संतोष के मोरे 50 साल के हैं। पुणे में रहते हैं। वह वहां सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) कन्सल्टेंट हैं। वह लंबी दौड़ के शौकीन हैं। पिछले साल अगस्त में कोविशील्ड वैक्सीन परीक्षण के दौरान उन्होंने वैक्सीन लेने का तय किया। उस वक्त उनकी पत्नी और बेटियों ने अनुरोध किया कि वह ऐसा न करें, फिर भी वह डिगे नहीं। फेज-2 ट्रायल के दौरान वैक्सीन लेने वाले पहले भारतीयों में वह भी थे। उन्होंने कहा भी कि ‘मैं विज्ञान में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहता था।’
लगभग एक साल होने को है। लेकिन अब मोरे आजिज-परेशान हैं क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी पत्नी और बड़ी बेटी को वैक्सीन नहीं लग पा रही। यही हाल उनके यहां घरेलू काम करने वाली महिला और उसके पति का है। मोरे बताते हैं कि ‘कोविन पर वैक्सीन के लिए कोई स्लॉट कभी उपलब्ध ही नहीं मिलता। मैंने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से भी कई बार मदद के लिए निवेदन किया लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया।’
उन्होंने पीएमओ और सीरम इंस्टीट्यूट प्रमुख अदार पूनावाला को टैग कर ट्वीट भी किए, पर कुछ नहीं हुआ। वह पूछते हैं कि आखिर, यह कैसे हो सकता है कि हम-जैसे आम लोगों को वैक्सीन नहीं मिल रही जबकि प्रभावशाली लोगों को कोई समस्या नहीं हो रही है।
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उन्होंने और उनके पांच दोस्तों ने इस परीक्षण प्रोजेक्ट की प्रोटोकॉल/कार्यकारी एजेंसी के तौर पर आईसीएमआर और एसआईआई के साथ औपचारिक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद पिछले साल अगस्त में पहली और सितंबर में दूसरी बार वैक्सीन लगवाई थी। ऐसा उन लोगों ने स्वेच्छा से तब किया था जब कोई भी व्यक्ति इस तरह की दवा अपने शरीर में डलवाने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहता था जिसके प्रभाव या साइड-इफेक्ट के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था। यही नहीं, इस साल के शुरू में जब 12 से 17 साल के बच्चों के लिए कैडिला के जाइकोव-डी वैक्सीन के लिए परीक्षण आरंभ हुए, तो मोरे ने अपनी बेटी राधा को इसके लिए आगे आने को प्रेरित किया और उसने अप्रैल में वैक्सीन लगवाई भी। वह भी कोविड वैक्सीन के परीक्षण के लिए देश में आगे आने वाले बच्चों में से एक है। उसे तीन बार वैक्सीन लगाई गई है।
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मोरे कहते हैं कि ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों पर इस तरह के परीक्षण के इच्छुक नहीं होंगे और उन्हें इस बात के लिए सहमत कराने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़े गा।
लेकिन मोरे अब यह भी महसूस करते हैं कि ‘बड़ी फार्मा कंपनियों के लिए हम लोगों के इस तरह आगे आने और जोखिम उठाने की कोई कीमत नहीं है। वे, बस, हमारे जीवन के जोखिम पर अपने व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए हमारा उपयोग करना चाहती हैं।’ वह कहते हैं कि ‘यह कितनी शर्मनाक बात है कि देश के लिए मैंने इस किस्म का जोखिम उठाया, फिर भी मुझे अपनी पत्नी और बेटी को वैक्सीन दिलवाने के लिए भटकना पड़ रहा है।’
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