हालात

मॉब लिंचिंग: लोकतंत्र को कुचलने पर आमादा भीड़तंत्र 

जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2018 तक बच्चा चोरी की अफवाह के बाद भीड़ की हिंसा के 69 मामले सामने आये हैं, जिनमें 33 लोगों को भीड़ ने मार डाला और करीब 100 को घायल किया। हालात की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि इसी साल अब तक 24 लोग मारे गये।

फोटो: DW
फोटो: DW  लोकतंत्र को कुचलने पर आमादा भीड़तंत्र

एक देश के रूप में ये पहली बार नहीं है कि भारत का सर शर्म से झुक रहा है लेकिन एक डर और स्तब्धता जरूर पहली बार है और इसकी वजह है भीड़तंत्र का उभार। पीट-पीट कर मार डालने वाली नफरत और बात-बेबात भड़क उठती हिंसा। जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2018 तक बच्चा चोरी की अफवाह के बाद भीड़ की हिंसा के 69 मामले सामने आये हैं, जिनमें 33 लोगों को भीड़ ने मार डाला और करीब 100 को घायल किया। हालात की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अकेले इसी साल अब तक 24 लोग मारे गये। जुलाई में पहले 6 दिनों में भीड़ की हिंसा के 9 मामले हुए और 5 लोग मारे गये। इस तरह सिर्फ अफवाहों से बेगुनाहों की जान जा रही है। 2014 से मार्च 2018 तक सरकार के मुताबिक, देश के 9 राज्यों में विभिन्न वजहों से हुई मॉब लिंचिंग के 40 मामलों में 45 लोग मारे गये और 200 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गये। लेकिन गैर आधिकारिक आंकड़े अधिक संख्या बताते हैं।

सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि बच्चा चोरी की वारदातों का अफवाहों से कोई संबंध नहीं है। जिस राज्य में बच्चा चोरी की वास्तविक वारदातें ज्यादा हुई हैं, वहां अफवाहों से पैदा हिंसा या मरने वालों की संख्या अपेक्षाकृत उतनी नहीं है जितना कि उन इलाकों में जहां सिर्फ अफवाहों ने भीड़ को उकसाया। कर्नाटक के जिस इलाके में पिछले दिनों जिस युवा इंजीनियर को जान गंवानी पड़ी, वहां तो ऐसी कोई वारदात हुई ही नहीं थी, फिर भी वहां पर भीड़ जमा हो गई। इन अफवाहों के पीछे सिर्फ भय या आशंका का हाथ नहीं है, ये एक अधिक खूंखार और घिनौनी साजिश का हिस्सा जान पड़ती है, इसमें स्वार्थ, लालच, प्रतिहिंसा और इससे आगे खतरनाक उद्देश्यों की पूर्ति की बू आती है। लोकतंत्र को कुचलने पर आमादा ये भीड़तंत्र अदृश्य रूप से फैल रहा है। बच्चा हो या बीफ - शक में या अफवाह में या किसी भी तरह की अन्य संदिग्ध स्थिति बनाकर भीड़ घेर सकती है और जान से मार सकती है। आज की इस भीड़ और उसके हमलों के तरीकों को देखें तो पता चलता है कि ये भीड़ दरअसल उसी भीड़ की एक छिटकी हुई परत है जो कुछ साल पहले गोरक्षा और लव जेहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों और दलितों पर टूटी थी।

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वाट्सएप ने तो कुछ दिनों पहले अखबारों में एक पेज का बड़ा सा विज्ञापन और कुछ टिप्स देकर एक तरह से अपनी जिम्मेदारी निभा दी। कुछ तकनीकी उपाय भी उसने विचार किए हैं। लेकिन उसे पता है कि इनक्रिप्टेड मैसेजों की एक लंबी श्रृंखला में कौन सा मैसेज अफवाह है या फर्जी है, ये पता चल पाना कठिन है। फिर तो यही रास्ता बचेगा कि सरकार जैसा कहे वैसा ही करें। उसका फिलहाल ये प्रस्ताव है कि संदेशों की निगरानी के तहत कौन क्या लिख बोल रहा है, सारा मेटाडैटा सरकार को उपलब्ध हो। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों ऐसे किसी प्रस्ताव को नागरिक अधिकारों के लिहाज से अनुचित बताया था। वाट्सएप और फेसबुक के प्रौद्योगिकी दिग्गजों को कोई न कोई रास्ता जरूर निकालना होगा। अगर वे लाइक्स और अन्य शोभाओं और आकर्षणों से अपनी यूजर संख्या करोड़ों अरबों में कर सकते हैं तो वे ऐसा सिस्टम भी जरूर निर्मित कर सकते हैं जो यूजर को निरंकुश उपद्रवी बनाने से रोक दे।

सरकारों को क्या करना है? सिर्फ इतना ही कि निर्धारित कानूनों का सख्ती से अमल कराएं। पुलिस तंत्र को मुस्तैद, आत्मनिर्भर और फैसलों में स्वतंत्र बनाएं। आधुनिक साजो-सामान और सुरक्षा दें, पुलिस दबंगई भीड़ के सामने डर और निवेदन में तब्दील हो जाती है। कानून के डर से ज्यादा सम्मान की जरूरत है। जागरूक करने वाले संगठन, व्यक्ति, राजनीतिक दल जो भी जैसे भी निस्वार्थ भाव से नागरिकों के बीच सघन और निरंतर जागरूकता अभियान चलाएं। बहुसंख्यकवादी, सांप्रदायिक और स्वार्थपूर्ण राजनीति के लिए क्या कहें। उससे तो ये अपील भी नहीं की जा सकती कि बस करो, देश को इतने खून और नफरत और डर और हिंसा में मत डुबाओ। एक निर्णायक लड़ाई देर-सबेर नागरिकों को ऐसी राजनीति के खिलाफ भी लड़नी होगी।

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