सोमवार को विपक्षी पार्टियों द्वारा आयोजित भारत बंद कितना सफल या विफल रहा, इस पर परस्पर-विरोधी दावे किए जाते रहेंगे, लेकिन इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को मिलने वाली यह पहली देशव्यापी राजनीतिक चुनौती थी और आने वाले दिनों की राजनीति पर इसका दूरगामी और गहरा असर पड़ सकता है। हालांकि बंद के विरोधी इसे कांग्रेस बंद बता कर इसकी आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कांग्रेस के अलावा इसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, सीपीएम, सीपीआई और डीएमके जैसी बीस से अधिक छोटी-बड़ी पार्टियों का समर्थन हासिल था।
बीजेपी की सहयोगी पार्टी शिवसेना यूं भी उसे अक्सर अपनी आलोचना का निशाना बनाती रहती है, और पेट्रोल और डीज़ल के आसमान छूते दामों, नोटबंदी और इसी तरह के अन्य मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन के लिए आयोजित इस बंद को उसका भी समर्थन था, लेकिन उसने अंततः गठबंधन की मजबूरी के चलते बंद की समर्थक पार्टियों के साथ हाथ न मिलाकर अलग से विरोध प्रदर्शन करने का फैसला लिया। कमोबेश यही स्थिति तृणमूल कांग्रेस की भी रही। आम आदमी पार्टी ने पहले अलग से विरोध करने का फैसला लिया था लेकिन उसके नेता संजय सिंह दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित विशाल रैली में देखे गए। इस तरह से मुख्यतः आर्थिक मुद्दों पर आयोजित यह बंद अंततः एक बड़ी राजनीतिक घटना में तब्दील हो गया।
अगले साल लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं और उसके पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे। जिस तरह बिहार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और अन्य पार्टियों ने अपने आपसी विरोध और मतभेद को भुलाकर महागठबंधन बनाया था और बीजेपी को शिकस्त दी थी, उसी तरह का महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर भी बनने के आसार नजर आ रहे हैं और सोमवार के बंद में इतनी बड़ी संख्या में विपक्षी पार्टियों का एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाना इसका एक महत्वपूर्ण संकेत हैं।
भारत बंद के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक मंजे हुए राजनीतिक नेता और कुशल वक्ता के रूप में नजर आए और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कड़ा प्रहार किया। उनका ऐसा आत्मविश्वास, परिपक्व भाषण शैली और धारदार अंदाज इसके पहले कभी नजर नहीं आया था। जो लोग कहते थे कि वक्ता के रूप में मोदी का कोई जवाब नहीं है, लगता है अब उन्हें करारा जवाब मिलने वाला है। मोदी के भाषणों की तरह उनके भाषण में लटके-झटके नहीं बल्कि प्रभाव छोड़ने वाले वाक्य सुनने को मिले। मोदी ने विपक्षी पार्टियों की यह कह कर आलोचना की है कि न उनके नेता का पता है, न नीति का। लेकिन सोमवार के बंद ने स्पष्ट कर दिया कि यदि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विपक्ष के सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसे सरकार बनानी पड़ी, तो राहुल गाँधी अब नेतृत्व देने के लिए पूरी तरह से सक्षम हो गए हैं, यूं उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि प्रधानमंत्री बनना नहीं, बीजेपी को सत्ता से बाहर करना उनका लक्ष्य है।
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बीजेपी सत्ता से बाहर होगी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के दावे के मुताबिक़ अगले पचास साल तक राज करेगी, यह तो लोकसभा चुनाव के नतीजे ही बताएंगे। लेकिन भारत बंद से यह स्पष्ट हो गया है कि मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ देश भर में बढ़ रहे आक्रोश के कारण अब देशव्यापी विपक्ष के निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। जाहिर है कि देश की राजनीति में यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है क्योंकि कुछ दिन पहले तक कहा जा रहा था कि इस देश में विपक्ष बचा ही नहीं है, लेकिन अब इस स्थिति में निर्णायक परिवर्तन आया है।
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