भारतीय न्याय व्यवस्था में जमानत किसी आरोपी का अधिकार माना गया है, लेकिन कई बार देखा गया है कि कोर्ट से जमानत मिलने के बाद भी बेल बॉंड की शर्तों के कारण कई कैदी जेल में रहने को मजबूर हो जाते हैं। बेल बॉन्ड या फिर जमानत की दूसरी शर्तों के कारण जमानती आदेश के बावजूद उनकी रिहाई नहीं हो पाती और जेल में फंसे रहते हैं। इस समस्या को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 7 जरूरी निर्देश जारी कर कैदियों की रिहाई को आसान बनाया है।
शीर्ष अदालत ने अपने निर्देश में सबसे पहली बात जो कही है वह यह है कि जिस कोर्ट से कैदी को जमानत मिली है उसे हर हाल में अपने आदेश की सॉफ्ट कॉपी जेल सुपरिटेंडेंट को ई-मेल से भेजनी होगी। आदेश की यह कॉपी ऑर्डर वाले ही दिन या फिर उसके अगले दिन हर हाल में भेजनी होगी। इसके बाद जेल अधीक्षक ई प्रिजंस सॉफ्टवेयर में कैदी की जमानत की तारीख एंट्री करेगा।
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अपने दूसरे निर्देश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जमानत दिए जाने के सात दिनों के बाद भी अगर जेल से कैदी की रिहाई नहीं हो पाती है तो जेल अधीक्षक की यह ड्यूटी होगी कि वो डीएलएसए के सचिव को इसकी खबर दे। उस सूचना पर सचिव किसी वकील या फिर वालंटियर की ड्यूटी लगाएगा, जो कैदी की रिहाई को सुनिश्चित करने के लिए हर संभव मदद करेंगे।
अगले निर्देश में शीर्ष कोर्ट ने कहा है कि नेशनल इनफोर्मेटिक सेंटर ई प्रिजंस के सॉफ्टवेयर में ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे जमानत की तिथि के साथ ही कैदी की रिहाई की तारीख भी जेल के सॉफ्टवेयर में दर्ज हो जाए। इसके 7 दिनों बाद भी अगर कैदी रिहा नहीं होता है तो अपने आप इसका ई मेल डीएलएसए को चला जाएगा।
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सुप्रीम कोर्ट ने अले निर्देश में साफ कहा है कि इसके बाद डीएलएसए कैदी की आर्थिक स्थिति को देखेगा। अगर वह बेल बॉंड की जरूरी शर्तें पूरी करने की स्थिति में नहीं है तो वह कैदी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की एक रिपोर्ट तैयार कराएगा और इस रिपोर्ट को कोर्ट के समक्ष रखेगा। डीएलएसए की कोशिश होगी कि कैदी को रियायत दिलाई जा सके।
शीर्ष कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि अगर कैदी यह दरखास्त करता है कि वो रिहाई के बाद बेल बॉन्ड और श्योरिटी जमा करा देगा तो कोर्ट उसके हालात पर विचार करके उसे टेंपरेरी जमानत दे सकती है। हालांकि यह जमानत एक तय समय के लिए होगी। इस अवधि के भीतर कैदी को कोर्ट में बॉन्ड के साथ श्योरिटी जमा कराना होगा।
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इसके आगे भी शीर्ष कोर्ट ने कहा है कि अगर जमानत पर रिहाई के एक माह बाद भी कैदी बेल बॉन्ड या फिर श्योरिटी जमा नहीं करा पाता है तो संबंधित कोर्ट इस मामले का स्वत: संज्ञान ले सकती है। इसके बाद वो कोर्ट या तो अपने आदेश को मॉडीफाई कर सकती है या फिर कैदी को राहत देने के लिए शर्तें पूरी करने की मियाद में और इजाफा कर सकती है।
इतना ही नहीं, शीर्ष कोर्ट ने अपने निर्देश में यह भी कहा है कि अक्सर देखा गया है कि लोकल श्योरिटी नहीं दे पाने की वजह से कैदी की रिहाई नहीं हो पाती है। ऐसे किसी भी मामले में कोर्ट फिर से विचार करके इस शर्त को हटा भी सकती है। शीर्ष कोर्ट ने साफ कहा है कि ऐसे मामले में लोकल श्योरिटी को हटा दिया जाए तो ही ठीक है।
सुप्रीम कोर्ट के इन अहम निर्देशों के बाद उम्मीद है कि जमानत मिलने के बाद भी बेल बॉंड या श्योरिटी के अभाव में कैदियों की रिहाई में अब कोई अड़चन नहीं आएगी।
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