पीएम मोदी ने वाराणसी से जब चुनाव लड़ा था तो खुद को मां गंगा का बेटा कहा था। उन्होंने तमाम वादे किए थे, जिनमें से एक काशी को क्योटो बनाना भी था।
लेकिन करीब साढ़े चार साल बाद क्या वाराणसी में कुछ बदला है?
“न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं यहां आया हूं. मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है....” नरेंद्र मोदी जब 14 अप्रैल 2014 को वाराणसी से नामांकन दाखिल करने आए थे तो उन्होंने यह बात कही थी। लेकिन अब लोग “गंगा मां के इस बेटे” के बारे में क्या कह रहे हैं शायद मोदी जी को सुनाई नहीं दे रहा।
ट्रैवल ब्लॉगर भावना कहती हैं कि, “नरेंद्र मोदी के यहां से सासंद बनने के बाद विश्व पर्यटक मानचित्र पर वाराणसी नए सिरे से स्थापित हुआ था, लेकिन जापान का शहर क्योटो एकदम अलग है। शहर में दुर्गाकुंड और अस्सी घाट तो ठीक है, लेकिन सड़कों की हालत खस्ता है। मोदी जी की गंगा में अब भी सिर्फ ज्यादातर गंदगी ही बहती है।”
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वहीं एक स्थानीय बनारसी का कहना है कि, “जिन जगहों का असलियत में विकास होना चाहिए था, वहां तो कुछ हुआ ही नहीं। घाटों पर अब भी पहले की तरह गायें विचरण करती फिरती हैं, पहले की ही तरह चारों तरफ गंदगी फैली है, और हालात बदतर होते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि मोदी जी कोई भी वह वादा पूरा कर पाएंगे जो उन्होंने चुनाव जीतने के लिए किया था।”
“हमने सुना है कि मोदी जी काशी विश्वनाथ में दर्शन करने आएंगे, मैं उनसे अपील करूंगी कि वे कम से कम यह समझने की कोशिश तो करें कि श्रद्धालुओं को मंदिर तक पहुचने में कितनी दिक्कतें आती हैं।” यह कहना है वाराणसी में रहने वाली प्रियंका का।
वाराणसी के एक व्यापारी बताते हैं कि, “हमें मोदी जी से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन यह सब बातें ही निकलीं और काम कुछ हुआ नहीं। शहर में कुछ खास हो भी नहीं रहा है। सड़कें तो जैसे है ही नहीं। हमें लगता था कि काशी प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र बना है तो जल्द ही क्योटो बन जाएगा, लेकिन यहां तो चलते वक्त यही पता नहीं चलता कि आप चल किस पर रहे हो, सड़क पर या गड्ढों में।“
पिछले दिनों वाराणसी घूमने आए एक विदेशी पर्यटक ने शहर का जो वीडियो पोस्ट किया, वह तस्वीर को आइने की तरह साफ कर देता है।
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द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक वाराणसी में हर रोज़ करीब 32.15 करोड़ लीटर सीवर पैदा होता है। शहर में लगे सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता महज 10.18 करोड़ लीटर प्रतिदिन की है, बाकी का सारा कचरा और गंदगी वरुण और अस्सी में गिरता है। यह दोनों नदियां, जो अब नाला नजर आती हैं, शहर के बीच से गुजरती हैं।
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शहर के ज्यादातर बुनकरों ने अब हैंडलूम छोड़कर पॉवरलूम सहारा ले लिया है, लेकिन पॉवरलूम की अपनी दिक्कतें हैं। उन्हें आसानी से बिजली कनेक्शन ही नहीं मिल पाते। इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नालॉजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुचारु बिजली आपूर्ति न होने के चलते बनारसी साड़ियों का उत्पादन करीब 90 फीसदी तक घट गया है और हालत यह है कि बुनकर बिजली के बिल तक नहीं चुका पा रहे हैं। सब पर 20 हजार से लेकर 2 लाख रुपए तक के बिल बकाया हैं।
कई परिवारों ने तो बिजली बिल भरने के लिए अपने घर बेच दिए और दूसरी जगहों पर जाकर बस गए। विडंबना यह भी है कि जो 10 फीसदी बुनकर पॉवरलूम का इस्तेमाल कर रहे हैं उनके पास बिजली कनेक्शन लेने तक के पैसे नहीं है, और नतीजतन वे चोरी की बिजली से काम चलाते हैं।
इसके अलावा करीब 70 फीसदी बुनकर बेहद गरीबी में रह रहे हैं। उनके बच्चों के लिए न तो शिक्षा की व्यवस्था है और न ही किसी और किस्म की। बुनकर होने के बावजूद वे मशीने नहीं खरीद पा रहे और गद्दीदारों से किराए पर मशीने लेकर जैसे तैसे रोज़ी कमा रहे हैं। इन मशीनों का मोटा किराया होता है, जिसे चुकाने के बाद उनके पास कुछ बचता ही नहीं है।
बहुत सारे कुशल कारीगरों ने बुनकरी का काम छोड़कर रिक्शा चलाना शुरु कर दिया या फिर अगरबत्ती बनाने या खेतों में मजदूरी कर रहे हैं। इन परिवारों की महिलाएं लोगों के घरों में काम कर जिंदगी बसर कर रही हैं।
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