बीते 27 जनवरी को नई दिल्ली में हुए त्रिपक्षीय बोडो शांति समझौते को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ‘ऐतिहासिक’ बता रहे हैं। यह कहना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कितने कदमों को शाह ऐतिहासिक बता चुके हैं। लेकिन इस समझौते का एक बिंदु ऐसा है जो सरकार के सारे किये-धरे को पलीता लगा सकता है।
पहले बात इस समझौते की। त्रिपक्षीय बोडो शांति समझौते के तहत एक बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (बीटीआर) का जन्म हुआ है। यह सिर्फ नाम बदलने का मसला है। पहले जो टेरिटोरियल काउंसिल था, उसे टेरिटोरियल रीजन का दर्जा दिया गया है। यह महज नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है। पिछले 27 सालों में यह तीसरा बोडो समझौता है। हर बार केंद्र सरकार ने किसी न किसी आंदोलन को समाप्त करने के लिए समझौता किया है।
अलग बोडो राज्य के लिए असम के बोडो बहुल इलाके में 1987 से ही आंदोलन चलता रहा है। 20 फरवरी, 1993 को केंद्र सरकार, असम सरकार, अखिल बोडो छात्र संघ (आब्सू) और बोडो पीपुल्स एक्शन कमेटी के बीच समझौता हुआ था। उसके तहत ही बोडोलैंड ऑटोनॉमस काउंसिल (बीएसी) का गठन किया गया। इसे 38 प्रशासनिक विषयों का अधिकार दिया गया और इसके तहत 40 सदस्यीय जनरल काउंसिल का गठन किया गया। इसमें 5 सदस्य असम सरकार की तरफ से मनोनीत करने का प्रावधान था और बाकी सीटों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किया गया था।
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लेकिन जल्द ही बोडो समाज के एक तबके ने इस समझौते को खारिज कर दिया। उग्रवादी संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) ने पृथक बोडोलैंड के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। जून 1996 में स्थापित सशस्त्र उग्रवादी संगठन बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) ने भी इसी मांग के समर्थन में सशस्त्र आंदोलन शुरू कर दिया। 6 सालों तक विभिन्न हिंसक घटनाओं को अंजाम देने के बाद 10 फरवरी, 2003 को केंद्र सरकार और असम सरकार के साथ इसने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया।
यह दूसरा बोडो समझौता था। इसके तहत बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) की स्थापना की गई। जिन बीएलटी सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया, उनमें से ज्यादातर सदस्यों को सीआरपीएफ में शामिल किया गया। बीएलटी को बीएसी की तुलना में ज्यादा राजनीतिक अधिकार दिए गए थे। जल्द ही बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) ने बीटीसी के ऊपर राजनीतिक नियंत्रण कायम कर लिया और इसके 46 सदस्य बोडोलैंड लेजिसलेटिव काउंसिल के सदस्य बन गए। फिर भी, पृथक बोडोलैंड राज्य आंदोलन खत्म नहीं हुआ। अखिल बोडो छात्र संघ (आब्सू) ने पृथक बोडोलैंड राज्य की स्थापना के लिए अपना आंदोलन जारी रखा। इसके साथ ही एनडीएफबी के विभिन्न गुटों ने हिंसक गतिविधियों को जारी रखा।
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केंद्र सरकार के साथ कई बार वार्ता के बाद एनडीएफबी के 4 गुटों और आब्सू ने 27 जनवरी को एक और शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसे तीसरा बोडो समझौता कहा जा रहा है। अब इस नये समझौते के तहत बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन में सदस्यों की संख्या 60 होगी। अमित शाह और बोडो नेता इस नए समझौते को लेकर काफी आशावादी हैं।
लेकिन असली सवाल यह है कि उन मामलों का क्या होगा जो सशस्त्र आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए थे। समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में रंजन दैमारी भी हैं, जिनके गुट को एनडीएफबी (आरडी) कहा जाता है। अन्य गुटों में एनडीएफबी (प्रगतिशील) और एनडीएफबी (एस) शामिल हैं। पिछले साल रंजन दैमारी और नौ अन्य को अक्टूबर, 2008 में असम में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों में लगभग 90 लोगों की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इसके अतिरिक्त, 2014 में, बाक्सा जिले के खगराबारी में, बोडो चरमपंथियों और अन्य लोगों ने कथित तौर पर लगभग 40 बांग्लाभाषी मुसलमानों को गोली मार दी थी।
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अब नया समझौता कहता है कि ’गैर जघन्य’ अपराधों के लिए आपराधिक मामले वापस ले लिए जाएंगे और जघन्य अपराधों के संबंध में ‘विषय पर मौजूदा नीति के अनुसार मामले की समीक्षा की जानी चाहिए।’ गुवाहाटी में विशेष एनआईए अदालत में पीड़ितों का प्रतिनिधित्व कर रहे एडवोकेट अमन वदूद का कहना है कि कोई ‘समझ’ जघन्य हत्याओं के आरोपियों को नहीं छोड़ सकता। समझौते का कहना है कि जघन्य अपराधों के मामलों की ‘समीक्षा’ की जाएगी। वदूद कहते हैं कि शांति के नाम पर न्याय का गला नहीं घोंटा जाना चाहिए। यही वह पेंच है जो इस समझौते के गले की हड्डी है।
बोडो इलाके के गैर-बोडो लोगों के हितों के पैरोकार निर्दलीय सांसद नब सरनिया ने कहा भी है कि बोडो इलाके में दो महीने बाद ही चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी सरकार ने साजिश के तहत जल्दबाजी में यह समझौता किया है और सभी पक्षों को भरोसे में नहीं लिया है। बीजेपी सरकार ने बोडो इलाके के सत्ताधारी दल बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) को नया जीवन प्रदान करने के लिए यह नाटक किया है ताकि 2021 के विधानसभा चुनाव में वह फिर बहुमत हासिल कर सके।
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