बिहार के शहरों में कुछ निजी स्कूलों के बच्चों की ऑनलाइन क्लास होने की बात किसी तरह मानी जा सकती है, सरकारी स्कूलों में तो शायद ही कहीं-कहीं यह है। अधिकांश बच्चों के पास कम्प्यूटर-एंड्रॉयड मोबाइल फोन नहीं हैं। सरकार ने वैकल्पिक ब्लूप्रिंट तो बनाया, पर स्कूलों में विषय वार शिक्षक ही उपलब्ध नहीं हैं। औपचारिक तौर पर टीवी कार्यक्रम चलाकर संतोष कर लिया गया। हालांकि उससे कितने बच्चों को लाभ हुआ, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। पिछली बार सरकारी रिपोर्ट में ही करीब एक चौथाई बच्चों तक यह टीवी प्रोग्राम पहुंचने की बात कही गई थी। शिक्षा विभाग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी- जनता दल यूनाईटेड (जेडीयू) के पास है।
इस तरह की बेहाली की वजह से ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने बिहार की‘पढ़ाई’ को पीछे से पहला नंबर दिया है- मतलब, बिहार निचले पायदान पर खड़ा है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर जारी परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स(पीजीआई) में बुनियादी ढांचा और सुविधा के मानक पर बिहार ने 150 में महज 81 नंबर हासिल किए। मेघालय बिहार से आगे है और झारखंड बहुत आगे। नीतीश ने शिक्षा की अलख जगाने के नाम पर मिडडे मील में ताकत झोंकी, ताकि इस बहाने ड्रॉप आउट घटे। लेकिन हकीकत यह है कि बच्चे स्कूल तो आते रहे, पर उन्हें शिक्षक लगभग नहीं ही मिली। नीतीश ने संसाधनों को अपग्रेड करने के नाम पर मध्यविद्यालयों को उच्च और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में तब्दील तो किया लेकिन शिक्षकों की बहाली नहीं की।
सरकार के अपने फॉर्मूले से ही 2022 तक हाईस्कूलों में 49 हजार 361 और शिक्षकों की जरूरत होगी। लेकिन इनकी नियुक्तियां नहीं ही हुई, संविदा पर नियोजन का जो फॉर्मूला अपनाया, उसकी भीगति परधन नहीं दिया। हाई स्कूल में 2018 के अंत से चल रही नियोजन प्रक्रिया अब तीन साल बाद- इस बार सितंबर तक पूरी करने की बात कही जा रही है। 26 सितंबर, 2019 तक आवेदन लिया लेकिन अबतक सरकारी गलतियों से हाईकोर्ट में प्रक्रिया अटकती रही है। इसी तरह प्रारंभिक शिक्षक नियोजन जुलाई, 2019 से लटका है। 23 नवंबर, 2019 तक आवेदन लेने के बावजूद अब इस साल सितंबर तक इनके नियोजन को भी पूरा करने का दावा किया जा रहा है। इन दोनों नियोजन प्रक्रियाओं से 1.21 लाख शिक्षक आने का दावा किया जा रहा है, फिर भी हाईस्कूलों के 30 हजार पदों में से करीब 20 हजार पद खाली रह जाएंगे। ऐसा इसलिए कि नियोजन के अभ्यर्थियों में ज्यादातर ने सामाजिक विज्ञान के विषयों के लिए आवेदन किया है जबकि गणित, विज्ञान, अंग्रेजी-जैसे विषयों के लिए आवेदकों की संख्या बहुत कम है। ऐसा होने की भी वजह है।
हाई स्कूल स्तर पर प्रयोगशालाओं और विज्ञान विषयों के शिक्षकों की कमी है। इस कारण इंटर आते-आते ज्यादातर विद्यार्थी कला विषयों की ओर बढ़ जाते हैं। जो इंटर तक साइंस लेते भी हैं, वे भी कॉलेजों में सीटों और संसाधनों की कमी के कारण स्नातक में विज्ञान नहीं लेते हैं। इसका नतीजा है कि अब गणित-विज्ञान में स्नातक-बीएड करने वाले अभ्यर्थी शिक्षक बनने के लिए नहीं मिल रहे हैं। वैसे, जब यहां अस्पतालों की जगहों परगाय-भैंसों के बंधे होने की तस्वीरें सामने आती हैं, तो स्कूलों का हाल समझा जा सकता है। राजधानी पटना के स्कूलों में भवन संकट था, तो कई स्कूलों को मर्ज कर दिया गया। काफी अच्छे पास आउट देने वाले पटना के मिलर स्कूल तक में स्कूल ग्राउंड नहीं है। एक-दो प्रतिशत स्कूलों को छोड़ हर जगह भवन का संकट है। खुद को खुले में शौच से मुक्त कहने वाले किसी भी जिले के सरकारी स्कूल में छात्र को शौच जाना हो, तो घर दौड़े या मैदान, स्कूलों में इसकी सुविधा नहीं मिल पाती है।
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