बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में आलू के साथ-साथ फूलगोभी, बंदगोभी और टमाटर के भाव काफी गिर गए हैं। हाल यह है कि किसानों को इनके भाव तीन रुपये किलोग्राम भी नहीं मिल रहे। इस वजह से पंजाब के साथ-साथ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसान भी अपनी फसल बर्बाद कर रहे हैं। सब्जियां उगाने वाले एक किसान ने कहा भी कि 'मैं इसे पैदा करता हूं और अब इसे नष्ट कर रहा हूं। यह बहुत मुश्किल है लेकिन मैं और कर ही क्या सकता हूं?'
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पिछले महीने तेलंगाना में जहीराबाद जिले के कुछ हिस्सों की यात्रा के दौरान मैंने बंपर फसल के बाद टमाटर किसानों को इसी तरह रोते-कलपते देखा। यह पूछने पर कि वे टमाटर खेतों से क्यों नहीं निकाल रहे, एक दुखी टमाटर किसान ने कहा कि जब बाजार में ही इसकी कीमत लगभग 2 रुपये किलो है, तो टमाटर तोड़ने और उसे बाजार तक ढोकर ले जाने का अतिरिक्त खर्च वह नहीं उठाना चाहते। उन्होंने कुंठा में अनमने ढंग से कहा कि 'जितना मन हो, आप तोड़ लो।'
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छत्तीसगढ़ से पिछले पखवारे की एक खबर में बताया गया था कि महासमुंद से एक किसान 1,475 किलोग्राम बैंगन लेकर रायपुर मंडी आया और इससे उसे जितनी आय हुई, ट्रांसपोर्टेशन और अन्य खर्चों के लिए उसे उससे 121 रुपये अधिक खर्च करने पड़े। एक महीने पहले मीडिया में लहसुन किसानों की भी इसी तरह अपनी फसल नष्ट कर देने की खबरें थीं। यह प्याज उगाने वालों की तरह ही थीं। अगर आप गूगल सर्फिंग करें, तो उपज को लेकर किसानों की चिंताओं पर हजारों मीडिया और अकादमिक रिपोर्ट मिल जाएंगी। स्टॉक मार्केट में उठापटक पर तो सरकार और मीडिया अलग ढंग से प्रतिक्रिया जताती हैं और मंत्री तथा अधिकारी नियमित तौर पर इस बारे में मीडिया में ब्रीफिंग करते हैं। लेकिन खेती-किसानी की वजह से जीवन पर पड़ने वाले असर पर कोई प्राइम टाइम और पैनल डिस्कशन नहीं होता। हां, जब इनके भाव बढ़ने से मुद्रास्फीति बढ़ने लगती है, तो पैनल डिस्कशन होने लगते हैं।
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केन्द्रीय वित मंत्री निर्मला सीतारमण वैसी बाजार मध्यवर्तन (इंटरवेंशन) योजना (एमआईएस) को मजबूत करने की जरूरत महसूस नहीं करतीं कि बंपर फसल होने पर या लागत की तुलना में कम फसल होने पर बाजार मूल्य कम होने पर हस्तक्षेप किया जा सके। 2022-23 के केन्द्रीय बजट में मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस) और एमआईएस में वस्तुतः काफी कमी कर दी गई। पिछले साल इसके लिए 1,500 करोड़ का आवंटन किया गया था जबकि एमआईएस के लिए बजटीय प्रावधान अब महज एक लाख रुपये हो गया है। हिमाचल प्रदेश और कश्मीर में सेब बागवानों ने धमकी दी है कि अगर एमआईएस खर्च नहीं बढ़ाए गए, तो वे सड़कों पर उतरेंगे। दरअसल, यह खर्च नहीं बढ़ा, तो कम गुणवत्ता वाले ऐसे सेबों की वार्षिक खरीद प्रभावित होगी जिनकी सरकारी एजेंसियां खरीद करती हैं।
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टमाटर, प्याज और आलू की कीमतें जिस तरह आम तौर पर अस्थिर रहती हैं, उन पर नियंत्रण करने के लिए 500 करोड़ के खर्च का प्रावधान करते हुए 2018-19 के बजट में ऑपरेशन ग्रीन्स की शुरुआत की गई। केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने आत्मनिर्भर अभियान के तहत सभी फलों और सब्जियों को इस योजना के दायरे में रखा। लेकिन, लगता है, 2023 में इसे भुला दिया गया है।
कुछ अवसरों को छोड़कर ऑपरेशन फ्लड ने खराब हो जाने वाले उत्पाद- दूध की कीमतों में उतार-चढ़ाव को नियंत्रित किए रखा। उसी व्यवस्था को थोड़े-बहुत बदलाव के साथ फलों और सब्जियों में कीमतों के उतार-चढ़ाव के लिए लागू किया जा सकता था। कहने की जरूरत नहीं कि तापमान-नियंत्रित भंडारण व्यवस्थाओं और ऐसे वैल्यू चेन के पुनर्निर्माण के प्रयास की आवश्यकता है जो प्रसंस्करण और स्थानीय पहुंच बना पाएं। इससे भी ज्यादा जरूरी, कीमतों में उतार-चढ़ाव को दूर करते हुए किसानों के लिए गारंटी वाली कीमतों को सुनिश्चित करना दिशानिर्देशक होना चाहिए। इसके लिए केरल में की गई उन व्यवस्थाओं से सबक लेने की जरूरत है जिनसे सब्जी उगाने वालों को निश्चित मूल्य सुनिश्चित किए गए हैं।
उपभोक्ता ऊंची कीमतें देते हैं लेकिन बड़े, संगठित व्यापार के मोलतोल की वजह से किसानों की मेहनत तो धरी रह जाती है।
(देविन्दर शर्मा जाने-माने खाद्य नीति विश्लेषक और कृषि क्षेत्र से संबंधित मुद्दों के विशेषज्ञ हैं। बिजबज में पहले प्रकाशित उनके लेख का यह संक्षिप्त रूप है।)
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