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मृणाल पांडे का लेख: देश में मुख्यधारा का मीडिया वजूद बचाने की लड़ रहा अंतिम लड़ाई, नहीं टूटी नींद तो हो जाएगी देर

आज दुनिया के सभी लोकतंत्रों में सत्तावान राजनेताओं को सोशल मीडिया के लोकप्रिय प्लेटफॉर्मों से भी लिंक्ड राजकीय सूचना संस्थानों से अतिरिक्त सुविधा उपलब्ध है कि वे इकतरफा तरीके से अपने मन की बात सीधे लगातार जनता से करें।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

मीडिया की आज जो हालत है, उसे देखकर कुमार गंधर्व का गाया निर्गुण भजन याद आता है: ‘भोला मन जाने अमर मेरी काया, धन रे जोबना, सब सपने की माया!’ बीसवीं सदी के अंत और नई सदी के पहले दशक के मीडिया की जीवंतता, निडर खोजी पत्रकारों की सत्तासीन सरकारों और कॉरपोरेट जगत के धनकुबेरों की गद्दी हिला देने वाली रपटें, सब इधर हवा में काफूर होते चले गए हैं। अभी खबर आई है कि दुनिया के आर्थिक-राजनीतिक तौर से ताकतवर लोग अब मीडिया से विनम्रता से जनसंपर्क साधने की कोई जरूरत नहीं महसूस करते। डोनाल्ड ट्रंप से लेकर जेफ बेजोस तक सबके अपने सोशल मीडिया अकाउंट अरबों दर्शक बटोर रहे हैं। अपना भोंपू वे अब बिना मीडिया के जवाबदेह बने खुद ही बजाएंगे। 400 बिलियन डॉलर की जानी-मानी स्वचालित कार निर्माता कंपनी ‘टेसला’ के मालिक एलन मस्क ने हाल में अपनी कंपनी का मीडिया और जनसंपर्क विभाग ही बंद कर दिया है। ट्रंप या मोदी जी की ही तरह उनके अपने हर उम्र हर आय वर्ग के दुनियाभर में करोड़ों ट्विटर फॉलोअर्स हैं।

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आज दुनिया के सभी लोकतंत्रों में सत्तावान राजनेताओं को सोशल मीडिया के लोकप्रिय प्लेटफॉर्मों से भी लिंक्ड राजकीय सूचना संस्थानों से अतिरिक्त सुविधा उपलब्ध है कि वे इकतरफा तरीके से अपने मन की बात सीधे लगातार जनता से करें। पुरानी शैली का- तू डार-डार मैं पात-पात चलने वाला प्रोफेशनल मुख्य धारा मीडिया, या संसद का विपक्ष उनसे हठात पहले की तरह चुभते सवाल पूछ कर उनको जनता के सामने बगलें झांकने पर मजबूर नहीं कर सकता। सो, आम के आम और गुठली के दाम!

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यह आने वाले समय की एक बानगी है। जैसे हम पहले भी बताते रहे हैं, शुरुआत 2013 से ही हो गई थी। जब तमाम महत्वाकांक्षी दलीय नेता जवाब दिए बिना सवाल पूछने वाले मीडिया को ही विलेन बनाने पर तुल गए। कि उनके सारे मीडियाई आलोचक उनके विपक्ष के खरीदे हुए या देशद्रोही किस्म के पत्रकार हैं। कई रीढ़ वाले संपादकों को राजनीतिक दबावों तले त्यागपत्र देना पड़ा। छंटनी के नाम पर विचारधारा विशेष के पहरुओं को बचाते हुए अन्य को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा। जल्द ही सोशल मीडिया पर मुख्यधारा के मीडिया के लिए भाड़े के ट्रोल्स ही नहीं, नेता भी ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ या ‘प्रेस्टीट्यूट्स’ या ‘देशद्रोही, पाकिस्तानी एजेंट’ सरीखे अपमानजनक विशेषण इस्तेमाल कर जनसभाओं में भाड़े के प्रतिनिधियों से तालियां बजवाने लगे। दूसरी तरफ मुख्यधारा के मीडिया पर तमाम तरह की धाराएं इस्तेमाल कर मानहानि के आपराधिक मुकदमे दर्ज किए जाने लगे। कुछ राज्यों में खोजी पत्रकारों को जेल में शरारतपूर्ण खबरें या अफवाहें फैलाने के आरोप जड़कर उनको गैरजमानती धाराओं की तहत बंद कर दिया गया। कई आरोप जब बाद को साबित नहीं हुए तो भी जब तक उनको हिरासत से रिहा करने का अदालती आदेश मिला, तब तक उनका कॅरियर तबाह हो गया था। साथ ही पत्रकार बिरादरी में भी सरकार विरोधी खबरें देने को लेकर एक तरह की अतिरिक्त आत्मसजगता और डर व्याप्त होने लगे।

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इसी के साथ यह भी देखा गया कि आम मीडिया उपभोक्ता (अधिकतर नए चंचल युवा पाठक/दर्शक) अखबारों की बजाय पहले टीवी, फिर स्मार्ट फोन से संपादकीय मैटर की सतही (फिल्म जगत, गॉसिप तथा खेल जगत की ही खबरें टूंग कर तृप्त होने लगे थे)। बड़ी उम्र वालों की रुचि बाबाओं की मालिकी वाले धार्मिक चैनलों ने धर्म के सतही कर्मकांडों या भूत-प्रेत वाले सीरियलों से जोड़ दी। आम मतदाता घर भीतर स्मार्टफोनिया खबरों से और बाहर गूंजते इकतरफा राजनीतिक प्रचार से गंभीर खबरें देने वाले मुख्यधारा के मीडिया को बिका हुआ और गैरजिम्मेदार मानकर विमुख हो गए। तब मुख्यधारा चैनलों ने भी पैंतरेबाजी शुरू कर दी। पैनल चर्चा कार्यक्रमों में विषय के जानकारों और गंभीर शोध कर्ताओं की बजाय विदूषक नुमा हल्के-फुल्के किंतु वैचारिक तौर से सत्तापक्ष के समर्थकों को बड़ी तादाद में बिठाया जाने लगा। अफवाहें बिन जांचे ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बनने लगीं।

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अच्छी पत्रकारिता के लाभ हम सब जानते हैं। यह भी कि राज-समाज की खामियों को उभारना और समय-समय पर लोकतंत्र के सभी पायों से जुड़े बड़े लोगों से जवाब-तलब करना पत्रकारिता का मूल कर्तव्य है। लेकिन उपरोक्त कारणों से फर्जी खबरों तथा स्टिंग ऑपरेशनों, भाड़े के ट्रोल्स और मॉर्फ किए गए जो वीडियोज की भरमार है, उसने भरोसेमंद खबरें लेने-देने को एक गुरिल्ला युद्ध बना डाला है। सारी दुनिया में लोकतांत्रिक देशों में आज सत्ता पक्ष या विपक्ष कई बार अपने को शिखर पर बनाए रखने के लिए अपने बड़े प्रतिस्पर्धी को शिकार बना कर उसे सोशल मीडिया पर साम-दाम-दंड-भेद से बदनाम करने की मुहिम चलाए हुए हैं। राज-समाज की प्रामाणिक खबरें जब तक उपभोक्ता तक पहुंचें, यह मसालेदार ‘फेक’ खबरें सोशल मीडिया के हवाई अश्व पर बैठ कर दुनिया का चक्कर लगा चुकी होती हैं। शिकार बन गए लोग करते रहें प्रतिकार कि हमने यह नहीं, इस पृष्ठभूमि में ऐसा कहा था। लोग महीनों तक पूछते रहेंगे, भई अमुक की बाबत यह सुना। बड़ा मजेदार है। अब उसमें कुछ तो सचाई होगी ही। बिहार से मध्य प्रदेश और न्यूयॉर्क से लास एंजेलीस तक ऐसे हथकंडे आज सब जगह आजमाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया की सरकारों या दलों से भीतरी मिलीभगत के कारण न तो गाहकों का गोपनीय निजी डेटा का लीक होना रुक रहा है और नही सरकारों द्वारा मीडिया से अधिकृत आर्थिक-सामाजिक जगत का डेटा राष्ट्रीय सुरक्षा के हवाले से दूर रखना। हकों के साथ आम जनता के सही समय पर सही सूचना पाने के लोकतांत्रिक हक का समवेत विनाश और उनके तथा सोशल मीडिया के बाजार के ताकतवरों की कठपुतली बन जाने का खतरा साफ है। पर आज अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में राजनेताओं या उनके चहेते कॉरपोरेट महाराजाधिराजों के लिए मुद्दा जनता या शेयर धारकों के अधिकारों की पहरेदारी या जवाबदेही का नहीं, नए सूचना मंचों को कब्जा कर उनसे अपने हित में सारी खबरों को दिलवाने का बन गया है। मानहानि कानूनों, चुनावी आचरण संहिताओं और मुख्यधारा मीडिया को ठेंगा दिखा कर कोई भ्रष्ट दुराचारी राजनेता आज फेक खबरों तथा छवि निर्माताओं की मदद से किस अविश्वसनीय सीमा तक कितना धनबल-भुजबल बटोर सकता है, हम देख रहे हैं। और इसके बाद तय है कि वह बड़ी सहजता से अपने ऊपर लगने वाले सारे संगीन और प्रामाणिक आरोपों से शातिर तेल चुपड़े चोर की तरह मीडिया, संसद या कानून को ठेंगे पर रख कर साफ छूट जाएगा। जवाबदेही की चिंता की बजाय विश्व नेता अब कठिन सवालों पर बिगड़ खड़े होते हैं। अमेरिका के चर्चित चैनल ‘सीबीएस’ के सम्मानित कार्यक्रम ‘60 मिनट्स’ में लाइव कार्यक्रम में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप से वरिष्ठ महिला पत्रकार लेज्लीस्टाल ने पूछा कि क्या आप गहरे सवाल-जवाब को तैयार हैं? बेतरह नाराज होकर वह बोल पड़े, ‘तुम फेक हो।... बायस्ड हो... मीडिया ही फेक है और साफ बात तो यह है कि सोशल मीडिया न होता तो मैं अपनी बात कह ही नहीं पाता।’ कुछ देर बाद वह प्रोड्यूसर से कहते हैं, ‘बहुत हुआ। अब काफी हो गया। ओके?’

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मुख्यधारा मीडिया जो पूरी तरह से बड़े घरानों पर आश्रित है, अपना वजूद बचाने की शायद अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। विश्व के सम्मानित और सबसे भरोसेमंद संवाददाताओं- संपादकों वाले अखबारों का डेरा डंडा तो पहले ही उठ चुका था, जो नया डिजिटल मीडिया नेट तथा टीवी पर्दों पर चढ़कर बह चला है, वह भी देख रहा है कि जागरूक खोजी मीडिया द्वारा वाटरगेट कांडया जैन डायरी कांड या 2002 के गुजरात दंगों से परदा उठाने की साक्षी रही पीढ़ी बुझ चली है। टेस्ला के मालिक की ही तरह मनोरंजन उद्योग की सबसे बड़ी कंपनी- डिज्ने ने खबरिया चैनलों की बजाय अपने निवेश का मुंह अब ओटीटी प्लेटफॉर्मों की तरफ जो विशुद्ध मनोरंजन परोसते हैं, मोड़ दिया है। होते-होते अखबार ही नहीं, एक दिन सबसे तेज, या आपको रखे आगे या ‘सबकी खबर ले, सबको खबर दे’ जैसी टैग लाइन लगा कर अपना प्रचार करने वाले टीवी के खबरिया चैनल भी सरकारी विज्ञापनों या सरकार को खुश रखकर दिन दूने रात चौगुने अमीर बन रहे उद्योग घरानों की ही उदारता पर हर तरह से निर्भर, कृपा कांक्षी बनजाएंगे। दुनिया के तानाशाह बनते नेता और गूगल, फेसबुक से टेस्ला तक सभी बड़े औद्योगिक उपक्रमों के मालिकान मीडिया को वासांसि जीर्णानि की तरह त्याग कर खुद मुख्तार बन चुके हैं। शंकराचार्य ऐसे ही ऐतिहासिक बदलावों को देखकर बहुत पहले कह गए हैं, हम सब एक ही पेड़की शाखाओं पर पल भर को बैठे हुए पक्षी हैं। कोई किसी का स्थायी अपना सगा नहीं, हर पल उम्र और धनघट रहे हैं, तस्मात् जाग्रत जाग्रत! एक दूसरे की टांग खिंचाई का समय यह नहीं। जागते रहो मीडिया। फिर पाछे पछताये भी, तो कुछ नहोगा।

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