देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने एक विवादास्पद कदम उठाते हुए दीवालिया घोषित हो चुकी एक कंपनी को दिए कर्ज के बदले उस कंपनी के शेयर अपने नाम कर लिए। इससे बैंक को कुल कर्ज का करीब 92 फीसदी नुकसान हुआ है।
समाचार पोर्टर मनीलाइफ ने कहा है कि एसबीआई का यह फैसला दिखाता है कि बैंक अब अपने कर्ज को वापस हासिल करन के बजाए घाटे से जूझ रही कंपनी को उबारने के लिए उसका हिस्सेदार बनने की तरफ जा रहा है। इस कंपनी का नाम है सुप्रीम इंफ्रास्ट्रक्चर इंडिया लिमिटेड।
बुनियादी ढांचा क्षेत्र की इस कंपनी पर एसबीआई का 1,023.42 करोड़ रुपए कर्ज है जो उसने नहीं चुकाया है। लेकिन जिस तरह से एसबीआई ने इस कर्ज के बदले कंपनी शेयर लिए हैं उससे मौजूदा कॉर्पोरेट कर्ज समाधान ढांचे को लेकर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। खासतौर से एसबीआई द्वारा कर्जदाता के साथ शेयरधारक की दोहरी भूमिका निभाने को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
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एसआईआईएल को कर्ज देने वालों में एसबीआई सबसे बड़ा कर्जदाता बैंक है। उसने अब कंपनी में प्राथमिकता के आधार पर 24.33 करोड़ रुपए निवेश कर 85.23 की दर से 28,55,771 शेयर हासिल किए हैं। इससे इस कंपनी में एसबीआई को 2.49 फीसदी हिस्सेदारी मिल गई है।
कर्ज को नए सिरे से रीस्ट्रक्चर करने के एसबीआई के इस तरीके पर बैंकिंग क्षेत्र और खासतौर से कर्जदाताओं के बीच काफी प्रतिक्रिया देखने को मिली हैं, क्योंकि एसबीआई ने ऐसा करके अपने कुल कर्ज का 93.45 फीसदी खो दिया है। यानी उसे इस कंपनी से जो पैसे मिलने थे उसमें से अब उसे 93.45 फीसदी पैसे नहीं मिलेंगे। एसआईआईएल पर एसबीआई समेत अलग-अलग कंपनियों का कुल 2200.36 करोड़ रुपए का बकाया है, लेकिन इसे सेटलमेंट के जरिए सिर्फ 464 करोड़ कर दिया गया है।
कर्ज के रीस्ट्रक्चरिंग व्यवस्था को हालांकि अभी एनसीएलटी से अंतिम मंजूरी मिलना बाकी है, लेकिन फिर भी इसकी बारीकी से जांच की जा रही है। इस मामले में कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने बाकी विशेषज्ञों की तरह ही चेतावनी दी है कि इस तरह के कदम से भारत के कॉर्पोरेट कर्ज स्थिति में एक खतरनाक मिसाल कायम हो सकती है. जिसमें कर्ज न चुकाने वाली कंपनियां पैसा लेने के बाद भी कंपनी पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश कर सकती हैं।
जयराम रमेश ने एक्स पर इस व्यवस्था के एक खतरनाक मिसाल करार देते हुए लिखा कि बैंकों के जोखिम आकंलन और प्रबंधन प्रक्रिया पर ही सवाल खड़े हो जाएंगे।
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एक अन्य विशेषज्ञ ने कहा कि, "इससे नैतिक जोखिम पैदा हो सकता है, जहां अपने कर्ज की अदायगी में चूक करने वाली कंपनियां पर्याप्त नियंत्रण और मूल्य बनाए रखते हुए जवाबदेही से बचने का रास्ता देख सकती हैं।"
चिंता इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि सार्वजनिक क्षेत्र का यानी सरकारी बैंक होने के नाते एसबीआई आम लोगों के पैसे इस्तेमाल एक ऐसी संकटग्रस्त कंपनी में शेयर को जरिए हिस्सेदारी हासिल करने के लिए कर रहा है, जो पहले ही 1,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाने में नाकाम रही है। एसबीआई के इसकदम से भारत के दिवालियेपन समाधान ढांचे की प्रभावशीलता के बारे में भी बहस छिड़ गई है।
आलोचकों ने इस स्थिति को "फाइनेंशियल स्टॉकहोम सिंड्रोम" कहा है, जहाँ कर्ज देने वाला सख्त वसूली तंत्र लागू करने के बजाय कर्ज न चुका पाने वाले के हित में काम करता हुआ दिख रहा है। इन आलोचनाओं के चलते भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) पर दबाव बढ़ रहा है कि वो देखे कि आखिर ऐसा फैसला लेने में किस प्रक्रिया का पालन किया गया है।
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दिए गए कर्ज में इतनी बड़ी कटौती और हितों के टकराव की संभावना के साथ, इस पुनर्गठन की असामान्य प्रकृति निश्चित रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक परिचालन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए नियामक हस्तक्षेप की मांग करती है?
इस बीच, एसआईआईएल अपनी पुनर्गठन योजना के लिए एनसीएलटी की मंजूरी का इंतजार कर रही है। कंपनी ने सितंबर 2024 के अंत तक कर्ज मुक्त होने के लिए कदमों की रूपरेखा तैयार की है। इस योजना में परिसंपत्तियों का मुद्रीकरण, निवेशकों से इक्विटी जुटाना और निपटान राशि को पूरा करने के लिए प्रमोटर योगदान का लाभ उठाना शामिल है।
कुछ समय पहले, एसआईआईएल के प्रबंध निदेशक विक्रम शर्मा ने आशा व्यक्त की थी कि, "एक मजबूत पुनर्गठित समाधान योजना के साथ, हम एनसीएलटी मंजूरी प्राप्त करने और सितंबर 2024 के अंत तक ऋण मुक्त स्थिति प्राप्त करने के बारे में आश्वस्त हैं।" लेकिन बैलेंसशीट मे भारीभरकम जोखिम जिसमें सहायक कंपनियों को 1,533 करोड़ रुपये की कॉर्पोरेट गारंटी जैसे मुद्दे हैं जो अभी भी कंपनी के सामने हैं।
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