पुणे में बीजेपी के प्रदेश अधिवेशन में 21 जुलाई को पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अमित शाह ने शरद पवार को ‘देश में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा मास्टरमाइंड’ करार दिया। उन्होंने बड़ी तल्खी से कहा, ‘अगर भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाने के लिए कोई जिम्मेदार है, तो वह बिना शक शरद पवार हैं।’ विडंबना देखिए कि इस कार्यक्रम का आयोजन जिस स्टेडियम में हो रहा था, उसे पवार के ही कहने पर बनाया गया था।
एनसीपी (एससीपी) सांसद सुप्रिया सुले ने अपने पिता और पार्टी प्रमुख के खिलाफ गृहमंत्री के बयान को ‘हास्यास्पद’ बताया। यह बीजेपी सरकार ही थी जिसने शरद पवार को 2017 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था और वह नरेन्द्र मोदी ही थे जिन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते पवार को अपना ‘राजनीतिक गुरु’ बताया था। हालांकि मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान पवार को ‘भटकती आत्मा’ कहा और शाह ने जिस कड़वे अंदाज में पवार पर हमले किए, उसने राजनीतिक हलकों को हैरानी में डाल दिया है।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बीजेपी ने शरद पवार को लुभाने की पुरजोर कोशिशें कीं। यहां तक कि उसने यह सुझाव भी दिया कि महाराष्ट्र में छोटे दलों और अलग-अलग समूहों को बीजेपी में अपना विलय करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। खैर, पवार दबाव में नहीं झुके और वह एमवीए (महा विकास अघाड़ी) और ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ मजबूती से खड़े हैं। कहीं यही हताशा तो वजह नहीं थी कि शाह का व्यवहार इतना उग्र और भाषा इतनी असंयमित रही? शाह ने चिल्लाते हुए कहा, ‘एक बार जब हम महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जीत लेंगे, तो राहुल गांधी का अहंकार चूर-चूर हो जाएगा।’ इस पर मंच पर उपस्थित नेताओं ने बड़े ही रस्मी अंदाज में तालियां बजाईं तो पार्टी कार्यकर्ताओं ने भी आधे-अधूरे उत्साह के साथ अपनी प्रतिक्रिया दी। ऐसी प्रतिक्रिया देखकर शाह को नाटकीय अंदाज में अपनी बात और जोर से कहने के लिए मजबूर होना पड़ा। शरद पवार और राहुल गांधी पर हमला करने के बाद शाह के निशाने पर थे उद्धव ठाकरे जिन पर उन्होंने मुंबई विस्फोट मामलों के एक आरोपी याकूब मेमन के लिए क्षमादान मांगने वाले गिरोह में शामिल होने का आरोप लगाया। स्पष्ट रूप से शाह एकजुट एनसीपी का जिक्र कर रहे थे जिसका हिस्सा अजित पवार भी हुआ करते थे। क्या वह भूल गए कि बीजेपी ने अजित पवार से हाथ मिला लिया है और उन्हें वित्त विभाग के साथ उपमुख्यमंत्री भी बना दिया है?
जाहिर है, अमित शाह पर उन तीन राज्यों को जीतने का दबाव है जो बीजेपी से दूर रह गए लेकिन पर्यवेक्षकों को लगता है कि उनके इस तीखे हमले से फायदा होने के बजाय नुकसान ही हुआ है। न तो एकनाथ शिंदे और न ही अजित पवार ने अपनी पार्टियों का बीजेपी में विलय करने या महायुति गठबंधन में बीजेपी को बड़े भाई के रूप में स्वीकार करने की कोई इच्छा दिखाई है। कई एनसीपी विधायक और कुछ रिपोर्टों के अनुसार, खुद अजित पवार भी शरद पवार के नेतृत्व वाली मूल पार्टी में लौटने के रास्ते तलाश रहे हैं। दूसरी ओर, एकनाथ शिंदे ‘असली’ शिवसेना दिखने की लड़ाई में उद्धव ठाकरे पर सीधे हमले कर रहे हैं।
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पूरे महाराष्ट्र में शिंदे की तस्वीर वाले बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए हैं। चुनाव-पूर्व अभियान के तहत शिंदे को जनता द्वारा चुना गया नेता- ‘अपाला नाथ’ के रूप में पेश करने के लिए विज्ञापन अभियान शुरू किया गया है। होर्डिंग्स और विज्ञापनों- दोनों में मोदी, शाह और फड़नवीस को किनारे कर दिया गया है। शिंदे पहले ही कई विज्ञापन एजेंसियों और राजनीतिक रणनीतिकारों से सलाह ले चुके हैं। माना जाता है कि छवि बदलने के लिए बेताब अजित पवार ने भी राजनीतिक डिजिटल अभियान प्रबंधन एजेंसी- डिजाइन बॉक्स्ड इनोवेशन्स की सेवाएं ली हैं। यह एजेंसी पहले राजस्थान में अशोक गहलोत के लिए काम कर चुकी है और उसने चुनाव प्रचार में गुलाबी रंग का जमकर उपयोग करने की सलाह दी थी। अब देखना है कि यह कंपनी अजित पवार के लिए कौन-सा रंग सुझाती है।
शिंदे मराठी फिल्म ‘धर्मवीर’ के दूसरे भाग पर भी दांव लगा रहे हैं जो ठाणे के दिवंगत शिवसेना नेता आनंद दिघे की बायोपिक है। शिंदे का दावा है कि दिघे उनके गुरु थे। फिल्म का पहला भाग मई, 2022 में रिलीज किया गया था- शिंदे के विद्रोह से ठीक पहले जब शिवसेना में दो-फाड़ करते हुए वह ज्यादातर विधायकों के साथ गुवाहाटी चले गए थे। ‘धर्मवीर 2’ विधानसभा चुनाव से पहले अगस्त में रिलीज हो रही है और ओटीटी प्लेटफॉर्म के अलावा राज्य के हर सिनेमा हॉल में इसे मुफ्त में दिखाए जाने की संभावना है। राज्यसभा सांसद संजय राउत ने आरोप लगाया कि राजनीति से प्रेरित यह फिल्म दिघे और शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे- दोनों के प्रति अपमानजनक है।
ठाणे के आनंद आश्रम में दरबार लगाते हुए आनंद दिघे बड़े लोकप्रिय हुए और ‘धर्मवीर’ के रूप में जाने जाने लगे। 2001 में कार दुर्घटना के बाद अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। तब वह सिर्फ 50 वर्ष के थे। दिघे के कई समर्थक अब भी मानते हैं कि उनकी हत्या की गई थी, हालांकि दिघे के शिष्य नारायणे राणे ने इस मामले में साजिश की संभावनाओं से इनकार किया। राणे का दावा है कि सिंघानिया अस्पताल में दिघे को जीवित देखने वाले वह आखिरी व्यक्ति थे और वह जैसे ही उनके पास से हटे, दिघे ने दम तोड़ दिया। दिघे की मौत के बाद उनके समर्थकों की भीड़ ने अस्पताल को तहस-नहस कर दिया था। इस महीने के शुरू में शिंदे ने बॉबी देओल को फिल्म का पोस्टर जारी करने के लिए मुख्यमंत्री आवास पर आमंत्रित किया था। फिल्म में भूमिका निभाने वाले शिंदे को उम्मीद है कि यह फिल्म उन्हें शिवसैनिकों का समर्थन जीतने और ठाणे में अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद करेगी।
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12 जुलाई को विधान परिषद के सदस्य (एमएलसी) चुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा मैदान में उतारे गए सभी नौ उम्मीदवारों की जीत विपक्षी एमवीए गठबंधन को परेशान कर रही है। विधान परिषद की 11 सीटों के लिए 12 उम्मीदवार मैदान में थे जिन्हें विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुना जाना था। उम्मीदवार को जीतने के लिए 23 ‘प्रथम वरीयता’ वोट हासिल करने थे। 15 विधायकों वाली शिवसेना (यूबीटी) और 10 विधायकों वाली एनसीपी (एससीपी) के पास स्पष्टत: आवश्यक संख्या का अभाव था जबकि 31 विधायकों वाली कांग्रेस अपने उम्मीदवारों में से एक को जिताने की स्थिति में थी। बाकी वोट जाहिर तौर पर शिवसेना (यूबीटी) के मिलिंद नार्वेकर के पक्ष में डाले गए जो जीत गए, हालांकि एनसीपी (एससीपी) समर्थित पीडब्ल्यूपी (पीजैन्ट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया) के उम्मीदवार जयंत पाटिल हार गए। यहां तक कि 103 विधायकों वाली बीजेपी भी केवल पांच सीटें ही जीत सकी और लोकसभा चुनाव में हारने वाली पंकजा मुंडे को विधान परिषद में लाने में सफल रही। 38 विधायकों वाली शिवसेना (शिंदे) और 42 विधायकों वाली एनसीपी को दो-दो सीटें मिलीं, हालांकि तीनों ही पार्टियों के पास संख्याबल कम था और उन्हें विपक्षी खेमे की क्रॉस वोटिंग से फायदा हुआ।
हालांकि वोटिंग गुप्त मतदान के माध्यम से हुआ लेकिन कांग्रेस विधायकों पर पार्टी की आधिकारिक उम्मीदवार प्रज्ञा राजीव सातव के जीतने के बावजूद क्रॉस वोटिंग के आरोप लगे। कथित क्रॉस वोटिंग ने विपक्षी एकता पर ग्रहण लगा दिया है और एमवीए की एकजुटता और आपसी तालमेल को लेकर सवाल उठ रहे हैं। राज्य कांग्रेस के नेताओं ने दावा किया कि क्रॉस वोटिंग करने वालों की पहचान कर ली गई है और पार्टी उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी। हालांकि एमवीए के नेता बेफिक्र दिख रहे हैं और उनका दावा है कि एमएलसी चुनाव का अक्तूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
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