन-बस का टिकट खरीदने के पैसे। इनकी हताशा का अनुमान शायद इसी से लग सकता है कि कोई गर्भवती ऐसे हालात में पैदल चली जा रही है और बच्चे को सड़क पर जन्म देती है। लेकिन इससे बड़ी असंवेदनशीलता और क्या होगी कि वित्त मंत्री इन मजदूरों से इस बात पर नाराज दिखती हैं कि वे प्रधानमंत्री की एक ही जगह रुके रहने की अपील को क्यों नहीं मान रहे।
हो सकता है शुक्रवार को वित्त मंत्री अपने धारावाहिक प्रेस कांफ्रेंस में कुछ ऐसा ऐलान करें जिससे लोगों को राहत मिले, क्योंकि अब शायद यह आखिरी मौका होगा जब सरकार सामने आकर कुछ कहेगी या करेगी। लेकिन अगर शुक्रवार को भी वे निराश करती हैं, तो हालात क्या होंगे इसका अनुमान लगाने से भी सिहरन होती है।
सरकार को समझना होगा कि देशवासी बेहद संकट के दौर में हैं, और ऐसे में सिर्फ नीतियों में उलटफेर करने भर से काम नहीं चलेगा।
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