सलीम 66 साल के हो चुके हैं। उनके भाई नसीम 70 साल के हैं। सलीम आमतौर पर किसी से बात नहीं करते। करते हैं, तो बस रोने लगते हैं। बड़े भाई नसीम मानसिक संतुलन खो चुके हैं। दोनों उस कवाल गांव के हैं जिस पर मुजफ्फरनगर दंगे की वजह बनने का बदनुमा दाग है। अगस्त-सितंबर, 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे में 65 से ज्यादा मौतें हुईं, सैकड़ों घरों में आगजनी हुई और हजारों लोगों का पलायन हुआ।
सलीम शाहनवाज के पिता हैं। शाहनवाज की कवाल गांव में दंगे के पहले दिन हत्या हुई थी। नसीम उन दो युवकों के पिता हैं जिन्हें गौरव और सचिन की हत्या में नामजद किया गया था। दोनों थक चुके हैं। दोनों के चार बेटे उम्रकैद की सजा काट रहे हैं।
मुजफ्फरनगर दंगों में इस साल कई बड़े फैसले आए हैं जिनमें एक गौरव सचिन की हत्या से जुड़ा मामला है। इस मामले में शाहनवाज के चार भाइयों को उम्रकैद की सजा हुई है। ये सभी दंगे के बाद से ही जेल में बंद हैं। इन्हें कभी जमानत नहीं मिल पाई। दूसरी तरफ, शाहनवाज के कत्ल में नामजद लोगों को पुलिस ने क्लीन चिट दे दी थी। अदालत में कड़ी लड़ाई के बाद उन्हें तलब तो किया गया, पर एक महीने से कम वक्त में वे जमानत पर बाहर आ गए।
शाहनवाज के पिता सलीम कहते हैं कि उन्होंने जिंदगी में कभी इतना अन्याय नहीं देखा। मेरे बच्चे का कत्ल हुआ। मेरे दूसरे बच्चे चेन्नई जा रहे थे। वे वल्लरशाह से वापस आए तो पुलिस ने आते ही उन्हें मुल्जिम बना दिया। अब उन्हें सजा हो गई। हमने अदालत में पांच साल मुकदमा दर्ज कराने की लड़ाई लड़ी और मेरे बेटे के कातिलों को 15 दिनों में जमानत मिल गई।
ऐसा क्यों हुआ, इसे मुजफ्फरनगर के अधिवक्ता राव लईक ने तफसील से समझाते हुए कहा, “अदालत में फैसले गवाही और फैक्ट पर निर्भर करते हैं। फैक्ट इकट्ठा करने का काम पुलिस करती है। कुछ मामलों में पुलिस अत्यधिक रुचि लेती है और कुछ मामलों में राजनीति से प्रभावित हो जाती है। कवाल वाले मामले में यही हुआ है। वहां एक पक्ष ने कड़ी पैरवी की जबकि दूसरा पक्ष कहीं स्टैंड नहीं कर पाया। ऐसा सिर्फ कवाल में ही नहीं हुआ है। मुजफ्फरनगर दंगों के तमाम मुकदमों में लगभग सभी आरोपियों के बरी हो जाने की वजह यही है।
यह भी सच है कि मुजफ्फरनगर दंगों के अधिकतर मामलों में समझौता हुआ है। एक समाजसेवी बताते हैं कि जाटों ने आरोपी बनाए गए लोगों को बचाने के लिए कई समूह बनाए और योजना बनाकर काम हुआ। लेकिन मुसलमानों ने क्या किया? खालापार के शाहवेज खान कहते हैं कि वे चंदा इकट्ठा करने में लग गए। सिर्फ पीड़ित परिवारों के लोगों को गवाही न देने के लिए दोष नहीं दिया जा सकता। सच्चाई यह है कि कुछ धार्मिक नेताओं समेत जिले में मुस्लिम समाज के प्रभावशाली लोगों ने गवाही न देने के लिए दबाव बनाया, लालच दिया या उन्हें प्रभावित किया।
दूसरी ओर, दंगे के बाद यूपी की अखिलेश यादव सरकार ने डेढ़ दर्जन से ज्यादा मुसलमानों को राज्य मंत्री के दर्जे वाले पदों पर बैठा दिया और उन्हें डैमेज कंट्रोल के लिए भेज दिया। समाजवादी पार्टी के नेता और युवजन सभा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष फरहाद आलम के मुताबिक, उन्होंने कई बार ऐसे लोगों की भीड़ एसपी मुखिया मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आसपास देखी। इनमें से कुछ को संगठन में ओहदा मिला और कुछ को लाभ का पद दे दिया गया।
एसपी के बड़े नेता आजम खान पीड़ितों की सुध लेने एक बार भी मुजफ्फरनगर नहीं आए। पसमांदा मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय महासचिव और वकील अंजुम अली कहते हैं कि चूंकि सभी आरोपी बरी हो गए हैं तो अखिलेश यादव और आजम खान जैसे नेताओं को जवाब देना चाहिए क्योंकि दंगे के बाद चार साल बाद तक वे सत्ता में रहे, पुलिस ने विवेचनाएं उनके दौर में कीं। यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने दंगों के मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट में मुकदमे क्यों नहीं चलाए।
इन दंगों में सबसे अधिक प्रभावित बुढ़ाना विधानसभा क्षेत्र हुआ था। उस समय यहां एसपी के नवाजिश आलम खान विधायक थे। नवाजिश के पिता पूर्व सांसद अमीर आलम पर आजम खान से सिफारिश करके डीएम एसएसपी को हटवाने का इल्जाम लगाया गया था। शाहपुर के नईम अहमद बताते हैं कि पूरे दंगे के दौरान नवाजिश आलम ने अपना फोन बंद रखा। हालांकि शाहपुर के ही अकरम खान कहते हैं कि अमीर आलम को एक योजना के तहत बदनाम किया गया।
फिर भी, कांग्रेस की महिला जिलाध्यक्ष और वकील बिलकिस चैधरी पूछती हैं कि जब पीड़ित कमजोर हो तो सरकार को उनके साथ खड़े हो जाना चाहिए, तब पुलिस ने क्या किया! आंकड़े बताते हैं कि पुलिस ने ज्यादातर मामलों में आला-ए-कत्ल तक बरामद नहीं किया और सारे मामले गवाही पर टिक गए।
अब दूसरी तरह का दर्द भी
बुढ़ाना से शामली मार्ग पर लोई गांव में जमीयत उलेमा हिंद ने दंगा पीड़ितों की एक बड़ी कॉलानी बसाई। पर यहां भी समस्या कम नहीं है। लोई के इस कॉलानी के मुंतजिर बताते हैं कि स्थानीय गांव के लोग अपने कब्रिस्तान में हमारे मुर्दे दफनाने नहीं देते। वे कहते हैं कि हमें अपनी जमीन खरीदनी चाहिए। शुरुआत में हमसे हमदर्दी थी, मगरअब वे हमें दोयम दर्जे का मानते हैं और हिकारत की नजरों से देखते हैं।
इसी तरह, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उस समय के वीसी जमीरउद्दीन शाह ने दंगा पीड़ितों के लिए जौला गांव में स्कूल बनाने का ऐलान किया था, जिसका एक करोड़ से ज्यादा लागत से निर्माण भी हुआ। स्कूल के लिए जमीन यहां के एक किसान ने मुफ्त में दी और स्कूल तैयरा हो गया। लेकिन फिलहाल इस स्कूल में अमीरों के बच्चे पढ़ रहे हैं। जौला के पूर्व जिला पंचायत सदस्य महबूब अली के मुताबिक, स्कूल में भारी-भरकम फीस है और दंगा पीड़ितों के बच्चे इसे वहन नहीं कर सकते।
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