हो सकता है, आने वाले दिनों में हालत ऐसी होः आप जिस स्टेशन पर ट्रेन में सवार हों, वह किसी उद्योगपति का हो; जिस ट्रेन में चलें, वह दूसरे उद्योगपति की हो; टिकट चेक करने वाला टीटीई रेलवे का हो; जो खाना मंगाया हो, उसे कोई स्थानीय कंपनी मुहैया करे; और जब आप ट्रेन से उतरें, तो वहां के स्टेशन की देखभाल रेलवे के जिम्मे हो।
इसका दूसरा पक्ष है और, अगर आप आम आदमी हैं, तो इसे जानना ज्यादा जरूरी है। उसी स्टेशन पर आप ऐसी ट्रेन में सवार हुए हों जो नियमित मेल, एक्सप्रेस ट्रेन है। पैसेंजर ट्रेन की बात अभी नहीं क्योंकि इनका कोई माई-बाप अब भी नहीं है। जिस ट्रेन में आप सवार हैं, वह राइट टाइम चली लेकिन रास्ते में पहले वाली टाइप की दो-दो प्राइवेट ट्रेनें अप और डाउन में मिल गईं। चूंकि प्राइवेट ट्रेनों को राइट टाइम चलाना मजबूरी है, अन्यथा रेलवे को उस कंपनी को हर्जाना देना होगा, इसलिए आपकी मेल- एक्सप्रेस ट्रेन खड़ी हो जाएगी। यानी वीआईपी ट्रेन का मतलब अब बदल जाएगा। वीआईपी वही होगी जो प्राइवेट होगी। और इनका किराया अफोर्ड करना कम ही लोगों के वश में होगा क्योंकि कुल मिलाकर यह विमान किराये के आसपास ही होगा।
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यह सब इसलिए सच होने जा रहा है क्योंकि सरकार ने 150 ट्रेनें निजी कंपनियों को देने की तैयारी कर ली है। इनमें से एक लखनऊ-दिल्ली तेजस ट्रेन मॉडल के तौर पर शुरू की गई है। अभी यह किसी निजी कंपनी को नहीं सौंपी गई है। फिलहाल यह ट्रेन आईआरसीटीसी चला रहा है। तेजस का किराया सामान्य मेल-एक्सप्रेस ट्रेन की तुलना में दो से तीन गुना अधिक है। इसका किराया डायनेमिक प्राइसिंग मॉडल पर है, मतलब, ओला-उबर टैक्सी सर्विस जैसा। यानी, त्योहारों या लंबी छुट्टियों के मौके पर जब आप सफर करना चाहेंगे तो तेजस-जैसी ट्रेनों का किराया कई गुना बढ़ जाएगा। किराये की निगरानी के लिए सरकार की ओर से कोई इंतजाम नहीं है।
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तर्क यह है कि नई व्यवस्था में यात्री सुविधाओं में इजाफे के साथ रेल कर्मियों की कार्यदक्षता में भी सुधार होगा। इसका सीधा असर रेल संरक्षा पर पड़ेगा और दुर्घटनाएं घट जाएंगी। लेकिन तेजस को ही उदाहरण मानें, तो कुछ सवालों के उत्तर नहीं मिल रहे हैं। जैसे, सभी ट्रेनों के लिए लखनऊ-नई दिल्ली के बीच एक-सी रेल पटरियां हैं। तो, तेजस और अभी वीआईपी कही जाने वाली लखनऊ मेल के स्वरूप में अंतर कैसे हुआ। स्पष्ट है कि निजी कंपनी की तर्ज पर शुरू तेजस ट्रेन रेलवे के पूरे सरकारी तंत्र का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। इसके संचालन, बुकिंग और कमर्शियल रन का पूरा जिम्मा आईआरसीटीसी पर है। जिस ट्रैक पर तेजस चल रही है, वह रेलवे की है। इसके मेन्टिनेंस का जिम्मा भी रेलवे पर है। तेजस के कंपार्टमेन्ट भी रेलवे के ही हैं। जिस प्लेटफॉर्म से यह चलती है, जिन स्टेशनों से यह गुजरती है और जहां आकर यह टर्मिनेट होती है, वे सभी रेलवे के हैं। इसके गार्ड और ड्राइवर भी रेलवे के ही हैं। रेल अफसरों की मानें, तो यह सिस्टम कॉरपोरेट ट्रेन ऑपरेटिंग है- मतलब, सभी चीजें रेलवे की होंगी लेकिन इनका ऑपरेशन निजी हाथों में होगा।
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अभी 7 अक्टूबर को नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कान्त ने रेलमंत्री पीयूष गोयल से बात करने के बाद पहले फेज में 150 ट्रेन चलाने और 50 स्टेशनों का संचालन निजी कंपनियों को देने के लिए रेलवे बोर्ड के चेयरमैन वी के यादव को पत्र लिखा। इसकी प्रक्रिया तय करने और उसे अंतिम रूप देने के लिए अमिताभ के निर्देश के अनुरूप पांच सदस्यीय समिति का गठन 10 अक्टूबर को कर दिया गया। अमिताभ ही इसके चेयरमैन हैं जबकि रेलवे बोर्ड चेयरमैन, वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव, आवास और शहरी मंत्रालय के सचिव और रेलवे के वित्त आयुक्त इसके सचिव हैं। मतलब यह कि रेलवे में प्राइवेट ऑपरेटरों के लिए मंच तैयार किया जा रहा है।
एक ओर जहां आईआरसीटीसी को तेजस के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई है, दूसरी ओर इसके विनिवेश का रास्ता खोल दिया गया और उसका आईपीओ जारी कर दिया गया। लेकिन जैसे ही आईपीओ आया, शेयर की कीमत दोगुने से अधिक हो गई। मार्केट के जानकार इसे चौंकाने वाला मान रहे हैं। एक जानकार कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में 13 पीएसयू के आईपीओ आए, जिनका पहले तो रिस्पांस अच्छा रहा, लेकिन बाद में इनमें से 10 के शेयर की कीमत 10 फीसदी रह गई। अगर आईआरसीटीसी के साथ भी ऐसा होता है तो इसे एक तरह से रेलवे का बैक डोर से निजीकरण माना जाना चाहिए, क्योंकि रेलवे की तमाम सेवाएं पहले से ही आईआरसीटीसी के पास हैं।
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ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के महासचिव शिवगोपाल मिश्रा तेजस के उदाहरण से कई खतरों की ओर इशारा करते हैं। कहते हैं, दूसरी गाड़ियों को रोककर तेजस को पास दिया जा रहा है, ताकि वह समय से पहुंचे। यह दूसरी ट्रेनों के यात्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार है। तेजस का किराया इतना है कि केवल अमीर सफर कर पाएंगे। मिश्रा के मुताबिक, एक साथ 150 ट्रेनों का निजीकरण किया जा रहा है। हालांकि अभी रेलवे बोर्ड ने हमें विश्वास दिलाया कि पुरानी ट्रेनों का निजीकरण नहीं किया जाएगा, फिर भी इसका व्यापक विरोध होगा क्योंकि इसका असर कर्मचारियों से ज्यादा आम यात्री पर पड़ेगा।
रेलवे को एक अन्य पैमाने पर भी देखने की जरूरत है। रेलवे की कमाई का मुख्य स्रोत मालभाड़ा है। 2018-19 में ही रेलवे को लगभग 1 लाख 21 हजार करोड़ रुपये की आमदनी मालभाड़े से हुई है। नरेंद्र मोदी सरकार मालगाड़ियों की रफ्तार बढ़ाने को लेकर कितनी सजग है, इसे देखने की जरूरत है। 2006 से जिस डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर की बात हो रही है, वह अब तक बनकर तैयार नहीं हुआ।
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दरअसल, 2006 में निर्णय लिया गया था कि मालगाड़ियों के लिए दो अलग-अलग कॉरिडोर बनाए जाएं जो दिल्ली से मुंबई और दिल्ली से हावड़ा के बीच होंगे। इससे दो फायदे होंगेः एक तो मालगाड़ी की रफ्तार बढ़ेगी; दूसरा, मालगाड़ियों के अलग कॉरिडोर पर चलाने से सवारी गाड़ियों की रफ्तार भी बढ़ेगी। लेकिन ये दोनों कॉरिडोर अभी तक पूरे नहीं हो पाए हैं। इसके लिए एक अलग कंपनी बनाई गई है जिसे डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड कहा जाता है। कंपनी प्रबंधन कई बार दावा कर चुका है कि फ्रेट कॉरिडोर को चरणबद्ध तरीके से शुरू किया जाएगा, लेकिन अब तक एक चरण भी शुरू नहीं हो पाया है जबकि कंपनी ने दोनों कॉरिडोर को शुरू करने का लक्ष्य दिसंबर 2021 रखा है। इन दोनों कॉरिडोर पर लगभग 81 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। लेकिन अब सरकार की योजना इन कॉरिडोर के ट्रैक पर प्राइवेट ट्रेन चलाने की है, यानी पब्लिक मनी से तैयार किए गए इंफ्रास्ट्रक्चर का फायदा प्राइवेट कंपनियों को मिलने वाला है।
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