नीट घोटाला केवल लीक हुए प्रश्नपत्रों, दलालों और प्रवेश परीक्षाओं को स्थगित या रद्द करने का मामला नहीं है। न ही यह पहली बार है जब केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को मेडिकल प्रवेश में रैकेट की जांच का काम सौंपा गया है।
मौजूदा घोटाले के केंद्र में नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) है जो सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत एक एनजीओ है- बिल्कुल पीएम केयर्स फंड की तरह। दोनों को राष्ट्रीय प्रतीक का उपयोग करने की अनुमति दी गई है जिससे ऐसा लगता है कि ये ‘सरकारी निकाय’ हैं, लेकिन न तो उनका नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा ऑडिट किया जाता है और न ही वे संसद के प्रति जवाबदेह हैं। एनटीए एक वैधानिक निकाय भी नहीं है, हालांकि शिक्षा मंत्रालय इसे नियंत्रित करता है, इसकी नीतियों और कर्मचारियों से जुड़े फैसले करता है, अपने नौकरशाहों को इसमें नियुक्त करता है और करदाताओं के पैसे से इसे और अधिक परीक्षाएं आयोजित करने के लिए फंड देता है।
सोसायटी के ऑडिट किए गए खाते सार्वजनिक डोमेन में नहीं हैं।
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समाचारपत्र ‘दैनिक भास्कर’ के जयपुर संस्करण की रिपोर्ट के मुताबिक, केवल 2019 और 2021 के बीच एनटीए ने आवेदन शुल्क के रूप में ही परीक्षार्थियों से 565 करोड़ रुपये वसूले; साथ ही ओएमआर (ऑप्टिकल मार्क रिकॉग्निशन) शीट के आधार पर अपने अंकों को चुनौती देने वाले परीक्षार्थियों से निर्धारित फीस के रूप में 200 करोड़ रुपये से भी अधिक की राशि वसूली।
बहरहाल, 2021 के बाद से परीक्षार्थियों की संख्या बढ़कर लगभग दोगुनी हो चुकी है और इस हिसाब से 2024 में एनटीए की कमाई भी कहीं अधिक हो चुकी होगी। किसी भी पैमाने पर परीक्षा आयोजित करने का कोई पूर्व अनुभव नहीं रखने वाले संगठन के लिए यह कितना आकर्षक व्यवसाय मॉडल है!
एनटीए के अध्यक्ष आरएसएस के पुराने पोस्टर बॉय पीके जोशी हैं जो इसके छात्र निकाय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रमुख थे। अपने शानदार कॅरियर में वह मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग, छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे हैं।
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2018 में स्थापित एनटीए 2020 से देश में स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रमों के लिए नीट (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा), सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एनईटी (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा), विश्वविद्यालयों के लिए पीएचडी प्रवेश और यहां तक कि सीएसआईआर छात्रवृत्ति के लिए पात्रता परीक्षा आयोजित कर रहा है।
2018 तक इनका संचालन सीबीएसई द्वारा किया जाता था जो सार्वजनिक और निजी स्कूलों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड है जिसे भारत सरकार द्वारा नियंत्रित और प्रबंधित किया जाता है। 1929-30 में स्थापित सीबीएसई के पास देश भर में परीक्षा आयोजित करने, उनका मूल्यांकन करने और हर तरह की गोपनीयता बनाए रखने का सिद्ध अनुभव है।
अब सवाल यह उठता है कि एक निजी एनजीओ को उन कार्यों को करने के लिए किसने अधिकृत किया जो अब तक मौजूदा संगठनों द्वारा विश्वसनीय रूप से कराए जाते रहे, और इससे भी बड़ा सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? इसलिए, जांच शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी से शुरू होनी चाहिए।
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एनटीए की अक्षमता और भ्रष्टाचार में मिलीभगत की भी जांच की जानी चाहिए। इस साल नीट-यूजीसी की अधूसिचना 9 फरवरी को हुई और परीक्षार्थियों के लिए 9 मार्च तक पंजीकरण करना जरूरी था। मार्च के अंत में इस अवधि को एक सप्ताह के लिए बढ़ा दिया गया और कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों किया गया? 9 अप्रैल को हितधारकों के अनुरोध पर, एक दिन के लिए एक और विंडो खोली गई। ये हितधारक कौन थे?
पंजीकरण के लिए एक और ‘सुधार विंडो’ 11 से 15 अप्रैल के बीच खोली गई थी। जैसे इतना ही काफी नहीं था, एनटीए ने 5 मई को परीक्षा आयोजित की और घोषणा की गई थी कि इसके नतीजे 14 जून को आएंगे लेकिन इसकी जगह परिणाम 4 जून को ही घोषित कर दिए गए जब आम चुनाव में डाले गए वोटों की गिनती की जा रही थी। एक और संदिग्ध फैसला है जिसका जवाब मिलना चाहिए।
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एनटीए ने पहले तो 24 लाख परीक्षार्थियों में से 1,563 को मनमाने ढंग से अनुग्रह अंक (ग्रेस मार्क्स) देकर खुद को कोने से बाहर निकालने की कोशिश की लेकिन जब इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, तो इसने तुरंत अनुग्रह अंक (ग्रेस मार्क्स) वापस ले लिए। आखिर क्या चल रहा था? हरियाणा के झज्जर के छह छात्रों को ये ग्रेस मार्क्स क्यों दिए गए? अगर वास्तव में समय की बर्बादी ही कारण थी तो उसी सेंटर के बाकी छात्रों को नजरअंदाज क्यों कर दिया गया? समय की बर्बादी एक आम शिकायत है जिसकी भरपाई आम तौर पर अधिक समय देकर की जाती है, न कि अधिक अंक देकर।
एनटीए वास्तव में एक कहीं बड़े घोटाले का दोषी है। साल दर साल, इसके बेतुके रूप से कम कट-ऑफ अंक (720 के उच्चतम संभावित स्कोर में से 20 प्रतिशत या उससे भी कम) ने बड़ी संख्या में परीक्षार्थियों को उत्तीर्ण होने का मौका दे दिया। इस साल 24 लाख परीक्षार्थियों- जिनमें से 57 प्रतिशत लड़कियां थीं- ने सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 1.09 लाख स्नातक सीटों के लिए परीक्षा दी। कट-ऑफ अंकों (जो 2022 में 16.36 प्रतिशत से बढ़कर 2024 में 22.78 प्रतिशत हो गया) से अधिक अंक प्राप्त करके 13 लाख छात्र उत्तीर्ण हुए। दूसरे शब्दों में, 2022 में न्यूनतम 117 अंक और 2024 में 164 अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी देश के 704 मेडिकल कॉलेजों में से एक में प्रवेश के लिए पात्र थे।
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एक केन्द्रीकृत राष्ट्रव्यापी परीक्षा NEET से निष्पक्ष, योग्यता-आधारित प्रवेश सुनिश्चित करने और दलालों और कैपिटेशन फीस को खत्म करने की उम्मीद थी। ‘एक देश एक परीक्षा’ शुरू होने और इसका एक बड़े सुधार के रूप में स्वागत किए जाने के आठ साल बाद यह नीति इनमें से किसी भी लक्ष्य को पूरा करने में विफल रही है। पिछले कई वर्षों से नीट पर नजर रखने वाले शिक्षाविद् महेश्वर पेरी बताते हैं कि दाखिला प्रक्रिया अब ऐसी हो गई है जिसमें संपन्न या एनआरआई परिवारों के कम मेधावी छात्रों का प्रवेश बढ़ रहा है जबकि कम संपन्न परिवारों के अधिक योग्य छात्रों को बाहर किया जा रहा है।
देश में निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या में लगातार हुई वृद्धि के कारण स्नातक मेडिकल सीटों की संख्या 2021 में 83,000 से बढ़कर 2024 में 1.09 लाख हो गई है। नीट पास करने वाले सफल परीक्षार्थियों की संख्या भी 2021 में 8.70 लाख से बढ़कर 2024 में 13.16 लाख हो गई है। जबकि कट-ऑफ अंक हासिल करने वाले कई परीक्षार्थियों को अधिक शुल्क का भुगतान करके निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश मिल जाएगा, वहीं बड़ी संख्या ऐसे छात्रों की होगी जिन्हें बहुत अधिक अंक (450+) पाने के बाद भी दाखिला नहीं मिलेगा क्योंकि वे भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा वसूली जाने वाली भारी-भरकम फीस नहीं दे सकते।
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अमीरों के लिए मेडिकल सीटों का एक तरह से आरक्षण सुनिश्चित करने वाली प्रणाली की व्याख्या करते हुए, पेरी भारत को ‘2 प्रतिशत वाला देश’ कहते हैं। वह कहते हैं, ‘केवल तभी जब आप मेरिट में शीर्ष दो प्रतिशत में हों या धन के मामले में शीर्ष दो प्रतिशत में हों, आप मेडिकल सीट की आकांक्षा कर सकते हैं।’
विभिन्न राज्यों में केवल सात केंद्रीय मेडिकल कॉलेज और 382 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं। इन सभी को मिलाकर कुल 56,405 स्नातक सीटें हैं जबकि 264 निजी मेडिकल कॉलेज और 51 निजी डीम्ड विश्वविद्यालय मिलकर 52,765 सीटों उपलब्ध कराते हैं। एम्स जैसे केंद्रीय मेडिकल कॉलेजों में पांच वर्षीय एमबीबीएस कोर्स की लागत लगभग 3-4 लाख रुपये है। ट्रस्टों, नगर पालिकाओं और राज्य सरकारों द्वारा खोले गए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में पांच साल के कोर्स की लागत आम तौर पर 6 से 7 लाख रुपये के बीच आती है जबकि, निजी मेडिकल कॉलेजों में यह राशि एक करोड़ से 1.5 करोड़ रुपये के बीच होती है।
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जो लोग निजी मेडिकल कॉलेजों का खर्च नहीं उठा सकते, वे जॉर्जिया, यूक्रेन, रूस और चीन जैसे देशों से पढ़ाई करना पसंद करते हैं या फिर कोई और रास्ता नहीं पाकर चिकित्सा शिक्षा को ही छोड़ देते हैं जो कहीं अधिक गंभीर बात है।
साफ है कि नीट मेडिकल कॉलेजों के लिए योग्यता-आधारित प्रवेश या एकसमान गुणवत्ता और शुल्क संरचना सुनिश्चित करने में सफल नहीं हुआ है। न ही इससे भ्रष्टाचार खत्म हुआ है। पेरी का दावा है कि कम-से-कम 200 परीक्षार्थियों ने ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) कोटे के तहत निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला प्राप्त किया है। ईडब्ल्यूएस के लिए निर्धारित अधिकतम वार्षिक आय आठ लाख रुपये या उससे कम है, लिहाजा पेरी इस बात पर हैरानी जताते हैं कि आखिर ये छात्र अपनी मेडिकल शिक्षा के लिए एक करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान कैसे करेंगे।
‘पेपर लीक’ संकट ने केंद्रीकृत परीक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। यही कारण है कि कुछ राज्यों ने मांग की है कि नीट व्यवस्था को ही खत्म किया जाए और उन्हें अपनी प्रवेश परीक्षा खुद आयोजित करने का अधिकार बहाल किया जाए।
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