ममता-बीजेपी संघर्ष जैसे-जैसे तेज होता गया, वैसे-वैसे पश्चिम बंगाल में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) का शोर बढ़ता गया है। नागरिकता संशोधन काननू ने इसे और तीव्र कर दिया है। जैसे-जैसे पूर्वोत्तर में आग बढ़ती जा रही है, उसकी तपिश यहां भी महसूस की जा रही है। वजह भी है। केंद्र की नरेंद्र मोदी-अमित शाह सरकार ने एनआरसी और नागरिकता काननू का हव्वा जिस तरह खड़ा किया है, उसके बाद पूर्वोत्तर, खासतौर से असम, में स्थानीयता को बचाने के नाम पर बांग्ला भाषियों के खिलाफ लोग एक तरह से सड़कों पर आ गए हैं।
बंगाल को उस आग की चपेट में आना ही है। 1971 का बांग्लादेश युद्ध तो छोड़िए, यहां भी वैसे लोग काफी संख्या में हैं जो 1947 में आजादी के समय या उसके तत्काल बाद आकर बसे। एनआरसी और नागरिकता काननू के नाम पर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी तत्व उन्हें लेकर संदेह और भ्रम फैलाने में लगे हैं। अब जैसे उत्तर 24-परगना जिले में बांग्लादेश से लगे अशोकनगर इलाके में रहने वाले 45 साल के बशीर अहमद को ही लें। छोटी-मोटी दुकान चला कर अपने आठ सदस्यों के परिवार का पेट पालते हैं। उनसे मुलाकात में उनके चेहरे पर आतंक की छाप साफ नजर आती है।
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बशीर कहते हैं, “मेरे दादा जी देश की आजादी के बाद ही बांग्लादेश के चटगांव से यहां आ कर बसे थे। न तब किसी ने कोई दस्तावेज मांगा था, न ही हमने इस ओर ध्यान दिया था। उस समय तो जान के लाले पड़े थे। लेकिन एनआरसी और अब नागरिकता (संशोधन) काननू ने हमारी नींद उड़ा दी है। आखिर हम कैसे साबित करेंगे कि कब भारत आए थे।”
नागरिकता (संशोधन) विधेयक जैसे ही लोकसभा में पेश हुआ, इससे खासकर बांग्लादेश से सटे इलाकों में आतंक पैदा हो गया। हालांकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भरोसा दिया है कि बंगाल में किसी भी हालत में एनआरसी लागू नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन लोगों को केंद्र की मंशा और नीयत डरा रही है। इसी वजह से बशीर- जैसे लाखों लोगों के चहरों पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रही हैं। यही वजह है कि बीते चार-पांच महीनों के दौरान कम-से-कम 20 लोगों ने आत्महत्या कर ली है। राशन कार्ड बनवाने और जमीन के पुराने दस्तावेज निकालने के लिए सरकारी दफ्तरों के सामने दिन-ब-दिन लंबी होती कतारों से स्थानीय लोगों में पैदा होने वाले आतंक का अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है।
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मालदा जिले में बांग्लादेश की सीमा से लगे एक गांव में रहने वाले जलालुद्दीन कहते हैं, “ममता बनर्जी भले बंगाल में एनआरसी और नागरिकता विधेयक लागू नहीं होने देने का भरोसा दे रही हैं। लेकिन आखिर कब तक? मोदी सरकार न जाने क्या करे? बात-बात पर धार्मिक ध्रुवीकरण की जिस तरह कोशिशें हो रही हैं, उसमें अगर दुर्भाग्यवश बीजेपी यहां कभी सत्ता में आ गई तो हमारा क्या होगा? क्या हमें जेल या बांग्लादेश भेज दिया जाएगा?”
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। जलालुदद्दीन और बशीर कहते हैं कि हम तो न घर के रहेंगे और न घाट के। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन इलाकों में सिर्फ अल्पसंख्यक ही आतंकित हैं। देश के विभाजन के बाद सीमा पार से आने वाले हिंदुओं की हालत भी ऐसी ही है। मुर्शिदाबाद जिले के अनिर्बाण भट्टाचार्य कहते हैं, “मेरे पास तो आधार कार्ड है। लेकिन ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो साबित करे कि हम साठ के दशक में ही भारत आए थे।” ऐसे लोग फिलहाल दस्तावेजों की तलाश में रोजाना सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते हुए चप्पलें घिस रहे हैं। उत्तर बंगाल में कूचबिहार जिले की रहने वाली मानसी बेरा की भी यही स्थिति है। वह कहती हैं, “इस उम्र में अब कागजात कहां से ले आएं? मैंने सबकुछ नसीब पर छोड़ दिया है।”
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वैसे, बंगाल में एनआरसी और नागरिकता विधेयक के मुद्दे बेहद संवेदनशील रहे हैं। इन दोनों मुद्दों की वजह से ही हाल में विधानसभा की तीन सीटों के लिए हुए उपचनुावों में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी। यह बात खुद बीजेपी नेता भी स्वीकार कर चुके हैं। यह संयोग नहीं है कि जिन तीन सीटों पर उपचनुाव हुए, उनमें से दो बांग्लादेश सीमा से सटी हैं। पश्चिम बंगाल में घुसपैठ की समस्या असम से भी ज्यादा पुरानी और गंभीर है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के लोगों की बोली, रहन-सहन और रीति-रिवाजों में समानता की वजह से सीमा पार से आने वाले लोगों की पहचान मुश्किल है।
साल 1947 के विभाजन के चलते सीमा पार से शरणार्थियों के आने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह कभी रुका नहीं। साल 1947 से 1971 के बीच बंगाल में सीमा पार से आने वाले सत्तर लाख शरणार्थियों ने राज्य की आबादी का ग्राफ तो बदला ही, भावी राजनीति की दशा-दिशा भी तय कर दी। 1971 के बाद भी शरणार्थियों के आने का सिलसिला जारी रहा। तमाम राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल अपने वोट बैंक की तरह करते रहे हैं। बड़े पैमाने पर होने वाली इस घुसपैठ ने इस राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति के ढांचे और स्वरूप को इस कदर बिगाड़ दिया कि यह अब तक सही रास्ते पर नहीं लौट सकी है। फिलहाल राज्य की आबादी में लगभग 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है।
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हालांकि, प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, “बंगाल में पहले नागरिकता (संशोधन) काननू लागू किया जाएगा और उसके बाद ही एनआरसी की कवायद शुरू होगी। इस काननू के जरिये तमाम हिंदुओं को भारतीय नागरिकता दी जाएगी। यहां से एक भी हिंदू को बाहर नहीं निकाला जाएगा।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस काननू के समर्थन में जनवरी से राज्य में जागरूकता अभियान चलाने की बात कही है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस महासचिव पार्थ चटर्जी बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कथनी और करनी में फर्क होने का दावा करते हैं।
पार्थ चटर्जी कहते हैंः असम की एनआरसी में 12 लाख बंगालियों और हिंदुओं का नाम नहीं होना आखिर क्या साबित करता है? इससे साफ है कि यह बंगालियों को निशाना बनाने का हथियार है। चटर्जी कहते हैं कि खुद को हिंदुओं की हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टी को बताना चाहिए कि आखिर सूची से हिंदुओं और बंगालियों के नाम क्यों गायब हैं?
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कलकत्ता रिसर्च ग्रुप की रिया डे कहती हैंः “एनआरसी और नागरिकता काननू की वजह से बंगाल के हिंदू और मुस्लिम- दोनों तबकों में भारी आतंक है। यही वजह है कि लोगों में उत्तराधिकार के दस्तावेज तलाशने की होड़ मची है। सीमा पार से आने वाले शरणार्थिों के अलावा राज्य के गरीब तबके के लोगों में भी भारी आतंक है। बंगाल में 70 फीसदी आबादी के पास जमीन का मालिकाना हक नहीं है। ऐसे में उनको अपनी नागरिकता साबित करने में भारी मशक्कत करनी पड़ सकती है।”
वरिष्ठ लेखक और भाषा और चेतना समिति के नेता इमानुल हक कहते हैं, “मेरे पूर्वज बर्दवान जिले के हैं। लेकिन तब खासकर निरक्षर लोगों के लिए पहचान के दस्तावेज हासिल करना या फिर उनको सुरक्षित रखना मुश्किल था।” राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में एनआरसी और नागरिकता विधेयक लागू करने की स्थिति में खासकर सीमावर्ती इलाकों में सामाजिक और आर्थिक तस्वीर पूरी तरह बदल जाएगी। राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैंः “असम के बाद बीजेपी की निगाहें अब बंगाल पर हैं। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अब बंगाल की सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रहा है। एनआरसी और नागरिकता काननू को यहां लागू करने का मुख्य मकसद तृणमूल कांग्रेस के अल्पसंख्यक वोट बैंक को ध्वस्त करना है। पार्टी जानती है कि ऐसा किए बिना ममता के किले में सेंध लगाना संभव नहीं है।”
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