अगर किसी संक्रमण के चलते व्यक्ति का प्रतिरोधी तंत्र इतना ज्यादा सक्रिय हो जाए कि उसके कारण अंग ठीक से काम करना बंद कर दें तो ऐसी जानलेवा स्थिति को सेप्सिस कहते हैं। ऐसी खतरनाक प्रतिक्रिया के कारण शरीर के भीतर ऊतक नष्ट हो सकते हैं या फिर कई अंगों के काम करना बंद करने के कारण मौत भी हो सकती है।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
हाल ही में लांसेट पत्रिका में छपी स्टडी से पता चलता है कि हर साल दुनिया भर में होने वाली मौतों में से एक चौथाई का कारण सेप्सिस ही होता है। 2015 का उदाहरण देखें तो केवल जर्मनी में ही अस्पतालों में मरने वाले करीब 15 फीसदी लोगों की मौत का कारण सेप्सिस दर्ज किया गया, जो कि तमाम तरह के खतरनाक कैंसर के कारण होने वाली मौतों से भी ज्यादा है।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
इतनी बड़ी जानलेवा स्थिति होने के बावजूद इसके बारे में जानकारी और जागरुकता का बहुत अभाव दिखता है। जर्मन सेप्सिस फाउंडेशन की सलाह है कि लोगों को इन्फ्लूएंजा वायरस और न्यूमोकॉक्कस के खिलाफ टीका लगवाना चाहिए। कमजोर प्रतिरोधी तंत्र वाले नवजात बच्चों और डायबिटीज, कैंसर, एड्स और दूसरी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त बुजुर्गों को तो इसका खास खतरा होता है।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
वायरस, बैक्टीरिया, फंगस या परजीवी- इन तमाम तरह के रोगाणुओं के कारण सेप्सिस की शुरुआत हो सकती है। न्यूमोनिया, किसी घाव में संक्रमण, मूत्रनली के संक्रमण या पेट के संक्रमण अक्सर सेप्सिस का कारण बनते हैं। कई आम मौसमी इन्फ्लूएंजा वायरसों के अलावा दूसरे तेजी से फैलने वाले वायरसों के कारण भी ऐसा होता है- जैसे कि इबोला, पीत ज्वर, डेंगू, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू या फिर आजकल फैला हुआ कोरोना वायरस।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
संक्रमण के आम लक्षणों के अलावा जो खास लक्षण सेप्सिस की ओर इशारा करते हैं वे हैं ब्लड प्रेशर में अचानक गिरावट आना और उसी के साथ दिल की धड़कन तेजी से ऊपर जाना। साथ में बुखार, भारी और तेज तेज सांसें चलना और बहुत बीमार महसूस करना सेप्सिस के लक्षण होते हैं। इसके बाद अगला और गंभीर चरण होता है सेप्टिक शॉक, जिसमें ब्लड प्रेशर खतरनाक स्तर तक गिर जाता है। ऐसे में इमरजेंसी सेवा की मदद लेनी चाहिए।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
अस्पतालों में सेप्सिस के खूब मामले सामने आते हैं लेकिन अक्सर इनका पता काफी देर से चलता है। पता चलते ही इसका फौरन इलाज किया जाता है। खून की जांच होती है, एंटीबायोटिक दवा दी जाती है और रक्त का प्रवाह और वेंटिलेशन बनाए रखने पर भी ध्यान दिया जाता है। कई बार तो सावधानी के तौर पर सेप्सिस के मरीजों को आर्टिफिशियल कोमा में डाल दिया जाता है। इस दौरान तमाम उपकरणों के माध्यम से मरीज के अंगों को बचा कर रखने की व्यवस्था की जाती है।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
ऐसी गहन चिकित्सा ना केवल बेहद जटिल बल्कि बहुत ज्यादा महंगी भी होती है। केवल अमेरिकी अस्पतालों में ही हर साल इस पर 24 अरब डॉलर खर्च होते हैं. लेकिन सच तो यह है कि अस्पतालों में सीमित बेड होने के कारण केवल गिने चुने मरीजों को ही आईसीयू की सुविधा दी जा सकती है। ऐसे में कोरोना वायरस जैसे संक्रमणों के कारण जिन मरीजों को सांस की गंभीर समस्या और सेप्सिस की संभावना बनती दिखे, उन्हें ही पहले आईसीयू में रखा जाता है। यही कारण है कि मौजूदा सिस्टम में कोरोना के हर मरीज को आईसीयू की सुविधा नहीं दी जा सकती और इसीलिए संक्रमण को रोकना ही ज्यादा से ज्यादा जानें बचाने का सबसे कारगर उपाय है।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
राहत की बात यह है कि करीब आधे मरीजों में सेप्सिस के बाद आगे चलकर कोई गंभीर असर नहीं दिखता। वहीं दूसरे आधे मामलों में अस्पताल से छुट्टी मिलने के तीन महीने बाद जाकर मरीज को भयंकर संक्रमण, किडनी फेल या फिर कोई कार्डियोवैस्कुलर बीमारी हो जाती है।
इसके अलावा सेप्सिस के कई मरीजों में आगे चलकर लकवा, अवसाद या घबराहट की परेशानी सामने आ सकती है। इसलिए सबसे जरूरी बात है कि किसी तरह से मरीज में सेप्सिस होने से बचाया जाए या फिर जल्दी से जल्दी उसका पता लगाया जाए ताकि कोई थेरेपी उनकी जान बचाने की संभावना को बढ़ा सके।
Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST
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Published: 19 Mar 2020, 10:55 AM IST