लोकसभा चुनावों में अपने दम पर बहुमत हासिल न कर पाने को लेकर राष्ट्रीय स्वंय संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र बीजेपी को एक तरह से खरी-खोटी सुनाई है। संघ ने लिखा है कि बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के अति आत्मविश्वास के चलते ऐसे नतीजे आए हैं। ऑर्गेनाइजर में लिखे लेख में रतन शारदा ने कहा है कि बीजेपी कार्यकर्ता जनता और आम लोगों की आवाज सुनने के बजाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैन फॉलोइंग की चमक का आनंद ले रहे थे।
लेख की शुरुआत में संघ ने लिखा है कि भले ही केंद्र में तीसरी बार मोदी सरकार बन चुकी है, लेकिन इस बार बीजेपी अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में नाकाम रही है। लेख में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब और निराशाजनक रहा। संघ ने याद दिलाया है कि 2019 में 303 सीटें जीतने चुनावी नतीजों को लेकर संघ ने कहा है कि चुनावी नतीजे बीजेपी के लिए जमीनी हकीकत को समझने और रियलिटी चेक करने का संकेत हैं।
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आरएसएस ने कहा है कि बीजेपी के नेता चुनावी सहयोग के लिए 'स्वयंसेवकों' तक पहुंचे ही नहीं। याद दिला दें कि संघ अपने कार्यकर्ताओं को स्वंयसेवक कहता है। उसने कहा है कि बीजेपी ने उन कार्यकर्ताओं को कोई तवज्जो नहीं दी जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। संघ बेहद आलोचनात्मक तरीके से कहा कि बीजेपी ने उन कार्यकर्ताओं पर भरोसा जताया जो 'सेल्फी' के सहारे प्रचार कर रहे थे। संघ के सदस्य रतन शारदा लेख में आगे लिखते हैं कि चुनावी नतीजे बीजेपी को आइना दिखाने वाले हैं।
महाराष्ट्र को लेकर संघ तीखी टिप्पणियां की हैं। रतन शारदा ने लेख में लिखा है कि बीजेपी महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गई और वहां गैरजरूरी राजनीति की गई। संघ में चेताया गया है कि महाराष्ट्र में अजित पवार के गुट वाली एनसीपी के बीजेपी के साथ आने से बीजेपी कार्यकर्ताओं में आक्रोश था, जिसे पार्टी ने नहीं पहचाना। रतन शारदा कहते हैं कि एनसीपी के साथ आने से महाराष्ट्र में बीजेपी की ब्रांड वैल्यू काफी कम हो गई है।
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रतन शारदा ने हालांकि किसी नेता का नाम नहीं लिया, लेकिन लिखा है कि बीजेपी में कई ऐसै पूर्व कांग्रेसी नेताओं को शामिल कर लिया गया जिन्होंने भगवा आतंक का जुमला उछाला था। शारदा लिखते हैं कि बीजेपी ने कई ऐसे नेताओं को अपने साथ मिलाया जिन्होंने 26-11 मुंबई हमले को आरएसएस की साजिश कहा था।
बता दें कि महाराष्ट्र में बीजेपी का हाल के चुनावों में सबसे खराब प्रदर्शन रहा है। 2019 में बीजेपी ने कुल 48 में से 23 सीटें जीती थीं लेकिन इस बार सिर्फ 9 सीटें ही जीत सकी। इसके अलावा शिंदे गुट वाली शिवसेना 7 और अजित पवार की एनसीपी सिर्फ एक सीट हासि कर पाई।
संघ ने लेख में इशारा किया है कि बीजेपी मतदाताओं तक सही तरीके से पहुंच बनाने में नाकाम रही। लेख में रतन शारदा आगे लिखते हैं कि पार्टी के एजेंडे को समझाना, पार्टी का साहित्य और वोटर कार्ड वितरित करना पार्टी की जिम्मेदारी है।
रतन शारदा लिखते हैं कि बीजेपी कार्यकर्ता और बहुत से पार्टी नेता इस बात सही तरीके से समझ ही नहीं पाए कि 400 पार का नारा देकर मोदी ने कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए लक्ष्य निर्धारित किया था और विपक्ष को बड़ी चुनौती दी थी। लेकिन लक्ष्यों की पूर्ति कड़ी मशक्कत से होती है न कि सेल्फी लेने और सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने से। उन्होंने लिखा है कि इन चुनावी नतीजों के और भी बहुत से सबक हैं जिन पर गौर करना जरूरी है।
रतन शारदा ने एक डिस्क्लेमर भी दिया है कि संघ बीजेपी के लिए काम नहीं करता है, वह बीजेपी के लिए कोई फील्ड फोर्स नहीं है। बीजेपी तो विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है और उसके अपने पास कार्यकर्ताओं की फौज है। ऐसे में पार्टी के एजेंडे को लोगों तक पहुंचाना, वोटरों की मदद करना उनका ही काम है। शारदा ने याद दिलाया है कि 1973 से 1977 की अवधि के अलावा आरएसएस ने किसी भी राजनीति में कभी सीधे दखल नहीं दिया और न ही उसमें हिस्सा लिया है। उन्होंने कहा है कि 2014 में संघ 100 प्रतिशत मतदान का आह्वान जरूर किया था, इसीलिए उस दौरान भारी संख्या में मतदाताओं ने वोट डाले थे और सत्ता परिवर्तन हुआ था। इस बार भी संघ ने मुहल्लों, सोसायटीज और दफ्तरों के स्तर पर छोटी-छोटी सभाएं की थीं और लोगों को वोट डालने के लिए प्रोत्साहित किया था। साथ ही संघ ने राष्ट्र निर्माण में भागीदारी के लिए भी लोगों को जागृत किया था। उन्होंने लिखा है कि अकेले दिल्ली में ही इस तरह की 1,20,000 सभाएं की गई थीं।
रतन शारदा ने लिखा है कि इसके अलावा स्वंयसेवकों ने बीजेपी कार्यकर्ताओं की चुनावी काम में और भी मदद की, जिसमें स्थानीय नेताओं को लोगों तक पहुंचाना भी शामिल है। लेकिन बड़े स्तर पर यह काम नहीं हुआ। उन्होंने लिखा है कि बीजेपी कार्यकर्ता ‘आएगा तो मोदी ही और अबकी बार 400 पार’ के नारे में ही उलझे रहे। पुराने और समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी हुई और जब बीजेपी कार्यकर्ता ही संघ के स्वंयसेवकों के पास नहीं जा रहे थे तो स्वंयसेवक भी क्यों उन तक जाते।
उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी लेख में सवाल उठाए गए हैं। रतन शारदा लिखते हैं कि यह मान लेना कि सभी 543 सीटों पर अकेले मोदी ही चुनाव लड़ रहे हैं, चुनावी हार की बुनियाद बन गया। बीजेपी ने पुराने और जीतने वाले उम्मीदवारों की जगह पार्टी में नए-नए लोगों को टिकट दिया, इससे काफी नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक करीब 25 फीसदी उम्मीदवार ऐसे थे जो दूसरे दल छोड़कर आए थे। हिमाचल में बगावत झेल चुकी बीजेपी द्वारा ऐसा रुख अपनाना चौंकाने वाला था।
संघ ने लिखा है कि जब नेता लोगों की पहुंच से दूर थे, कार्यकर्ताओं को उनसे मिलने का वक्त नहीं मिल रहा था और वे सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पर उंगलियां चला रहे थे तो चुनाव कैसे जीतते।
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