अपने को सुशासन बाबू कहलाना पसंद करने वाले नीतीश कुमार कभी इस पाले, तो कभी उस पाले की मदद से मुख्यमंत्री बन जाते हैं लेकिन उनके राजकाज में कई आयोग कोई काम नहीं काम रहे, पर उन्हें इसकी चिंता ही नहीं है। वजह यह नहीं है कि इन आयोगों का महत्व नहीं है। कारण सिर्फ यह है कि इन आयोगों में नियुक्तियां हुईं तो सहयोगी दल से भी नाम लेने होंगे और नीतीश ऐसा नहीं चाहते हैं। ऐसा सिर्फ वह अभी बीजेपी-एलजेपी को चिढ़ाने के लिए नहीं कर रहे, जब वह लालू प्रसाद यादव की पार्टी- आरजेडी और कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे, तब भी उन्होंने ऐसा ही किया था।
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कई बोर्ड, आयोग और निगम तीन साल से पदाधिकारी के बिना ही अस्तित्व में हैं। ऐसे में अब बड़ा सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जिन बोर्ड, आयोगों और निगमों के तीन साल तक भंग रहने से आम आदमी की सेहत पर कोई असर सरकार को नहीं दिखा, तो फिर उनका अस्तित्व ही क्यों कायम रखना चाह रहे हैं नीतीश कुमार?
तीन साल तक किसी सरकार में कोई मंत्रालय नहीं हो और उससे आम आदमी पर असर नहीं पड़ रहा हो तो उसकी जरूरत नहीं साबित की जा सकती। वैसे, पटना हाईकोर्ट के कड़े निर्देश पर कुछ आयोगों का गठन नीतीश को करना पड़ा। ऐसे में, फिलहाल बाल संरक्षण आयोग, महिला आयोग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य खाद्य आयोग, संस्कृत शिक्षा बोर्ड, पिछड़ा वर्ग आयोग आदि ही कार्यरत हैं, बाकी ऐसे अन्य कई संस्थान लगभग तीन साल से भंग पड़े हैं।
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नीतीश कुमार आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे, तभी से इन संगठनों को लेकर रगड़ चल रही थी। सरकार बनी तो बीजेपी-एलजेपी के लोगों को यहां से हटाने की तैयारी तो नीतीश ने की लेकिन साथ ही आरजेडी-कांग्रेस को दरकिनार रखने की भी प्लानिंग कर ली। नीतीश के कहने पर एक ही समय में ऐसे सभी संस्थानों के पदाधिकारियों ने इस्तीफे दे दिए थे। सामूहिक रूप से इस्तीफा इसलिए लिया था, ताकि कोई यह न कहे कि जेडीयू वालों से इस्तीफा नहीं लिया और बीजेपी वालों को हटा दिया।
इसके बाद जब आरजेडी-कांग्रेस के साथ इन संगठनों के पदों को बांटने की बात आई तो नीतीश पहले तो लंबे समय तक चुप्पी साधे रहे और जब बवाल बढ़ा तो फाइल ही लेकर बैठ गए। फिर, जब आरजेडी-कांग्रेस से नाता तोड़कर नीतीश एनडीए में आए, तब भी वह उसी रूप में दिखे। बीजेपी को अपने बराबर और एलजेपी को आधे, यानी 40-40 और 20 प्रतिशत पदों के बंटवारे का फॉर्मूला कथित तौर पर बना भी, मगर नीतीश कुमार ने इस पर अमल नहीं किया।
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यही कारण है कि बिहार में डॉ. हुलेश मांझी के बाद बिहार को राज्य महादलित आयोग का कोई अध्यक्ष नहीं मिला। इसी तरह विद्यानंद विकल के बाद अनुसूचित जाति और जगजीवन नाय के बाद अनुसूचित जनजाति आयोग का कोई अध्यक्ष नहीं मिला। अति पिछड़ा वर्ग आयोग को डॉ. रतन मंडल और नागरिक परिषद को भोला प्रसाद सिंह के बाद कोई पदाधिकारी नसीब नहीं हुआ। मगही अकादमी में उदय शंकर शर्मा के बाद सरकार को कोई अध्यक्ष नहीं मिला तो मछुआरा आयोग में विश्वनाथ सिंह के बाद कोई नाम पसंद नहीं आया।
इनके साथ ही सवर्ण आयोग के अध्यक्ष डॉ. गोपाल प्रसाद सिन्हा दोबारा कुछ ऐसा ही पद पाने का इंतजार करते रहे, लेकिन उन्हें भी न कोई पद ही मिला और न ही पार्टी ने कहीं से संसदीय चुनाव में उतारा। हालत यह है कि सरकार ने जरूरी मानने के बावजूद बाल श्रमिक आयोग को चंदेश्वर प्रसाद चंद्रवंशी के बाद कोई अध्यक्ष नहीं दिया। हालांकि पुराने अध्यक्ष को दिल्ली दरबार तक पहुंचाकर नीतीश ने उनका सपना जरूर पूरा कर दिया। चंद्रभूषण राय जेडीयू के युवा नेता हैं। लंबे समय तक संगठन का काम करने के बाद भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष बने लेकिन भंग होने के बाद दूसरे टर्म के लिए अब तक इंतजार ही कर रहे हैं।
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नीतीश इन संगठनों को पूरी तरह खत्म कर न तो कानून प्रक्रिया में उलझना चाहते हैं और न ही बीजेपी-एलजेपी को हिस्सा देना चाहते हैं। दरअसल, बीजेपी-एलजेपी के साथ जेडीयू के अंदर भी इन पदों को लेकर मारामारी है। कई संगठनों के लिए दो साल से पूरी मेहनत कर रहे कुछ नेताओं की मानें तो सब कुछ नीतीश कुमार पर निर्भर है और बीजेपी-एलजेपी की नजर भी जेडीयू पर ही है। जैसे ही जेडीयू में इसके लिए सुगबुगाहट होगी, बीजेपी और एलजेपी भी अपना हक मांगने के लिए सामने आ जाएगी।
यही कारण है कि जेडीयू के अंदर भी बगावत को समझते हुए अब पार्टी के उच्चाधिकारी बीजेपी और जेडीयू के आंतरिक चुनावों के बाद इन संगठनों के पुनर्गठन की बात कह रहे हैं। हालांकि, पार्टी के इन पदाधिकारियों के भी मुंह इस बात पर नहीं खुल रहे हैं कि आखिर जिन संगठनों की तीन साल में जनता के लिए जरूरत नहीं दिख रही, उस पर जनता से हासिल पैसा आगे भी खर्च हो तो क्यों?
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