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कोरोना से जंग और लॉकडाउन के बाहर की चुनौतियों के भंवर में फंसी मोदी सरकार!

मोदी सरकार में बैठे बड़े अधिकारियों के निकट सूत्र भी मानते हैं कि अब तक कोरोना महामारी से लड़ाई में आशातीत सफलता न मिलने का असली कारण यही है कि बीते 21 दिनों में भारत जैसे बड़े देश में जितनी अधिक तादाद में कोरोना वायरस के टेस्ट होने चाहिए थे, उतने नहीं हुए।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

मोदी सरकार की कोविड-19 से लड़ाई लड़ने की पूरी कसरत मात्र चंद दिनों में ही दम तोड़ गई। बिना तैयारी के पूरे देश पर लॉकडाउन तो थोप दिया गया, लेकिन जितने दिन लोग घरों में कैद रहे, उसी अनुपात में सरकार में शीर्ष स्तर पर भ्रम और किंकर्तव्यविमूढ़ता ने आम लोगों की मुश्किलें ही बढाई हैं। भूख से बिलखते हजारों लोगों की चीख-पुकार सामने आ रही है। अब सरकार के सामने चरणबद्ध तरीके से लॉकडाउन खोलने और उसके बाद आने वाली भयावह आर्थिक जर्जरता से जूझने की गंभीर चुनौतियां हैं।

मोदी सरकार में बैठे बड़े अधिकारियों के निकट सूत्र भी मानते हैं कि अब तक इस महामारी से जूझने में आशातीत सफलता न मिलने का असली कारण यही है कि बीते 21 दिनों में भारत जैसे बड़े देश में जितनी अधिक तादाद में कोरोना वायरस के टेस्ट होने चाहिए थे, उतने नहीं हुए। हालांकि सरकारी तंत्र ने आधिकारिक तौर पर इस बात पर लीपापोती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बीते दिनों के आंकड़ों पर ध्यान दें तो हमारे यहां प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 137 लोगों के ही टेस्ट हो पाए हैं। इस मामले में तो जर्जर हालात से जूझ रहा पाकिस्तान भी हमसे आगे है। वहां 10 लाख आबादी पर 280 लोगों के टेस्ट का औसत है।

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भारत में संक्रमित मरीजों पर ऐंटी न्यूक्लियर ऐंटी बॉडी टेस्ट में विलंब का सबसे बड़ा कारण यही है कि हमारे पास टेस्टिंग किटों का भारी अभाव रहा है। चीन निर्मित जो किटें हमारे पास पहुंचीं या पाई गईं वे पुरातन तकनीक पर आधारित थीं। हैरत तो यह है कि आईसीएमआर के विशेषज्ञों ने शुरूआत में जब इन किटों की गुणवत्ता पर सवाल खड़े किए तो परीक्षण की पूरी प्रक्रिया एक तरह से मंद पड़ गई।

दरअसल पॉजिटिव केसों की तादाद के दिनों-दिन बढोतरी होने की बड़ी वजह ही यही थी कि बिना टेस्ट किट के जो परीक्षण हो रहे थे, वे कतई फुलप्रूफ नहीं थे। एम्स अस्पताल दिल्ली में संक्रमण रोग विभाग में विशेषज्ञ रहीं डा अंकिता वैद्य ने कहा, “चूंकि अब भारत में टेस्ट किट पर्याप्त मात्रा में आने से संक्रमित रोगियों की सही स्थिति का आकलन तेजी से होने लगा है, ऐसी दशा में भारत के लिए आने वाले दो सप्ताह वाकई बहुत अहम हैं। वजह यह है कि जैसे ही पॉजिटिव केसों के मामलों की तादाद घटती चली जाएगी और संक्रमित मरीजों का आंकड़ा घटेगा तो इसी से संकेत साफ होगा कि हम वाकई में इस महामारी पर जीत की ओर बढ़ रहे हैं।

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संक्रमण रोग विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि सरकार का अधिकतम फोकस हर रोज टेस्टों की तादाद बढ़ाने पर होना चाहिए। देश के कई भागों में लोगों के एकत्र न होने और सामाजिक दूरी बनाने के नियमों का अभी भी प्रभावी पालन नहीं हो रहा है। डॉ. अंकिता वैद्य ने आगाह किया है कि अगर लोगों ने बिना एहतियात बरते हुए भीड़ में एकत्र होना जारी रखा तो इस महामारी के लिए अकेले सरकार के भरोसे बैठना बहुत घातक होगा।

क्या तीन सप्ताह के बाद भी सरकार को लॉकडाउन आगे बढ़ाना चाहिए! इस सवाल पर भी विशेषज्ञों का मानना है कि इतने बड़े देश में लोगों को घरों में कैद रखने से समस्या का हल नहीं निकलने वाला। जिन क्षेत्रों में संक्रमण का फैलाव बहुत कम है या जहां संक्रमित लोगों की संख्या में भारी कमी दिख रही है, अगर लॉकडाउन जारी रखा जाता है तो पूरे समाज की सभी आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाने से समाज के एक बड़े तबके के सामने भुखमरी की नौबत खड़ी हो सकती है।

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जाने-माने अर्थशास्त्री और भारत के वित्त मंत्रालय के सलाहकार रहे मोहन गुरूस्वामी कहते हैं, “पिछले तीन सप्ताह के देशव्यापी लॉकडाउन से हम जिस कगार पर आकर खड़े हैं, वहां से वापस लौटना कतई आसान नहीं। हम अभी महामारी से निकले नहीं बल्कि चरम पर हैं। अभी संक्रमित और पॉजिटिव मामले कम होने के बजाय बढ़ ही रहे हैं। पीएम मोदी को चाहिए कि इस आर्थिक संकट पर पूर्व पीएम मनमोहन सिंह से राय लें। जरूरत पड़े तो उन्हें पूरी आर्थिक स्थिति का प्रभारी बनाएं और अपनी सरकार में पार्टी के बाहर के काबिल लोगों को शामिल करें। राष्ट्रीय संकट टल जाए तो उसके बाद जो जैसा चाहे लोग अपना रास्ता तय करने को स्वतंत्र हों।”

बता दें कि औद्योगिक संवर्धन व आंतरिक व्यापार विभाग की ओर से 16 औद्योगिक क्षेत्रों को खोलने के आदेश पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाए हैं। दूसरी ओर कृषि मंत्रालय की ओर से राज्य सरकारों को निर्देश जारी किए गए गए हैं कि फसलों की कटाई तत्काल आरंभ कराई जाए। उनका कहना है कि देशभर में रेल, बसों और सार्वजनिक परिवहन ठप होने से जब श्रमिकों की आवाजाही एकदम बंद है तो इस तरह के आदेशों का कोई औचित्य नहीं है।

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मजदूर संगठन एटक की महासचिव अमरजीत कौर कहती हैं, “असंगठित क्षेत्र के लाखों-करोड़ों श्रमिकों की भागीदारी के बिना अर्थव्यवस्था ही नहीं कोई भी क्षेत्र वापस पटरी पर नहीं आ सकता। देश के सभी राज्यों से लाखों श्रमिक लॉकडाउन के बाद अपने-अपने राज्यों में जा चुके हैं। उनमें अब इतना डर बैठा दिया गया है कि वे जल्दी से वापस आने को राजी नहीं हैं।”

कई विशेषज्ञों का कहना कि ताबड़तोड़ आइसोलेशन सेंटर बनाने और उनमें बेडों की तादाद अधिकतम करने का तब तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक संक्रमित रोग विशेषज्ञों की तैनाती नहीं होती। एक आकलन के मुताबिक अब तक पूरे भारत में कोरोना संक्रमण के उपचार के लिए हमारे पास कोई 12,500 ही विशेषज्ञ हैं। इनमें से ज्यादातर निजी क्षेत्रों मे हैं। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति का आलम यह है कि मात्र 10 प्रतिशत सरकारी अस्पताल ही पूरी तरह उपकरणों से लैस और पर्याप्त स्टाफ वाले हैं।

दिल्ली के राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट के सीईओ डॉ डीएस नेगी कहते हैं, “निजी क्षेत्र को सीमित मात्रा में ही इस महामारी से निपटने में इस्तेमाल किया जा सकता है। कोरोना टेस्ट की पूरी प्रक्रिया पर नियंत्रण और निगरानी सरकार के हाथ में रहनी आवश्यक है। प्राईवेट अस्पतालों में कोरोना मरीजों की आवाजाही बढ़ने से ऐसे लाखों मरीजों के उपचार पर दुष्प्रभाव पड़ेगा जो दूसरे मामलों में उपचार के अधीन हैं।

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