महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे समेत 16 विधायकों की अयोग्यता के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शिवसेना के दोनों धड़ों के लिए एक संतुलित निर्णय कहा जा सकता है। लेकिन इस फैसले ने किसी भी पक्ष को खुश नहीं किया है बल्कि एक तरह से दोनों तरफ निराशा ही हाथ लगी है।
उद्धव ठाकरे द्वारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देने के लगभग दस महीने बाद, एकनाथ शिंदे और उनके बागियों के शपथ ग्रहण को अवैध करार देना, असंवैधानिक निर्णयों के लिए राज्यपाल और अध्यक्ष की खिंचाई करना और शिंदे गुट द्वारा एक नए सचेतक (व्हिप) की नियुक्ति को असंवैधानिक बताते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से शिंदे सरकार के जारी रहने को अस्थिरता से भरा बना दिया है। ऐसे में सवाल यही है कि ऐसे गुट को जिसकी नियुक्ति को ही असंवैधानिक बताया गया हो उसे सत्ता में रहने का कानूनी अधिकार है? इस फैसले के क्या परिणाम होंगे, इसे लेकर शिंदे गुट काफी असहज नजर आ रहा है।
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दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे को वापस मुख्यमंत्री के पद पर आसीन न कराना, वह भी सिर्फ इस आधार पर कि उन्होंने सदन में शक्ति परीक्षण का सामना नहीं किया और इस्तीफा दे दिया, इससे महा विकास अघाड़ी को भी निराशा ही हाथ लगी है। महा विकास अघाड़ी का मानना है कि अगर शिंदे सरकार की नियुक्ति ही असंवैधानिक है तो पूर्व की स्थिति तो खुद ब खुद बहाल की जानी चाहिए।
शिंदे सरकार के पास अब कानूनी तौर पर एक तरह से खोखली साबित हो चुकी है, हालांकि इसी आधार पर उन्हें और उनके साथ आए 15 विधायकों को अयोग्य घोषित नहीं किया गया है, फिर भी शिंदे गुट और उनका साथ देने वाले अन्य लोग नौतिक और राजनीतिक रूप से एक जटिल स्थिति में जरूर पहुंच गए हैं। बहरहाल फौरी समझ के मुताबिक इससे शिंदे गुट को उस खरी-खोटी सुनने से कुछ राहत मिल जाएगी जो उद्धव गुट उन पर बीते कुछ महीनों से उछाल रहा था, और इस तरह उन्हें कुछ राजनीतिक जमीन जमाने का मौका मिल जाएगा।
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उद्धव ठाकरे की शुरु से ही इस बात के लिए आलोचना की जाती रही है कि उन्होंने भावुक होकर जल्दबाजी में इस्तीफा दे दिया था, लेकिन शिवसेना तो हर मुद्दे पर एक भावुक राजनीतिक दल के तौर पर ही सामने आती रही है। कांग्रेस या एनसीपी कार्यकर्ता और समर्थक तो राजनीतिक गुणा-भाग देखकर चुनाव में प्रतिक्रिया देते हैं, लेकिन शिवसेना तो हमेशा से अपने समर्थकों की भावनाओं पर ही चलती रही है और भरोसा करती रही है। शिवसेना के समर्थकों और वोटर के लिए मुद्दे अहम रहे ही नहीं हैं, उनके लिए तो नेता या फिर उनके नेता का किसी किस्म का अपमान ही सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। यही कारण है कि जहां कांग्रेस को दो बार तोड़ चुके शरद पवार राजनीति में एक बड़ा कद बना लेते हैं, लेकिन शिवसेना का कोई भी नेता जिसने पार्टी या ठाकरे परिवार का साथ छोड़ा हो, किसी बड़े राजनीतिक मुकाम तक नहीं पहुंच पाया।
छगन भुजबल को अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए पूरी तरह पहले कांग्रेस और फिर एनसीपी को समर्पित होना पड़ा, इसी तरह नारायण राणे को बीजेपी में केंद्रीय मंत्री होने के बाद भी एक तरह के राजनीतिक एकांत में ही रहना पड़ रहा है।
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जैसा कि अपेक्षित था, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से शिंदे कैम्प में खामोशी है, जबकि निराशा के बावजूद उद्धव कैम्प में हलचल है और शिंदे के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ रही है। उद्धव वाली शिवसेना के नेता संजय राउत ने कहा है कि बात सिर्फ 16 विधायकों की नहीं है, पूरी की पूरी सरकार ही गैरकानूनी है, इन्हें इस्तीफा देना चाहिए।
उधर उद्धव ठाकरे ने भी इस एहसास के साथ की सुप्रीम कोर्ट के फैसले में हार के साथ ही जीत है, कहा कि, “आखिर मैं कैसे उस दफ्तर में रह सकता था जहां मुझे गद्दारों के साथ बैठना पड़ता।”
शिवसेना में गद्दारी को बहुत गंभीरता से लिया जाता है, और यही कारण है कि पार्टी समर्थक और कार्यकर्ता उद्धव और आदित्य ठाकरे के साथ खड़े दिखते हैं। कांग्रेस और एनसीपी ने भी शिंदे के इस्तीफे की मांग की है, लेकिन उद्धव सरकार की वापसी न होने पर कुछ निराशा भी जताई है। लेकिन अब महा विकास अघाड़ी राज्य में समयपूर्व चुनाव का माहौल बनाने की जुगत में है, क्योंकि मौजूदा हालात में शिंदे सरकार की निरंतरता पर संदेह होने के चलते ऐसे लोग भी शिंदे का साथ छोड़ सकते हैं जो अभी तक उनके साथ हैं।
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इस बीच असंवैधानिक, गैरकानूनी, अनैतिक जैसे शब्द हवा में उछाले जा रहे हैं, वह भी खासतौर से एमवीए द्वारा, साथ ही शिंदे सरकार को सत्ता छोड़ने की मांग की जा रही है। वैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले से वे मतभेद भी काफी हद तक धुंधले हो गए हैं जो हाल केदिनों में शरद पवार की आत्मकथा में कांग्रेस और उद्धव ठाकरे की कुछ मामलों में आलोचना करने के बाद सामने आए थे।
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