मध्य प्रदेश के बारे में लोकप्रिय कहावत है- ‘एमपी गजब है, सबसे अजब है’। हाल ही में यह कहावत बरबस ही ध्यान में आ गया जब मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कांग्रेस के मौजूदा विधायक रामनिवास रावत को कैबिनेट मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। कहावत की इसलिए याद आई क्योंकि पिछले ही साल हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 230 सदस्यों वाले सदन में 164 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया था, जबकि 66 सीटों के साथ कांग्रेस काफी पीछे रह गई थी। पार्टी (और उसके प्रिय मीडिया) को राज्य कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी के इस कटाक्ष का कोई जवाब नहीं सूझा कि इतने बड़े जनादेश वाली सरकार को ‘गोपाल भार्गव जैसे दिग्गज बीजेपी नेताओं को नजरअंदाज करते हुए कांग्रेस के एक मौजूदा विधायक को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए मजबूर होना पड़ा।’
छह बार के कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत इसलिए नाराज चल रहे थे कि पार्टी ने नेता विपक्ष या प्रदेश अध्यक्ष के पद के लिए उनके नाम पर विचार नहीं किया। हालांकि उन पर मौजूदा स्पीकर और पूर्व केन्द्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को जिताने में मदद करने के आरोप हैं। मीडिया से बातचीत में रावत ने कहा कि वह ‘सही समय’ पर इस्तीफा दे देंगे। बीजेपी सरकार में ऐसे सात मंत्री हैं जो कभी कांग्रेस में रहे और इसके अलावा सचिन बिड़ला का उदाहरण भी उनके पक्ष में है। कांग्रेस विधायक सचिन बिड़ला 2021 में बीजेपी में शामिल हुए लेकिन नवंबर, 2023 तक विधानसभा में अपनी सीट बरकरार रखी। चूंकि स्पीकर के फैसले को सामान्यतया अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती, इसलिए रावत के लिए डरने का कोई कारण नजर नहीं आता।
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वैसे, रावत के पाला बदलने के फैसले को तो समझा जा सकता है लेकिन उन्हें शामिल करने की बीजेपी की मजबूरियों को समझना मुश्किल है। रावत सार्वजनिक रूप से आरएसएस की तुलना तालिबान से करते हुए उसे आतंकवादी समूह बता चुके हैं। उन्होंने तब भी अपनी नाराजगी व्यक्त करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई थी जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी थी जबकि माधवराव सिंधिया रावत के मार्गदर्शक हुआ करते थे। गोपाल भार्गव जैसे कई वरिष्ठ बीजेपी विधायक हैं जो नौ-नौ बार विधायक रह चुके हैं। वह उपेक्षा से नाराज हैं। विजयपुर के बाबूलाल मेवरा, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई और कुसुम महदेले अपनी हताशा व्यक्त कर रहे हैं। इससे संकेत मिलता है कि बेशक मध्य प्रदेश लंबे समय से आरएसएस का गढ़ रहा हो, बीजेपी के पास चुनाव लड़कर जीतने वाले नेताओं की भारी कमी है।
राज्य विधानसभाओं के सत्र धीरे-धीरे छोटे होते जा रहे हैं जिनमें विपक्ष बहुत कम या बिल्कुल नहीं होता और राज्यपालों का भी कोई हस्तक्षेप नहीं होता। ऐसे में, मध्य प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र के महज पांच दिन बाद ही स्थगित हो जाने से भला कौन हैरान होगा? 19 जुलाई तक चलने वाले इस सत्र में बजट प्रावधानों पर चर्चा करने का भी मौका ही नहीं मिला क्योंकि 8 जुलाई को बजट पेश किया गया और अगले ही दिन सत्र स्थगित हो गया। वही घिसा-पिटा बहाना कि गैरजिम्मेदार विपक्ष सदन को चलने नहीं दे रहा है।
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इस बार विपक्ष कैबिनेट मंत्री विश्वास सारंग का इस्तीफा मांग रहा था। इससे पहले वह चिकित्सा शिक्षा के प्रभारी थे और नर्सिंग कॉलेज घोटाले में उनकी कथित भूमिका की अभी सीबीआई जांच चल रही है। आरोप है कि सैकड़ों नर्सिंग कॉलेजों को बिना आवश्यक मंजूरी के चलने दिया जा रहा था। इस मामले में एक संतोषजनक बयान देने या फिर चर्चा की अनुमति देने की जगह सत्र ही संपन्न कर दिया गया। बजट को ध्वनि मत से और सरकार के बहुमत के आधार पर पारित मान लिया गया। इसकी परवाह किसी को नहीं थी कि विधायकों को बजट प्रावधानों का अध्ययन करने और इसपर विचार-विमर्श करने का मौका नहीं दिया गया।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक, मध्य प्रदेश विधानसभा का सत्र 2009 से 2013 के बीच सालाना औसतन 33 दिन चला। 2014 से 2018 के बीच यह औसतन 27 दिन और 2019 से 2023 के बीच तो विधानसभा की बैठक साल में बमुश्किल 16 दिन हुई। पिछले तीन साल की बात करें तो 2023 में विधानसभा की बैठक 14 दिन, 2022 में 15 दिन और 2021 में 20 दिन हुई। इन तीन सालों के कुल 49 दिनों में 74 विधेयक पास हुए।
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पीआरएस की वेबसाइट पर इससे जुड़े कुछ और भी चौंकाने वाले तथ्य हैं: ‘2021 में 44 फीसद विधेयक पेश किए जाने के दिन या उसके अगले दिन ही पास किए गए। जनवरी, 2018 से सितंबर, 2022 के बीच गुजरात विधानसभा ने 92 विधेयक (विनियोग विधेयक को छोड़कर) पेश किए। इनमें से 91 को उनके पेश किए जाने के दिन ही पारित कर दिया गया। 2022 के मानसून सत्र में गोवा विधानसभा ने दो दिनों के अंतराल में 28 विधेयक पारित किए। यह विभिन्न सरकारी विभागों को बजटीय आवंटन पर चर्चा और मतदान के अतिरिक्त है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने अगस्त 2022 के सत्र में 10 विधेयकों पर चर्चा करने और उन्हें पारित करने में औसतन 12 मिनट का समय लगाया। उत्तराखंड विधानसभा ने तो 2022 के नवंबर में बुलाए गए सत्र में प्रत्येक विधेयक पर चर्चा के लिए केवल पांच मिनट निकाले।’ इन्हें देखते हुए क्या यह सवाल नहीं उठता है कि राज्यों की विधानसभा की जरूरत है भी क्या?
कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा मध्य प्रदेश में पार्टी की चुनावी हार का आकलन करने के कारणों का पता लगाने के लिए समिति भेजी गई और इसका नतीजा यह हुआ कि काफी-कुछ अंदाजा लग सका कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? बैठक में 29 लोकसभा उम्मीदवारों को तीन सदस्यीय समिति के साथ बैठक के लिए बुलाया गया और इसमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, ओडिशा के सांसद सप्तगिरि शंकर उलका और गुजरात के विधायक और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी शामिल थे। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बैठक में ऑनलाइन शामिल हुए। चुनाव हारने के बाद बीजेपी में शामिल होने वाले स्वाभाविक रूप से बैठक में शामिल नहीं हुए। समिति को बताया गया कि पिछले साल महू में जो हुआ, वह कांग्रेस की गलतियों का बेहतरीन नमूना है।
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पिछले साल कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में महू (अब डॉ. आंबेडकर नगर) से राम किशोर शुक्ला नाम के एक दलबदलू को चुनाव मैदान में उतारा था। पार्टी ने वरिष्ठ नेता अंतर सिंह दरबार को टिकट नहीं दिया और नाराज दरबार स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ गए। यह और बात है कि 31.37 फीसद वोट पाने के बाद भी वह हार गए लेकिन कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार शुक्ला को कुल वोट का मात्र 13.33 फीसद वोट मिला। पार्टी के लिए और भी अपमानजनक बात यह रही कि उन्होंने न केवल तुरंत बीजेपी का दामन थाम लिया, बल्कि खुलकर कहा, ‘मैं आरएसएस का कार्यकर्ता हूं और संघ के निर्देश पर कांग्रेस में शामिल हुआ था। मुझे संघ ने कहा था कि टिकट मिलने के बाद बीजेपी को जिताने में मदद करूं।’
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कांग्रेस के जो उम्मीदवार समिति के सामने आए, उन्होंने खराब प्रदर्शन के लिए कई कारण गिनाए: भितरघात, टिकट वितरण में देरी, कमलनाथ के कांग्रेस छोड़ने की लंबे समय से चल रही अटकलें, शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा आखिरी समय में ‘लाडली बहना’ योजना शुरू करना। इसके साथ ही उम्मीदवारों ने शिकायत की कि उन्हें वरिष्ठ नेताओं से जरूरी समर्थन नहीं मिला। यह भी कहा गया कि कुछ नेताओं ने जो ‘नरम हिन्दुत्व’ को अपनाया, उसका भी पार्टी को नुकसान पहुंचा।
कुछ लोगों ने सभी वर्गों और जातियों के नेताओं की पहचान करने और उन्हें आगे बढ़ाने में कांग्रेस की अक्षमता का हवाला दिया। उन्हें लगा कि राज्य में आरएसएस ने बेहतर काम किया। यह सुझाव दिया गया कि कांग्रेस को ‘सर्व धर्म सम्मान’ के अपने पुराने रुख से पीछे नहीं हटना चाहिए। कहा जाता है कि विंध्य क्षेत्र के एक नेता ने समिति से साफ कहा: ‘अगर आप चोर से चोर की पहचान करने को कहेंगे तो इसका कोई भी फायदा मिलने से रहा।’
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