साठ के दशक में कलकत्ता (अब कोलकाता) की गलियों-नुक्कड़ों की दीवारों पर लिखा रहता था– ‘तोमारनाम, आमारनाम, वियतनाम, वियतनाम’ (तुम्हारा नाम, मेरा नाम, वियतनाम, वियतनाम)। यह नारा वियतनाम के लोगों के साथ अपनी एकजुटता दर्शाने का जरिया था। उस समय वियतनाम हमलावर अमेरिकी फौजों से लड़ रहा था। सुप्रसिद्ध बांग्ला कवि शक्ति चट्टोपाध्याय ने इस ‘वॉलिंग’ को दीवार पर लिखी कविता कहा था।
लेकिन आज सोशल मीडिया और नई तकनीक के युग में म्यूजिक वीडियो पश्चिम बंगाल के चुनावी मौसम की सबसे बड़ी पसंद बन गए हैं। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने लोकप्रिय बांग्ला गीत ‘तुम्पा सोना’ की एक पैरोडी जारी की जिसमें लोगों को संगीत के माध्यम से कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में वामदलों की चुनावी रैली में आने का निमंत्रण दिया गया।
इसमें गली-कूचों में लोकप्रिय हो जाने वाली शब्दावली में भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस का एक साथ मजाक बनाया गया, हालांकि यह शुद्धतावादियों के गले नहीं उतरा। वे इस बात पर नाराज थे कि सीपीएम ने दूसरों की नकल उतारी है और चर्चित गीतों तथा अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया जिसके चलते वे संस्कृति के उस ऊंचे पायदान से अलग हो गए जिसके लिए समाजवादी और कम्युनिस्ट आंदोलन विश्व भर में जाने जाते हैं। हालांकि लेफ्ट ने अपने खोए हुए जनाधार को दोबारा हासिल करने के मकसद से लोगों से जुड़ने के लिए निचले तबकों में बोली जाने वाली बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल किया था।
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बीजेपी ने ममता बनर्जी के खिलाफ अपने अभियान को लॉन्च करने के लिए 19वीं शताब्दी के इतालवी आंदोलन के लोकप्रिय गीत ‘बेला चाओ’ यानी ‘गुडबाय, ब्यूटीफुल’ का ‘पिशी, जाओ’ (गुडबाय, आंटी) की पैरोडी बनाकर बखूबी इस्तेमाल किया। ‘बेला चाओ’ गीत को पिछले वर्ष सीएए विरोधी आंदोलनकारियों ने भी बखूबी इस्तेमाल किया था। और इसी गीत के पंजाबी संस्करण का दिल्ली की सीमाओं पर किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों ने भी जमकर इस्तेमाल किया है। विडंबना यह है कि ‘बेला चाओ’ फासीवादी विरोधी आंदोलन का चर्चित गीत रहा है और बंगाल में बीजेपी इसके इस्तेमाल से नहीं चूकी। तृणमूल कांग्रेस ने अपना एक म्यूजिक वीडियो ‘खेला होबे’ जारी किया है जिसका अर्थ है खेल अब शुरू हुआ। जबकि सिविल सोसायटी समूहों द्वारा चलाए जा रहे ‘नो वोट टु बीजेपी’ अभियान में इसी गीत का एक दूसरा संस्करण जारी किया गया है जिसमें वे बीजेपी, तृणमूल और कांग्रेस सहित सभी दलों का मजाक उड़ा रहे हैं।
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हालांकि बंगाल की रैलियों में युवा मतदाता और लोगों के बीच दृष्टिकोण की लड़ाई सोशल मीडिया पर म्यूजिक वीडियो के जरिये लड़ी जा रही है लेकिन परिहास से भरी हुई और जंगी वॉल राइटिंग (दीवारों पर लेखन) जो पहले के जमाने की सोशल मीडिया की लड़ाई होती थी, का चलन अभी भी पूरी तरह से धारा के बाहर नहीं हुआ है। हालांकि शुरुआती दो आम चुनावों में किसी भी प्रकार की वॉल राइटिंग का कोई सबूत नहीं मिलता। लेकिन साठ के दशक के मध्य में वॉल राइटिंग का नक्सलवादी आंदोलन के दौरान जमकर इस्तेमाल किया गया, खासकर 1967 से लेकर 1969 के बीच तक। यह विशेषकर इस कारण से हुआ कि अखबार और रेडियो- दोनों ही नक्सलवादियों पर गुर्राते थे, तो उऩ्होंने लोगों से बातचीत करने के लिए विकल्प के रूप में इस माध्यम- वॉल राइटिंग को चुना। संभव है, इसकी प्रेरणा लातिन अमेरिकी देशों से आई हो। इसे जल्दी से इस्तेमाल किया जा सकता है, यह खर्चीला नहीं पड़ता और खतरनाक चेतावनियां देने में बहुत ही प्रभावशाली साबित होता है।
पहले के चुनाव अभियानों के दौरान झंडों, रस्सी सेबांधे जाने वाले बैनरों, तख्तियों, बंदनवारों और पोस्टरों का इस्तेमाल होता था। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बती टंका- सा दिखने वाले स्क्रॉल पोस्टर का इस्तेमाल किया था जिसमें उन्होंने चर्चिच गीत ‘श्यामा- संगीत’ (देवी काली को समर्पित गीत) पर पैरोडी बनाई थी।
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साठ के दशक के मध्यकाल से ही वॉल राइटिंग का चलन शुरू हुआ और इसमें सभी तरह के साहित्यिक शस्त्रों– जैसे रूपकों, पैरोडी, वाक्चातुर्य, इलेस्ट्रेशन और ग्राफिक का इस्तेमाल किया गया। इन्हें ग्राफिटी कहना अनुचित होगा क्योंकि ग्राफिटी एक इतालवी शब्द ग्रेफितो से निकलता है जिसका अर्थ होता है घसीटाकारी या खरोंच कर लिखना। सबसे पहले इसका इस्तेमाल पुरातत्वविदों और पुरालेखविदों द्वारा सामान्य शब्दों में आकस्मिक लेखन, अपरिपक्व चित्रकारी और प्राचीन इमारतों को चिह्नित करने के लिए किया गया।
दीवारों पर लेखन के इतिहास को चारअलग-अलग चरणों में समझा जा सकता है। पहला, नक्सलबाड़ी के पहले का समय-काल, इसके बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन और आपातकाल का समय, फिर वाममोर्चा के शासनकाल का समय और आखिर में 2011 से जब तृणमूल के हाथों में सत्ता आई।
जहां सभी वॉल राइटिंग अक्सर वोट के लिए एक सीधी पुकार होने के साथ-साथ पार्टी के निशान की ओर ध्यान आकर्षित करते थे, वहीं ज्यादा लोकप्रिय वॉल राइटिंग में तुरंत जुबां पर बैठ जाने वाली कविताओं का इस्तेमाल किया जाता था ताकि प्रतिपक्षी को सीधी टक्कर दी जा सके। हालांकि कांग्रेस और सीपीएम वॉल राइटिंग में महारत रखते हैं, वहीं तृणमूल और बीजेपी ने भी विजुअल्स और टाइपोग्राफी परध्यान देते हुए बराबर की पकड़ बना ली है।
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कोलकाता में दीवारों पर आकर्षक तरीके से लिखी और चित्रित सामग्री इस बात का भी उदाहरण है कि किस तरह से राजनीतिक दलों ने विज्ञापन की आउटडोर तकनीकों को अपनाया है। उन्होंने आउटडोर विज्ञापन के मूल सिंद्धातों का इस्तेमाल किया– जैसे, चमकीले रंग, बड़े-बड़े अक्षर और ग्राफिक। दीवारों पर लिखने के लिए लाल, काला, हरा और नीला सबसे पसंदीदा रंग होते हैं। पीले का इस्तेमाल अधिकतर पृष्ठभूमि के रंग के रूप में किया जाता है। वामपंथी दल हरे और नीले रंग का इस्तेमाल नहीं करते हैं। तृणमूल कांग्रेस लाल रंग का इस्तेमाल नहीं करती है। बीजेपी विशेषकर भगवा, हरा, काला और यहां तक कि नीले रंग का इस्तेमाल करती है। कांग्रेस हरा, नीला, काला और कभी-कभार हल्का लाल रंग भी इस्तेमाल करती है।
इस शहर का जो कॉस्मोपॉलिटन चरित्र है, वह दीवारों पर साफ दिखता है। आप हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और विशिष्ट स्थानों पर गुरुमुखी, तमिल, तेलुगू और उड़िया भाषा भी देख सकते हैं। बल्कि तृणमूल कांग्रेस ने तो चाइना टाउन क्षेत्र में मेनडेरियन भाषा का इस्तेमाल भी किया था।
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जहां एक समय में दीवारों पर सभी प्रतिद्वंदियों के लिए सामान्यतः पर्याप्त स्थान मिलता था, वहीं अब अधिकाधिक स्थान अपने पास रखने की इच्छा के चलते चीजें बदल रही हैं। पहले कोई भी पार्टी अपने प्रतिद्वंदियों की दीवार पर अतिक्रमण नहीं करती थी, अब एक अनौपचारिक व्यवस्था के जरिये दीवारों की अग्रिम बुकिंग की जाती है ताकि किसी भी प्रकार के संभावित विवाद से बचा जा सके।
बहुत सारे युवा राजनीतिक दीवारों पर लिखने से बच रहे हैं ताकि वे शहर को साफ-सुथरा रख सकें। नागरिकों के कई समूह भी दीवारों को खराब करने का विरोध कर रहे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके शहर की दीवारें चुनावी अभियानों का कैनवास और किसी भी प्रकार के विजुअल पॉल्युशन का कारण बन जाएं।
(लेखक पब्लिक पॉलिसी, ब्रांड स्ट्रैटजी एंड एक्शनेबल इनसाइट के कंसल्टेंट और स्तंभकार हैं।
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