लाल चौक के क्लॉक टावर के ऊपर, श्रीनगर में डल लेक और पहलगाम तथा गुलमर्ग-जैसे पर्यटन स्थलों पर फहर रहे तिरंगे से ‘ऑल इज वेल’ का नैरेटिव सही ही लगता है। एक वक्त नियमित लग जाने वाला कर्फ्यू अब इतिहास है। अचानक उभर आने वाली पत्थर बरसाती भीड़ भी अब नहीं दिखती। श्रीनगर शांत है और पहले की तरह ही खूबसूरत। पर यह सब तब तक ही है जब तक आप गलियों में नहीं घुसते जहां ज्यादतियों को लेकर कुंठाओं की आवाज और विधानसभा चुनाव के लिए तड़प उभरती है।
अधिकतर कश्ममीरी नहीं सोचते कि चुनाव अपरिहार्य है। तीन साल से बिना चुनाव हुए और बिना विधानसभा ही इस पूर्ण राज्य को केंद्रशासित बना दिया गया और इसे दो हिस्सों में बांट दिया गया। लेकिन एक बिंदु पर कश्मीरी एक मत हैं; यहां तक कि अलगाववादी और वे लोग भी जिन्होंने पहले चुनावों के बहिष्कार किए थे। ये सभी कहते हैं कि चुनाव जल्द होने चाहिए इसलिए नहीं कि लोकतंत्र में उनका विश्वास अचानक बढ़ गया है बल्कि, उन्हें यकीन है कि, चुनाव उस ‘निरंकुश उपकरण’ को समाप्त कर देगा जिसने उनका गला घोंट रखा है।
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इमरान गिलानी की बात से समझ में आता है कि सामान्य चीजों के लिए भी लोगों को किस किस्म की दिक्कत हो रही है। वह बताते हैं कि कोई चुनी हुई सरकार तो है नहीं, सो ‘अधिकारी पहले की तुलना में कहीं अधिक हठी और मगरूर हो गए हैं और अधिकांश तो हममें से सबके लिए पहुंच से बाहर हैं। वैसे भी, हर कोई हर चीज के लिए तो उपराज्यपाल के पास जा नहीं सकता।’ जम्मू-कश्मीर व्यापार संघ के अबरार खान भी कहते हैं कि ‘जिस तरह स्थानीय विधायक तक जाया जा सकता था, एलजी के पास उस तरह की पहुंच तो है नहीं।’
इन लोगों का अनुमान है कि अगले चुनाव में भारी वोटिंग होगी। वैसे, पीडीपी के रऊफ बट्ट कहते हैं कि हर कोई आशंका जता रहा है कि चुनाव में धांधली होगी और कठपुतली शासन बिठा दिया जाएगा। फिर भी भारी वोटिंग होगी क्योंकि लोग ऐसा स्थानीय विधायक चाहेंगे जिस तक वे पहुंच सकें। अनंतनाग में रशीद डार कहते हैं कि इस किस्म की आशंकाएं बेवजह नहीं हैं। सज्जाद लोन, अल्तताफ बुखारी और अब गुलाम नबी आजाद को जिस तरह बढ़ाया गया है, वह शीशे की तरह साफ है। वह कहते हैं कि ‘अल्तताफ बुखारी को पैसे दिए गए, बड़ा ऑफिस दिया गया और सुरक्षा कवर दिया गया- ताकि वह अपनी पार्टी- जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी को स्थापित कर सकें।’ उन्हें संदेह नहीं है कि आजाद जैसे दूसरों को भी संसाधनों की कोई कमी नहीं होगी।
एनडीए गठबंधन में शामिल राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के प्रवक्ता संजय सर्राफ भी इस किस्म की आशंकाएं जताते हैं। वह घाटी में रहते हैं और कश्मीरी पंडितों के बीच प्रमुख स्वर माने जाते हैं। वह कहते हैं कि ‘राजनीतिक वर्ग के विरोध के बावजूद आम लोगों ने अगस्त, 2019 में बदलावों का विरोध नहीं किया और राज्य का विभाजन स्वीकार कर लिया। लेकिन लोन और बुखारी- जैसे लोगों को जिस तरह तवज्जो दी जा रही है, उससे आम प्रतिरोध पनप सकता है।’
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यहां बिजनेस और रोजगार के अवसर थम गए हैं। पर्यटक रिकॉर्ड संख्या में आए लेकिन विकास और रोजगार की दिशा में बहुत थोड़ा काम हुआ। कई लोग कहते हैं कि रामबनिहाल रोड और टनल सरकार की एकमात्र उल्लेखनीय उपलब्धि बनी हुई है। कांग्रेस प्रवक्ता और सिख समदुाय के प्रमुख नेता सुरेन्दर सिंह चन्नी यह तो मानते हैं कि सुरक्षा की स्थिति सुधरी है, पर अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी को लेकर बढ़ रही कुंठा परिस्थितियों में जल्द ही बदलाव ला सकती है। कुलगाम के व्यापारी जुबेर तो यह तक कहते हैं कि ‘2019 से पहले हमारी हालत काफी अच्छी थी और हमारे जीवन की गुणवत्ता देश के कई हिस्सों से कहीं बेहतर थी।’
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झारखंड में दमुका के रहने वाले संतोष महतो काम की तलाश में करीब 15 साल से कश्मीर आते-जाते रहे हैं। वह बताते हैं कि ‘जब टूरिस्ट सीजन खत्म हो जाता है, तो यहां मेन्टेनेंस और निर्माण के काम होते हैं। मैं तीन से चार महीने काम करता हूं और अपनी पत्नी के एकाउंट में हर साल 1 से 2 लाख भेज देता रहा हूं।’ श्रीनगर से दक्षिण की तरफ जाते हुए यूपी, उत्तराखंड, बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ के लोग बड़ी संख्या में मिल जाते हैं। वे घरेलू सहायक, निर्माण कार्य मजदूर, ड्राइवर, ट्रांसपोर्टर के तौर पर या बागानों, खेतों, दुकानों में काम करते हैं।
ये प्रवासी मजदूर अब यहां के अभिन्न अंग हैं। लेकिन झारखंड के दमुका के ही निर्माण मजदूर रामचरण गोंदी कहते हैं कि ‘राजनीति ने हमारा जीवन नारकीय और अनिश्चित बना दिया है। 1990 के दशक में आतंकवाद के चरम में भी आतंकियों ने हमें कभी निशाना नहीं बनाया।’ पर पिछले तीन माह में ही कम-से-कम पांच प्रवासी मजदूरों की हत्या कर दी गई। पीडीपी के रऊफ बट कहते हैं कि इसके कारण स्थानीय नहीं थे बल्कि दूसरे राज्यों में यहां की स्थितियों के नाम पर वोट बटोरे गए जिसका असर यह हुआ कि आतंकियों ने इन्हें यहां निशाना बनाया।
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बहुत ही खास किस्म के बयान दिए गएः ‘बाहरी लोगों को वोटिंग के अधिकार दिए जाएंगे’, ‘दूसरे राज्यों के लोगों को निवासी का दर्जा दिया जाएगा’, ‘कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों और अधिकारियों को वोटिंग अधिकार दिए जाएंगे’। इसने नुकसान ही पहुंचाया है। पत्रकार मैराज कहते हैं कि ‘इससे यह संदेश गया कि दिल्ली की सरकार स्थानीय लोगों पर गैर कश्मीरी शासन थोपने की कोशिश कर रही है।’ काजीगुंड के दुकानदार शब्बीर अहमद भी याद दिलाते हैं कि इससे पहले भी इस किस्म के बयानों ने अशांति और चिंता ही फैलाई कि ‘अब हम कश्मीर में एक प्लॉट खरीद सकते हैं’, ‘हमलोग किसी कश्मीरी लड़की से शादी करेंगे’ और ‘बाहरी भी कश्मीर में वोट करेंगे’ आदि।
रामबन इलाके में मजदूरी कर रहे बलिया के राम खिलावन की बातों से समझ सकते हैं कि इनका क्या असर हुआ हैः ‘मैं पिछले 13-14 साल से यहां आता रहा हूं। लेकिन पहले लोगों ने मुझे कभी संदेह की नजरों से नहीं देखा। अब वे पूछते हैं कि तुम यहां बसना चाहते हो या वापस घर जाना चाहते हो?’
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यहां की सुरक्षा की स्थिति को लेकर दो किस्म की बातें हैं। राजनीति से जुड़े लोग ‘एजेंसियों’ और ‘वृहत्तर षड्यंत्र’ वगैरह बात करते हैं। लेकिन श्रीनगर के अस्कर अहमद भी हैं जो कहते हैं कि ‘पहले निजी वाहनों में इधर से उधर जाना खतरनाक था।’ लेकिन कांग्रेस नेता चन्नी कहते हैं कि सुरक्षा चिंताएं इसलिए बनी हुई हैं कि ‘अब आतंकी भी छोटे हैंड गन, ‘मेड इन चाइना’ पिस्तौल और रिवॉल्वर का इस्तेमाल कर रहे हैं जो आम लोगों और सुरक्षा बलों- दोनों के लिए ज्यादा खतरनाक हैं।’
कश्मीरी कहते हैं कि भय तब तक नहीं जाएगा जब तक विश्वास नहीं कायम किया जाएगा। और वे सही कहते हैं!
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