एनडीए सरकार के मुखर आलोचक माने जाने वाले आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सरकार की नीतियों पर हमला करते हुए कहा है कि सरकारी बैंकों के कामकाज और नियुक्तियों में सुधार के लिए सरकार अभी तक सिर्फ प्रयास ही कर रही है। उन्होंने एक पेपर में बैंकों की व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए 2015 में हुए "ज्ञान संगम की नाकामी" पर भी प्रकाश डाला है। इस पेपर को राजन ने आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के साथ लिखा है, जिन्होंने मोदी सरकार की आरबीआई में बढ़ती दखलंदाज़ी से चिढ़कर इस्तीफा दे दिया था।
वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा विभाग को खत्म करने और सरकारी हिस्सेदारी को 50 प्रतिशत से कम करने सहित बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों पर कई सुझाव देते हुए, राजन ने पेपर में कहा है कि इनमें से कई मुद्दों पर पूर्व पर चर्चा तो हुई लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि यह वे मुद्दे हैं जो सरकारी बैंकों और उनको चलाने के तौर-तरीकों की बात करते हैं। राजन ने कहा, "आखिर बैंकों के सामने ऐसा कौन सा कारण है जिससे लगता हो कि इन सुझावों को अब लागू कर दिया जाएगा। " राजन और आचार्य ने पेपर में कहा, " सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सुधारने के लिए एक लाभकारी चेतावनी यह होना चाहिए कि एनडीए सरकार इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठा पाई है।"
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पेपर मे कहा गया है कि पी जे नायक कमेटी की 2014 की रिपोर्ट के बाद सरकार कई लोगों को ज्ञान संगम में लेकर आई थी। रिपोर्ट में बैंक बोर्ड ब्यूरो बनाने की सिफारिश थी जो बैंकों में नियुक्तियों और बोर्ड के गठन को तय करे ताकि सभी बैंकों की अपनी अलग-अलग व्यवसायिक नीति हो। ज्ञान संगम में एक शिकायत आम थी कि सभी सरकारी बैंकों की सारी शाखाएं एक जैसी ही लगती हैं, वह किसी भी बैंक की हों और देश के किसी भी हिस्से में हों। बैंक बोर्ड ब्यूरो के विचार के प्रधानमंत्री ने भी समर्थन दिया था। ज्ञान संगम की अध्यक्षता प्रधानमंत्री ने ही की थी। उस समय रघुराम राजन आरबीआई गवर्नर होते थे।
राजन ने पेपर में कहा है, "पांच साल बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ भी नहीं बदला है। सरकार अभी भी बैंकों के सीईओ की नियुक्ति करती है, जबकि पहले सरकारी नौकरशाहों और नियामकों (कुछ शिक्षाविदों और सेवानिवृत्त बैंकरों की एक बाहरी राय) को सुनिश्चित करने के लिए एक नामांकन समिति की नियुक्ति के पहले अभ्यास के बजाय) और उसी समिति को बैंक बोर्ड ब्यूरो में रख दिया गया है।
उन्होंने कहा, "बैंकों के सीईओ चुनने और उन्हें बैंकों में नियुक्त करने का अंतिम निर्णय अभी भी सरकार के पास है। वित्तीय सेवा विभाग अभी भी बैंक बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करता है और विलय जैसी महत्वपूर्ण रणनीति तय करता है।"
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राजन और आचार्य ने सवाल उठाया है कि, "ज्ञान संगम की नाकामी बताती है कि किसी भी परिवर्तन को स्थिर राजनीतिक समर्थन जरूरी है जिसे नौकरशाही को मानना ही होगा, खासतौर से वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा विभाग, जिसे बदलने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन मिलता है। फिर भी केवल नौकरशाही को दोष देना अनुचित है - सत्ता में मौजूद सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहती, आखिर क्यों?
पेपर में तर्क दिया गया है कि, “सरकार बैंकों को कर्ज देने के निर्देश देकर जबरदस्त शक्ति हासिल कर लेती है। कई बार इसी शक्ति का इस्तेमाल वित्तीय समावेशन या बुनियादी ढाँचे के वित्त जैसे सार्वजनिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है। कभी इसका उपयोग, उद्योगपतियों पर नियंत्रण करने या उन्हें संरक्षण देने के लिए किया जाता है।"
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पेपर कहता है कि, “सरकार के पास संवेदनशील सूचनाओं का अथाह भंडार है। मसलन सरकार को पता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड किसने खरीदे हैं, क्योंकि जाहिर तौर पर यह जानकारी सिर्फ एसबीआई के पास है।” पेपर के मुताबिक “सरकार अपनी पार्टी के मनपसंद सदस्यों को बैंक बोर्डों में नियुक्त करती है, और एक बार वे वहां पहुंच गए तो इनमें से कुछ अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपनी पसंद के लोगों को कर्ज दिलाने में करते हैं।“
पेपर में राजन और आचार्य ने कहा है कि, “सभी दलों के सांसद भी सरकारी बैंकों की मेहमाननवाजी से वंचित नहीं हैं। कई बार बैंकों को इनकी फैक्ट फाइंडिंग टीम के लिए शानदार जगहों पर रहने-ठहरने आदि की व्यवस्था करनी होती है। वहीं वित्त मंत्रालय के अफसर भी अपनी शक्तियां कम नहीं करना चाहते क्योंकि एक युवा ज्वाइंट सेक्रेटरी तक किसी भी सरकार बैंक के चेयरमैन को आदेश दे सकता है।”
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राजन और विरल आचार्य ने कहा है कि परविर्तन बहुत जरूरी है, और हो सकता है कि महामारी ऐसा करने के लिए सरकार को मजबूर कर दे।
पेपर में कहा गया है कि, “बैंकों की खर्च प्रणाली बड़े-बड़े कर्ज के नुकसान के रूप में सामने आती है, जो जल्द ही इतना बढ़ जाएगा कि सरकार को इसे चुकाना असंभव हो जाएगा। सरकारी घाटा और कर्ज का स्तर वहां पहुंच गया है जहां सरकार के पास बैंकों को फिर से वित्तपोषण करने की गुंजाइश नही नहीं रह जाएगी।”
राजन और विरल आचार्य कहते हैं कि, “बोझ में दबे और कम पूंजी वाला बैंकिंग सिस्टम कभी भी कर्ज देने की स्थिति में नहीं हो पाएगा, जिसका गहरा बोझ आर्थिक वृद्धि पर पड़ेगा। बीते 6 साल में ऐसा ही हो रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि अगर सुधार नहीं होते हैं तो बैंकों का नुकसान बढ़ता ही चला जाएगा।”
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