आप राजीव गांधी के निकट सहयोगी थे। बता सकते हैं कि पंचायती राज का विचार कैसे आया? यह किसी चर्चा-परिचर्चा, सर्वे या फिर योजना आयोग की पहल का नतीजा था?
महात्मा गांधी पंचायती राज को लोकतांत्रिक स्थानीय प्रशासन का जरिया बनाना चाहते थे। शुरू में जवाहरलाल नेहरू इसके पक्ष में नहीं थे लेकिन पहली पंचवर्षीय योजना के खत्म होते-होते उन्हें लगा कि विकास गांवों तक नहीं पहुंच पा रहा और इसके लिए उन्होंने बलवंत राव मेहता स्टडी ग्रुप का गठन किया। समूह की रिपोर्ट के बाद नेहरू इस नतीजे पर पहुंचे कि राज्यों को इसके लिए एक मॉडल कानून बनाना होगा। 1957 के चुनाव में कांग्रेस ने केरल को छोड़कर सभी राज्यों का चुनाव जीता और राज्यों के लिए एक मॉडल कानून बनाया गया जिसे सभी ने लागू किया। लेकिन 1964 में नेहरू के निधन के साथ ही यह कानून ठंडे बस्ते में चला गया। जब राजीव सत्ता में आए तो उन्होंने महसूस किया कि इसके बावजूद कि संसद और विधान सभाओं में लोकतंत्र सफल रहा है लेकिन यह पंचायती राज के स्तर पर नहीं आ सका क्योंकि इसकी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं। इसीलिए राजीव चाहते थे कि पंचायती राज को बाध्यकारी बनाया जाए।
आज पंचायती राज को आप कैसे आंकेंगे?
पंचायती राज भारत के हर राज्य में जड़ पाने में कामयाब रहा है, सिवाय संभवतः उत्तर प्रदेश के। केरल, कर्नाटक, सिक्किम, त्रिपुरा, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात ने इस मामले में तेज प्रगति की। राजीव गांधी ने पंचायती राज के मामले में जिस राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ काम किया, उनके बाद वह स्थिति नहीं रही।
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2013 में आपकी अध्यक्षता वाली समिति की और से सौंपी रिपोर्ट में पंचायती राज को सरपंच राज करार दिया गया था। तब से को कोई सुधार?
मैंने बड़ी मुश्किल हालात में मनमोहन सिंह सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष और विभिन्न मंत्रालयों की ओर से जरा भी सहयोग नहीं मिला। मनमोहन सिंह ने तो वीरप्पा मोइली आयोग के प्रशासकीय सुधार जिसमें मेरे सुझाव पर पंचायती राज संबंधी प्रावधान भी रखे गए थे, को लागू करने के लिए मंत्रि समूह भी गठित किया लेकिन जब इसकी बैठक हुई तो बाकी दो मंत्री जैसे पंचायती राज मंत्रालय के साथ किसी तरह का कोई संपर्क न रखने पर आमादा थे। इस तरह पंचायती राज मंत्रालय बनाने के बाद भी सरकार के अन्य विभागों से उसे कोई सहयोग नहीं मिला और वह प्रयास जाया हो गया। ऐसे में उस सरकार से क्या उम्मीद जो नेहरू-गांधी से घृणा करती हो?
फिर भी मोदी राज में पंचायती राज के हाल के बारे में क्या कहेंगे?
(व्यंग्यसे हंसते हुए) यही काफी है कि उन्होंने इसे अब तक खत्म नहीं किया और गांधी परिवार की विरासत से सीधे जुड़ा होने के बाद इसका नाम नहीं बदला। शायद इसलिए कि यह महात्मा गांधी की प्राथमिकता थी। लेकिन इसमें शक नहीं कि मोदी ने राजनीतिक प्रासंगिकता के मामले में इस मंत्रालय की दुर्गति बना दी है।
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राज्य निर्वाचन आयोग निष्पक्ष चुनाव कराने में असमर्थ रहा है। क्या यह माना जाए कि भारतीयों को वैसी पंचायतें नसीब नहीं हो रही हैं जिसके वे हकदार हैं?
केंद्रीय वित्त आयोग, खास तौर पर 14वें और 15वें, से अब अच्छी-खासी धनराशि मिल रही है। लेकिन अगर आपके पास ग्राम सभा के स्तर पर अच्छा प्रशासन और पैसे के नीचे आने की सक्षम व्यवस्था न हो तो पंचायती राज ‘सरपंच राज’ बनकर रह जाता है। आज कमजोर पंचायती राज वाले प्रदेश सरपंच राज बनकर रह गए हैं और हमें धनबल-बाहुबल का भद्दा प्रदर्शन देखने को मिल रहा है। पंचायती राज व्यवस्था मजबूत न हो तो चुनाव में हिंसा होगी जैसा हाल में देखने को मिला।
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क्या हर पंचायत में फलों को बाग, डेयरी, मछली पालन के लिए कुछ तालाब और मुर्गी फार्म वगैरह विकसित करना संभव है, जिससे गांव वालों की जरूरत तो पूरी हो री, पास के शहरों में भी उत्पादन बेचे जा सकें?
मेरे मंत्री रहते जो पांच खंडों वाली रिपोर्ट दी गई, उसमें इस तरह के तमाम सुझाव हैं लेकिन सरकार ने इन पर प्राथमिकता के साथ अमल नहीं किया। उसके बाद से लंबा समय निकल चुका है और तब हमने जो भी सुझाव दिए, उन्हें पुराना और घिसा-पिटा कहकर खारिज किया जा सकता है। मैं आशा करता हूं कि इस समय कांग्रेस पार्टी इसे अपने हाथ में लेकर इसमें आवश्यक संशोधन करके राजनीतिक अभियान की शक्ल दे। जब तक आप पंचायती राज को राजनीतिक तौर पर प्राथमिकता नहीं देंगे, इसके लक्ष्यों को आर्थिक अथवा प्रशासकीय तौर पर पाना संभव नहीं हो सकेगा।
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