केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि समलैंगिक विवाह की मांग सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल शहरी अभिजात्य विचार है, और इसे मान्यता देने का मतलब कानून की एक पूरी शाखा को दोबारा लिखना होगा। समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने के मुद्दे पर विभिन्न आवेदनों पर उच्चतम न्यायालय 18 अप्रैल को सुनवाई करने वाला है। इससे दो दिन पहले इस मामले की जांच करने के शीर्ष अदालत के फैसले का विरोध करते हुए केंद्र ने पूछा कि क्या एक संवैधानिक अदालत ऐसे दो लोगों के बीच एक अलग सामाजिक-वैवाहिक संस्थान के निर्माण के लिए कानून बना सकती है जिसकी मौजूदा कानूनों में कोई जगह नहीं है।
केंद्र ने कहा कि याचिकार्ताओं का समलैंगिक विवाह अधिकारों की मांग करना सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य के लिए एक शहरी अभिजात्य दृष्टिकोण है। उसने कहा, समलैंगिक विवाह के अधिकार को मान्यता देने के अदालत के फैसले का मतलब होगा कि कानून की एक पूरी शाखा दोबारा लिखी जाए। अदालत को इस तरह के व्यापक आदेश पारित करने से बचना चाहिए। इसके लिए विधायिका के पास ही अधिकार है।
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केंद्र ने जोर देकर कहा कि केवल शहरी अभिजात्य विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाली याचिकाओं की तुलना उचित विधायिका से नहीं की जा सकती जो एक व्यापक समाज के विचारों और आवाजों को दर्शाती है और जिसका विस्तार पूरे देश में है।
उसने कहा, सक्षम विधायिका को सभी ग्रामीण, अर्ध-ग्रामीण और शहरी आबादी के व्यापक विचारों और आवाज को ध्यान में रखना होगा - व्यक्तिगत कानूनों और विवाह को नियंत्रित करने वाले रीति-रिवाजों को ध्यान में रखते हुए धार्मिक संप्रदायों के विचारों को और कई अन्य कानूनों पर इसके अपरिहार्य व्यापक प्रभावों को।
केंद्र ने आगे कहा कि विवाह जैसे मानवीय संबंधों की मान्यता अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य है और अदालतें न तो न्यायिक व्याख्या के माध्यम से और न ही विवाहों के लिए मौजूदा विधायी ढांचा को समाप्त कर या उसकी संकीर्ण व्याख्या कर इसे बना सकती हैं या मान्यता दे सकती हैं।
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केंद्र ने तर्क दिया कि यह साफ है कि व्यक्तिगत स्वायत्तता के अधिकार में समलैंगिक विवाह की मान्यता का अधिकार शामिल नहीं है, और वह भी न्यायिक निर्णय के माध्यम से। उसने जोर देते हुए कहा कि विवाह को दुनिया के सभी देशों में सामाजिक नीति का एक पहलू माना जाता है।
केंद्र ने आगाह किया कि इस तरह के फैसलों के प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल है। उसने कहा, हमारे संविधान के तहत, अदालतें विधायिका द्वारा बनाई नीति की जगह अपनी नीति प्रतिस्थापित नहीं कर सकती। उसका काम सिर्फ यह देखना है कि 'कानून क्या है' न कि यह देखना कि कानून क्या होना चाहिए।
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केंद्र ने कहा: ऐसा इसलिए है क्योंकि पारंपरिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सामाजिक-कानूनी रिश्ते जैसे विवाह की जड़ें भारतीय सामाजिक संदर्भ में अंतर्निहित हैं। हिंदू कानून की सभी शाखाओं में इसे एक संस्कार माना जाता है। यहां तक कि इस्लाम में भी इसे.. पवित्र माना गया है और एक वैध विवाह केवल एक जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच होता है। भारत में मौजूद सभी धर्मों में यही स्थिति है।
आईएएनएस के इनपुट के साथ
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