त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ी गई और तमिलनाडु के वेल्लुर में पेरियार की मूर्ति। यह किनकी मूर्तियां हैं जिन्हें तोड़ा जा रहा है? यह कौन लोग हैं जिनसे उनके दुश्मन उनकी मृत्यु के 50-50, 100-100 साल बाद भी घबराए हुए हैं? उनके जिंदा विचारों में ऐसी कौन सी चीज है जो अभी भी उनके विरोधियों को एक खतरे की तरह दिखाई देती हैं? इन मूर्तियों को तोड़ने वाले क्या यह जानते हैं कि मूर्तियां विचार नहीं हैं, सिर्फ विचारों का प्रतीक हैं और उन विचारों को आगे बढ़ाने वाले लोग जब तक रहेंगे तब तक उन्हें मूर्तियां तोड़ने से खत्म नहीं किया जा सकता। और इस संदर्भ में पेरियार और उनके विचारों को जानना दिलचस्प हो सकता है।
17 सितंबर 1879 को तमिलनाडु के ईरोड में जन्मे पेरियार का लगभग पूरा वयस्क जीवन धार्मिक अंधविश्वासों, जाति-व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ते हुए गुजरा। ‘पेरियार’ उनका असली नाम नहीं था, उनके प्रशंसक उन्हें प्यार से इस नाम से पुकारते थे। इसका हिंदी अर्थ है ‘पवित्र आत्मा’। 1904 में अपनी बनारस यात्रा के बाद नास्तिक बने ई.वी. रामास्वामी नायकर जाति-व्यवस्था इतने धुर-विरोधी थे कि उन्होंने 1929 में अपना उपनाम ‘नायकर’ त्याग दिया।
तमिलनाडु में पिछले 50 वर्षों से भी ज्यादा से द्रविड़ पार्टियों का एकाधिकार कायम है और देश की कोई भी राजनीतिक शक्ति राज्य में द्रविड़ विचारधारा के खिलाफ जाकर आगे बढ़ने के बारे में सोच भी नहीं सकती। उस द्रविड़ विचारधारा की बुनियाद को खड़ा करने में पेरियार का योगदान है। तमिल राष्ट्रवाद के समर्थक रहे पेरियार ने 1925 में द्रविड़ आंदोलन या आत्मसम्मान आंदोलन की शुरूआत की थी। लेकिन एक विचारक, राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पेरियार की भूमिका बहुत विस्तृत है। 1919 से 1925 के दौरान पेरियार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का हिस्सा रहे और थोड़े समय के लिए मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस समिति के अध्यक्ष भी रहे। इस दौरान उन्होंने असहयोग आंदोलन में भागीदारी की और जेल भी गए।
1939 में वे जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष बने। 1944 में जस्टिस पार्टी का ही नाम बदलकर द्रविड़ कड़गम कर दिया गया। लेकिन 1949 में पार्टी के लोकप्रिय नेता अन्नादुरई के साथ पेरियार का मतभेद हो गया और इसके चलते पार्टी में विभाजन हो गया, जिसके बाद अन्नादुरई ने डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) बनाई।
एशिया के सुकरात के रूप में प्रसिद्ध पेरियार विचारों से क्रांतिकारी और तर्कवादी थे। वह एक धार्मिक हिंदू परिवार में पैदा हुए, लेकिन आजीवन ब्राह्मणवाद के विरोधी रहे। उन्होंने ब्राह्मणवादी ग्रंथों को जलाने के साथ-साथ रावण को अपना नायक भी माना।
1925 में उन्होंने ‘कुडियारासु’ (गणराज्य) नामक एक समाचार पत्र तमिल में निकालना शुरू किया। इसके अलावा उन्होंने कई किताबें भी लिखीं जिसमें ‘सच्ची रामायण’ भी शामिल है।
वे बाल विवाह, देवदासी प्रथा और हिंदू वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थे। स्त्रियों और दलितों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए निरंतर संघर्ष में लगे रहे।
24 दिसंबर 1973 को पेरियार की मृत्यु हो गई, लेकिन अपने समय और उसके बाद के समय को पेरियार ने कई स्तरों पर प्रभावित किया है। उनकी भाषा में मौजूद तीखेपन और व्यंग्य को लेकर दो अलग-अलग तरह की राय है। कुछ लोग इसे उकसावे की कार्रवाई मानते हैं तो कुछ इसे वैचारिक धार के लिए जरूरी मानते हैं। सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन अपने मृत्यु के 45 साल बाद भी पेरियार अपने विरोधियों और दक्षिणपंथी ताकतों के लिए एक चुनौती बने हुए हैं। पेरियार के विचारों में यकीन करने वालों की तादाद दक्षिण भारत की राजनीति में फिलहाल तो अजेय नजर आती है।
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