बिहार विधानसभा में एलजेपी के सिर्फ विधायक हैं, लेकिन लोकसभा में पार्टी के 6 सांसद हैं। पासवान की पार्टी लोकसभा चुनाव में तो हर बार अपना कद दिखाती रही है लेकिन विधानसभा चुनावों में सिवाय वोट कटुआ पार्टी के वह कुछ नहीं बन सकी है। 2015 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी ने एनडीए गठबंधन से मिली 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन सिर्फ दो सीटों पर जीत दर्ज कर पाई जबकि 3 पर उसकी जमानत जब्त हो गई। लेकिन, बाकी जिन सीटों पर उसने चुनाव लड़ा था वहां उसनेने अच्छा प्रदर्शन किया और इन सीटों पर उसके हिस्से में करीब 28 फीसदी वोट आए।
बिहार की 9 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां पासवान का वोट 9 फीसदी से अधिक है, ऐसे में इस बार के चुनाव में उसे बीजेपी की मदद से अपनी सीट संख्या बढ़ाने की उम्मीद है। हालांकि यह निश्चित नहीं है कि 6 फीसदी पासवान या दुसाध वोट सीधे उससे जुड़े हैं, लेकिन बीजेपी से गठबंधन के चलते इन सीटों पर उच्च जातियों के वोट उसके साथ आने की संभावना है।
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भले ही चिराग पासवान ने दावा किया हो कि जेडीयू के साथ मतभेदों के चलते वह उससे नाता तोड़ रहे हैं, लेकिन वह मतभेद क्या हैं, उन्होंने साफ नहीं किया है। वैसे हकीकत यह है कि जेडीयू और एलजेपी दोनों ही यह साफ परिभाषित नहीं कर सकते कि उनकी दरअसल विचारधारा है क्या?
लेकिन खेल अब खुल चुका है। एलजेपी कुछ सीटों पर अपने ऐसे उम्मीदवार उतारेगी जो बीजेपी को जीतने में और जेडीयू और महागठबंधन के उम्मीदवारों को हराने में मद करेंगे। पासवान वैसे भी साफ-साफ कह चुके हैं कि उनका लक्ष्य बिहार में बीजेपी-एलजेपी गठबंधन की सरकार बनाना है।
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एक बात साफ है कि चिराग पासवान इतना बड़ा फैसला अकेले खुद तो ले नहीं सकते थे। जाहिर है कि बीजेपी नीतीश कुमार के पर कतरना चाहती है और इसके लिए चिराग पासवान को सामने किया गया है। लेकिन सियासी गलियारों में यह सवाल गूंज रहा है कि आखिर इस खेल से चिराग पासवान और उनकी पार्टी एलजेपी को क्या हासिल होगा। संक्षिप्त जवाब है कि सबकुछ। लोकसभा चुनाव अभी 4 साल दूर हैं और उनके पास फिलहाल कुछ भी खोने का कोई खतरा नहीं है।
राजनीतक पर्यवेक्षक मानते हैं कि अगर बिहार में त्रिशंकु विधानसभा बनती है तो बीजेपी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में अपनी सियासी ताकत और धनबल के आधार पर बीजेपी वामदलों के अलावा किसी भी पार्टी को तोड़कर सरकार बना सकती है।
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इस तरह नीतीश कुमार के सामने उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है। लालू यादव का साथ छोड़ने के बाद भी उनके सामने ऐसी चुनौती नहीं आई थी। 1990 के दशक में जब पहली बार नीतीश ने लालू का साथ छोड़ा था तो उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। लेकिन इस बार उनके जीवन भर की राजनीतिक पूंजी दांव पर है।
वैसे इससे किसी को कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन दोनों तरफ से मजबूरियों में बना रिश्ता था। केंद्र में पूरी तरह सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी को बिहार में दूसरे नंबर से संतोष करना पड़ा था। यूं भी 2004 के बाद से नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ रिश्ते सहज नहीं रहे हैं।
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नीतीश कुमार के लिए सत्ता के साथ-साथ छवि भी अहम रही है। अपनी सेक्युलर छवि स्थापित करने के लिए वह चतुराई से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व, खासतौर से पीएम मोदी की आलोचना करते रहे हैं। बीजेपी में सिर्फ स्वर्गीय अरुण जेटली ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिनके साथ नीतीश के रिश्ते अच्छे थे और वे उन पर भरोसा भी करते थे। उस दौरान नीतीश ने सुनिश्चित किया था कि नरेंद्र मोदी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उनसे दूरी बनी रहे। यही कारण है कि 2005 के बिहार विधानसभा, 2009 के लोकसभा और फिर 2010 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने स्टार प्रचारकों की सूची में नरेंद्र मोदी का नाम शामिल नहीं किया था।
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2010 में तो नीतीश ने आखिर वक्त में एनडीए नेताओं के लिए आयोजित डिनर को रद्द कर बीजेपी और खास तौर से नरेंद्र मोदी को शर्मिंदा किया था। इतना ही नहीं बिहार सरकार ने कोसी बाढ़ में राहत क नाम पर भेजे गए गुजरात के 5 करोड़ रुपयों को भी लौटा दिया था। एनडीए में नीतीश कुमार खुलकर लाल कृष्ण आडवाणी खेमे में रहे हैं, ताकि उन्हें राज्यसभा सीट और फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने का मौका मिल सके। लेकिन जब 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया, तो नीतीश ने एक झटके में बीजेपी के साथ करीब 20 साल पुरान रिश्ता तोड़ लिया।
हालांकि इससे पहले नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में देख रहे थे, और गैरबीजेपी दलों के साथ मिलकर भी उन्होंने ऐसी कोशिशें की थीं, लेकिन मैदान में मोदी के उतरने के बाद उन्होंने अपनी इस आकांक्षा का गला घोंट दिया था।
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2015 का बिहार विधानसभा चुनाव तो मोदी और नीतीश के व्यंग्यबाणों के लिए याज किया जाता है। दोनों ने एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप लगाए थे, यहां तक कि मोदी ने नीतीश के डीएनए तक पर सवाल उठा दिया था। लेकिन राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता, इसी को चरितार्थ करते हुए बीजेपी और नीतीश 2017 में एक बार फिर साथ आ गए, हालांकि इस बार राजनीतिक मजबूरी बीजेपी की थी जबकि नीतीश के लिए व्यक्तिगत मामला था।
कहा जाता है कि पीएम मोदी उनके साथ धोखा करने वालों को मुश्किल से ही माफ करते हैं। यहां तक कि उनके मेटोर एल के आडवाणी तक को मोदी ने नहीं बख्शा। और नीतीश कुमार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है, और अगर कहें कि वे सीरियल ऑफेंडर हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
नीतीश कुमार ने एक बार नहीं कई बार बीजेपी और इसके भारी भरकम अहंकार वाले नेताओं के मर्म पर चोट की है। अभी पिछले ही दिनों नागरिकता पंजीकरण रजिस्टर यानी एनआरसी के मुद्दे पर नीतीश ने बीजेपी की किरकिरी की थी और विधानसभा में प्रस्तावित एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित करा लिया था। यहां तक कि बीजेपी विधायकों के सामने भी कोई विकल्प नहीं छोड़ा था।
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