देश के कई भागों पर नदियों पर बांधों की देखरेख, संचालन और उनकी विफलता के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की खातिर लाए गए बांध सुरक्षा विधेयक ने मेादी सरकार की नियत पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विपक्षी पार्टियों ने संसद में एक स्वर में कहा है कि केंंद्र व राज्यों में अपने हितों के टकराव की दृष्टि से सरकार के इस कदम से पारदर्शिता व उत्तरदायित्व का अभाव साफ झलकता है। विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि सरकार का यह कदम संविधान के खिलाफ है क्योंकि इससे नदियों व बांधों पर राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण की खुली छूट मिल जाएगी।
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विधेयक पेश करते हुए केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि देश के सभी बड़े छोटे बांधों को बचाने के लिए यह कदम जरूरी है। उनका कहना था कि बांधों का संचालन सुरक्षित व आपदाओं से मुक्त हो इसके लिए जरूरी है कि रख रखाव व परिचालन के साथ ही सुरक्षा के भी बंदोबस्त हों। उन्होंने बताया कि देश में इस वक्त 5344 बांध हैं। इनमें से 293 बांध 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। 50 से 100 बरस पुराने 1041 बांध हैं। उन्होंने बताया कि बांधों के टूटने और उनसे पैदा होने वाली आपदाओं से निपटने को केंद्रीय जल आयोग ने 1980 में जो सिफारिशें की थीं उसके बाद इस तरह के एहतियाति कदम उठाए जाने जरूरी थे।
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विपक्ष ने सरकार को दो टूक कहा कि केंद्र द्वारा इस विधेयक को लाने की मंशा से राज्यों के सार्वभौम अधिकारों का अतिमक्रमण होगा। कांग्रेस के सदन के नेता अधीर रंजन चौधरी, शशि थरूर, मनीश तिवारी के साथ तृणमूल के सुगाता रॉय, डीएमके के ए राजा, बीजू जनता दल के भरथरी महताब ने एक स्वर में कहा कि राज्यों की सहमति व सलाह के बगैर इस तरह का विधेयक लाने का केंद्र सरकार को कोई अधिकार नहीं है।
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सरकार बांध सुरक्षा विधेयक 2018 में भी लेकर आयी थी जो 2010 में सदन में पेश करके स्थायी समिति को विचार के लिए भेजा गया था। इस प्रक्रियाया के दौरान कई प्रदेशों ने केंद्र के अधिकार को चुनौती दी थी। तमिलनाडु का मुखर विरोध इस बिंदु पर था कि सुरक्षा निरीक्षण के नाम पर पड़ोसी प्रदेश केरल को बांध की भीतरी बातें पता चलेंगी। बाकी प्रदेशों के विरोध का साझा बिंदू यही था कि इस तरह का विधेयक लाकर केंद्र सरकार राज्यों के बांधों का स्वामित्व व नियंत्रण आगे चलकर अपने हाथ में ले लेगी।
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विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें सबसे अहम बिंदु अंतराराज्यीय नदियों के पानी को लेकर होने वाला विवाद होगा। दूसरा बांधों से आपदाओं की सूरत में मुआवजे के दावों के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। संसदीय समिति ने जून 2011 में पेश की गई अपनी सिफारिशों में इस ओर ध्यान खींचा था। संसद के सामने यह भी मुददा आएगा कि तमाम नदियों के तटों का करीब 8 प्रतिशत का हिस्सा जोकि अंतरराज्यीय नदियों का हिस्सा नहीं होगा, उस भूभाग को सुरक्षा संचालन परियोजनाओं की खातिर अपने हाथों में लेना होगा। जानकारों का मानना है कि ऐसे कई प्रदेश जो नदियों के जल बंटवार को लेकर अरसे से विवाद में फंसे हैं वे कैसे इस तरह की इजाजत देंगे।
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